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चक्रवर्ती विक्रमादित्य

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भारतीय इतिहासज्ञों के अनुसार, हिन्दू वीर नायकों और सम्राटों की श्रेणी में जो दर्जा श्रीकृष्ण और श्रीरामचन्द्र जैसे अवतार पुरुषों को प्राप्त है, लगभग उसी के बराबर महामानव, महाप्रतापी और परमवीर चक्रवर्ती विक्रमादित्य को प्राप्त है। सच तो यह है कि उनके बाद आने वाले हिन्दू राजाओं ने उनके पद चिन्हों पर चलने का और उनका अनुकरण करने का ही प्रयत्न किया। कारण वे उन्हें अपना आदर्श मानते थे। उदाहरणार्थ गुजरात के महान शासक चक्रवर्ती सिद्धराज जयसिंह, आजीवन दूसरे चक्रवर्ती विक्रमादित्य बनने का प्रयास करते रहे थे। दिल्ली के अन्तिम हिन्दू शासक की बलवती प्रेरणा ने ही उन्हें उन विदेशी हमलावरों से बार-बार लड़ने को बाध्य किया था, जो उनके देशवासियों को अपना गुलाम बनाना चाहते थे। चक्रवर्ती सम्राट की परम्परा हमारे देश में दुष्यन्त के पुत्र भरत से आरम्भ हुई। आज इन्हीं प्रथम चक्रवर्ती सम्राट भरत के नाम पर इस देश का नाम भारतवर्ष से जाना जाता है। तत्पश्‍चात् हस्तिनापुर (असली नाम आसन्दीवट) में कुरुपांचालों का साम्राज्य स्थापित हुआ, जो पेशावर के निकट स्थित तक्षशिला से लेकर बंगबूमि की सीमाओं तक फैला और विस्तृत हुआ।

इसी काल में भारत रूपी पुण्यभूमि पर दो ऐसे तेजस्वी पुरुषों ने जन्म लिया जिन्हें देवतुल्य माना जाता है। इनमें पहले थे व्यास जो आदि धर्मोपदेष्टाओं में से एक थे। दूसरे थे श्रीकृष्ण जो दिव्य प्रेमी, श्रेष्ठ कूटनीतिज्ञ तथा परमवीर थे। वे भारत की उस अलौकिक शक्ति का प्रतिनिधित्व करते थे, जिसका मूल स्रोत धर्म था। समस्त भारत आज तक श्रीकृष्ण की वन्दना कर अपने को धन्य मानता है।

श्रीकृष्ण ने धर्म के शत्रुओं को नष्ट करने तथा धर्म की पुनर्स्थापना हेतु अवतार लिया था। कुरुक्षेत्र में हुए युद्ध में जहाँ सारे भारत के राजा किसी न किसी पक्ष की ओर से लड़ने की खातिर जमा हुए थे, श्रीकृष्ण उसी पक्ष की ओर थे जो उनके मतानुसार धर्म के साथ था। धर्म रक्षा के उनके इस कृत्य ने सारे भारत में धर्म की रक्षा को जागृत किया।

चक्रवर्ती धारणा के साथ दो महान विचार जुड़े थे। चक्रवर्ती राजा को भारत का अधिराज सर्वोच्च माना जाता था। यह सर्वविजेता राजा होने के साथ-साथ धर्म का परम रक्षक भी होता था। इस प्रकार आर्यों ने चक्रवर्ती सम्राट की जो कल्पना की थी, वह एक ऐसे महान प्रतापी भारत-विजेता सम्राट की कल्पना थी, जो धर्म का रक्षक भी था।

श्रीकृष्ण ने मगध के असुर राजा जरासन्ध का अन्त कर उसके राज्य को आर्यावर्त्त में सम्मिलित किया था। लेकिन मगध के पराजित राजवंश ने आगे चलकर अपनी पराजय का बदला अपने विजेताओं के वंशजों को नष्ट करके लिया। ईसा से 700 वर्ष पूर्व मगध के शिशुनाग वंश के राजा भारत के अगले चक्रवर्ती राजा बने।

श्रीकृष्ण के पश्‍चात् धर्म का प्रतिनिधित्व करने वाला सर्वनियन्त्रक व्यक्तित्व इस देश की धरती पर बुद्ध के रूप में उभरा। किन्तु श्रीकृष्ण की भाँति उनके पास राजनीतिक सत्ता नहीं थी।

कूटनीतिज्ञ चाणक्य की सहायता से राजनीतिक सत्ता प्राप्त कर चक्रवर्ती पद पर अधिकार जमाने वाले चक्रवर्ती सम्राट थे चन्द्रगुप्त मौर्य। चाणक्य तथा चन्द्रगुप्त दोनों ने भारत को राजनीतिक दृष्टि से तो एक सूत्र में बान्धा ही, सांस्कृतिक एकता के बन्धन में भी बान्धा। लेकिन उनके चक्रवर्ती काल में धर्म को विशेष स्थान नहीं मिला। क्योंकि चन्द्रगुप्त का अधिकांश समय युद्धों में और शासन को सुव्यवस्थित करने में बीता।

चन्द्रगुप्त मौर्य के इस अधूरे कार्य को उनके पौत्र अशोक ने पूरा किया। जब पाटलिपुत्रि के सिंहासन पर बैठे तो धर्मचक्र और सत्ताचक्र दोनों का विलय भारत को देखने को मिला। वस्तुतः धर्म और राजनीति के विलय का यह सुनहरा सपना जो अशोक के राज्यकाल में पूरा हुआ, हमारी प्राचीन संस्कृति का एक आधार स्तम्भ बना। राष्ट्रीय मानस में अखिल भारतीय राजनीतिक सत्ता धर्म के साथ एकाकार होकर सामूहिक जीवन का लक्ष्य बन गयी और एक बार पुनः भारतीय मानस की भूमि पर विक्रमादित्य की कल्पना और परम्परा का बीज फैला और पल्लवित होने लगा।

चक्रवर्ती शिशुनाग ने मगध में जिस साम्राज्य की स्थापना की, वह ई.पू. सन् 71 तक चला उसने देश के सांस्कृतिक दृष्टिकोण और सामाजिक व्यवस्था को दृढ़ कर उन्हें देश की एकता व अखण्डता का अनिवार्य अंग बनाया। किन्तु मगध की शक्ति का ह्रास हो जाने के कारण यह एकता व अखण्डता अधिक समय तक अक्षुण्ण न रह पायी। बर्बर जातियों बैक्टियों-ग्रीक्स, पार्थियन्स, युएरिवस आदि ने भारत पर आक्रमण आरम्भ कर दिये। इन सबका दमन किया शक्तिशाली विक्रमादित्य ने।

यद्यपि विक्रमादित्य के शौर्यपूर्ण कारनामों की अधिक जानकारी नहीं मिलती, तथापि इतिहास हमें इतना अवश्य बताता है कि उन्होंने न केवल इन बर्बर जातियों का दमन ही किया, बल्कि जो भारत नहीं छोड़ पाये उन्हें भारतीय समाज में आत्मसात भी किया। उनका यह उज्ज्वल कृत्य सदा दैदीप्यमान अक्षरों में भारतीय मानस पर अंकित रहेगा।

श्रीकृष्ण ने धर्म के शत्रुओं से धर्म की रक्षा की, लेकिन एक राजा के रूप में नहीं। अशोक भी धर्म रक्षक थे, किन्तु उन्हें विरासत के रूप में एक जमा-जमाया सुरक्षित साम्राज्य मिला था।

किन्तु इन धर्म रक्षकों में सबसे अधिक लोगों का प्यार जीता विक्रमादित्य ने। कारण वे श्रीकृष्ण, परशुराम और अशोक की भाँति अति मानव न होकर एक मानव थे। ऐसे मानव जिन्होंने अपने शौर्य के बल पर आततायी बर्बर जातियों को भारत से खदेड़कर एक सशक्त राजनीतिक सत्ता कायम की। साहित्य व कला का संवर्धन किया। धर्म की रक्षा की। और उनका सबसे बड़ा गुण यह था कि उन्होंने दीनहीन प्रजाजन की सब भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति की।

विक्रमादित्य ने परशुराम, श्रीकृष्ण, बुद्ध तथा अशोक का संघटित स्वरूप तो प्रस्तुत किया ही, इन सबकी अपेक्षा वे साधारण भारतीय से अधिक निकट इसलिए आ सके, क्योंकि उनकी सहजता से सब तादात्म्य हो सकते थे। - कन्हैयालाल माणिकलाल मुन्शी

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