भोजन का हमारे शरीर और मन से गहरा सम्बन्ध है। क्योंकि इन दोनों की स्थिति और वृद्धि इसी के द्वारा होती है। इसलिये आत्म-दृष्टि अथवा मानसिक-विजय के जिज्ञासुओं के लिये क्या-कब-क्यों और कैसा भोजन करना चाहिये, यह जान लेना अत्यन्त आवश्यक है।
आत्मदर्शियों का जिन्हें अन्तर्दृष्टि प्राप्त करने में विजय मिली है, अब तक का अनुभव हमें अपने निर्णय पर पहुंचने में अत्यन्त लाभदायक सिद्ध हुआ है। इसलिये हमें क्या खाना और क्या न खाना चाहिये, इसका उत्तर यदि हम उन्हीं के अनुसार प्राप्त करें तो अच्छा होगा। इस सम्बम्ध में उनके आदेश विधि और निषेध के रूप में हमें प्राप्त हैं कि हमें क्या खाना है। भोजन विषयक विधि के अनुसार सात्विक खाद्य-पदार्थ क्रमोत्तर से इस प्रकार हैं- फल, शाक (हरी पत्तियों के), कन्द-मूल, दूध, घी, मक्खन और सात्विक अन्न जिसमें गेहूँ और जौ मुख्य हैं। अन्न के साथ लवण और शर्करा का व्यवहार उचित और सीमित मात्रा में ही ग्राह्य है। हमें क्या नहीं खाना चाहिये, यह निषेध में आता है और इस प्रकार है- अधिक पके तथा सड़े-गले और अधिक कच्चे फल, विषैली, कटु और तीव्र पत्तियाँ, अति खट्टे, दाहकारक, चटपटे और अरुचिकर पदार्थ जैसे लाल मिर्च, मसाले तथा आमूचर, दुर्गन्धयुक्त कन्द और मूल, दुर्गन्धयुक्त पदार्थों और हिंसक प्राणियों का दूध, दुर्गन्धयुक्त तथा पुराना और सड़ा हुआ तथा बासी भोजन नहीं खाना चाहिये।
चोरी, झूठ, कपट, धोखा तथा हत्या से प्राप्त अन्न अथवा अन्य पदार्थ भी निषिद्ध की श्रेणी में आते हैं। उड़द, चावल, दही और मट्ठा अधिक मात्रा में वर्जित हैं। सब प्रकार के मांस, मछली, अण्डा आदि से तैयार किये हुये सब प्रकार के व्यंजन, जिन पात्रों तथा हाथों से ये बनाये जाएं और स्पर्श किये जाएं उनका स्पर्श किया भोजन, मदिरा और सब मादक द्रव्य (गांजा, चरस, तम्बाकू, भांग और अफीम इत्यादि) अपवित्र और सर्वथा त्याज्य ठहराये गये हैं। निषिद्ध, वर्जित और त्याज्य पदार्थों के सेवन से काम, क्रोध आदि मानसिक उद्वेगों को प्रोत्साहन मिलता है तथा एकाग्रता में विघ्न उपस्थित होते हैं।
भोजन खूब भूख लगने पर ही थोड़ा और खूब चबा-चबाकर खाना चाहिये। नियमपूर्वक ठीक समय पर भोजन करना स्वास्थ्य के लिये लाभदायक है। भोजन शुद्ध रीति से और पवित्रता तथा स्वच्छतापूर्वक सिद्ध किया हुआ होना चाहिए। स्नान-ध्यान के पश्चात् पवित्रतापूर्वक ही एकान्त, सुखदायक और पवित्र स्थान पर बैठकर भोजन करना चाहिये।
भोजन जीभ के स्वाद के लिये नहीं, वरन् शरीर यात्रा में उसकी अत्यन्त आवश्यकता को ध्यान में रखकर ही जीवन निर्वाह के लिये ग्रहण करना चाहिये। भोजन के लिये हमें प्रकृति माता तथा जगन्नियन्ता का आभारी होने का भी ध्यान रखना अत्यन्त लाभकारी है। इससे हमारा मन हल्का हो जाता है और सात्विक वृत्तियाँ जाग्रत हो जाती हैं।
भोजन सदा पुष्टिकारक हो, यह देखना भी अत्यन्त आवश्यक है। यदि पेट भरने मात्र से ही भोजन का अर्थ लिया जाये, तो भी उचित नहीं। जल्दी में और चिन्ता व शोक के समय भोजन न करके उपवास करना ही अधिक उचित होता है। हमें पेट सम्बन्धी विकारों से बचने के लिये महीने में चार-पांच दिन उपवास के लिये भी नियत कर लेने चाहिएं। इसके लिये हिन्दू धर्म-ग्रन्थों में कुछ दिवस नियत किये हुये हैं जैसे एकादशी, अमावस्या, पूर्णिमा आदि। उपवास से आत्म-चिन्तन में बड़ी सहायता मिलती है। - डॉ. रामस्वरूप गुप्त
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