देश की सीमाएं असुरक्षित हैं और धरती आतंकित। सीमाएं शत्रुओं की आवाजाही रोक नहीं पा रही हैं। देशवासी शर्मिन्दा हैं। कुछ अपने किए और अनकिए पर और बहुत कुछ अपनी सरकारों, अपने संरक्षकों, प्रतिनिधियों, नेताओं और बुद्धिराक्षसों के किए-अनकिए और कहे-अनकहे पर। कैसा बनाया गया है यह देश गत पैंसठ वर्षों में ? हमारा गणतन्त्र बासठ वर्ष का हो गया। बासठ वर्षों की अपनी इस ‘आयुयात्रा’ में उसे क्या-क्या संताप, कौन-कौन सी यातनाएँ और कैसे-कैसे अपमान झेलने पड़े यह जगजाहिर है तो भी ‘हम भारत के लोग’ कुछ कर नहीं पा रहे हैं तो क्यों? भारत की संविधान सभा में सभा के अध्यक्ष देशरत्न डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद और पण्डित जवाहरलाल नेहरू सहित अनेक नेताओं ने बार-बार जिस अतिप्राचीन भारत राष्ट्र का उल्लेख करते हुए उसकी परम्पराओं और उसके जीवनदर्शन के आधार पर व्यवस्था का निर्माण करने की आवश्यकता पर बल दिया था, कहाँ खो गया वह अतिप्राचीन राष्ट्र? किसने उसे शर्मिन्दगी और सांसत में डाला कि वह जिस किसी भी ओर आँख उठाता है उधर भ्रष्टाचार, बलात्कार, कदाचार, घूसखोरी, लूट, विश्वासघात, आतंकवाद, असुरक्षा, गरीबी, महंगाई, बेरोजगारी, हिंसा, विघटन और विभाजन का माहौल, मार दिए और मिटा दिए जाने का भय और परजीविता की मजबूरी दिखाई देती है?
यदि हम अपने देश की बासठ वर्षीय गणतंत्रीय यात्रा का अवलोकन और उसका आकलन करें तो सबसे पहले दिखाई यह देगा कि जिस संविधान को आधार बनाकर हम भारत के लोगों ने अपने राष्ट्र के नवनिर्माण की प्रक्रिया प्रारम्भ की थी, वह घायल और लहूलुहान है। कुटिल राजनीति और देशतोड़क ताकतों के कारण अनेक संशोधनी पट्टियों से बन्धा हुआ वह (संविधान) बिलख रहा है और उसकी सुनने वाला कोई नहीं है। भारतीय गणतन्त्र की संचालक विधायिका विधि निर्माण कम और वह सब कुछ अधिक करती दिखाई देती है जो विधि और परम्परा के विरुद्ध होता है। वहाँ बहस कम, विवाद अधिक होता है। आए दिन योजनाबद्ध प्रयास किया जाता है कि किस प्रकार सदन की कार्यवाही न चलने देकर पक्ष-विपक्ष अपने दलीय राजनीतिक पराक्रम का प्रदर्शन करें। सत्तापक्ष प्रश्नों का उत्तर मौन से या टालकर देता है और विपक्ष अपने प्रश्नों को अपने ही शोर-शराबे में उत्तर मिलने या दिए जाने के पूर्व ही डुबो देता है। विधायिका में जन-प्रतिनिधित्व करने वालों की संख्या में लोक-संस्कारियों की संख्या की दिन-प्रतिदिन घटत और धनपतियों, बाहुबलियों, तस्करों तथा देशतोड़कों के प्रभाव में बढ़त ने विधिसम्मत शासन-व्यवस्था का नहीं, अवैध- अराजक और हिंसक तत्वों के लिए आरामदायक वातावरण का निर्माण किया है।
कार्यपालिका की दशा यह है कि उसका कार्य अब न्यायालय, विशेषकर उच्चतम न्यायालय को करना पड़ रहा है। नदी जल-विवाद से लेकर पर्यावरण की समस्या, भ्रष्टाचार और कालाधन आदि अनेक समस्याओं का समाधान न्यायालिका को करना पड़ रहा है। न्याय इतना विलम्बित हो गया है कि उसे न्याय कहना अन्याय का पक्ष पुष्ट करना है। बुद्धिजीवियों, लेखकों और पत्रकारों की भी कोई मर्यादा नहीं रही। राजनीतिज्ञों की तरह वे भी वैचारिक छुआछूत के संक्रामक रोग से ग्रस्त हैं। वे किसी भी सार्थक बहस से कतराते और घबराते हैं। सैद्धान्तिक प्रतिबद्धताएं उनकी सुख-सुविधा की मोहताज हो गई हैं और वे किसी न किसी दल, नेता या उद्योग समूह के पैरोकार या कर्मचारी की तरह आचरण करने लगे हैं। राजनीतिक दलों के नेताओं की अपराधियों, आतंकवादियों और तस्करों के साथ सांठगांठ है। कश्मीर के आतंकियों और पूर्वोत्तर के देशतोड़कों से सम्बद्ध लोगों को धन और साधन देने वालों से राजनीतिक नेता भी बेझिझक और बेशुमार धन लेते हैं। बेनामी धन और जमीन-जायदाद का स्वामी बनने में इनको महारत हासिल है। ये अवैध मामलों में फंसते हैं तो उसे पार्टी का मामला बताते हैं और नहीं फंसते तो लोकनायक की तरह व्यवहार करते हैं। इस समय देश में एक भी ऐसा दल नहीं है जिसका कोई न कोई नेता किसी न किसी आरोप की चपेट में न हो।
और आम आदमी? उसका हाल न पूछें तो ही अच्छा। क्योंकि उसमें हम सभी शामिल हैं और अपनी बात बेबाकी से कहने और करने का साहस हमारे अन्दर नहीं है। हम बिगड़ी बातों को बनाने का नहीं, उस पर पर्दा डालने के लिए ‘बलि के बकरे’ की खोज करते रहते हैं। अपने देश-दायित्व को प्रमुखता न देकर हम उन ‘ठेकेदारों’ पर भरोसा करने लगे हैं जो किसी भवन या पुल की तरह देश का विकास और लोकजीवन का नियम-संचालन भी ठेके पर कराना चाहते हैं तथा करा रहे हैं। हम चाहते हैं कि हमें कुछ न करना पड़े। हमारी ओर से हमारे लिए कोई और करे? आजाद होने का अर्थ हमने यह लगाया है कि सब कुछ सरकार करेगी, हम तो उपभोक्ता हैं और हमें चैन की जिन्दगी जीने का अधिकार है। हमारी इसी मानसिकता का नतीजा है कि हम जो चाहते हैं वह नहीं होता। जो किया जाना चाहिए वह नहीं किया जाता। यदि देश का ‘गण’ ठीक नहीं है, तो उसका ‘गणतन्त्र’ ठीक कैसे होगा, ठीक-ठीक कैसे चलेगा।
प्रश्न यह है कि क्यों नहीं ठीक-ठाक चल रहा है हमारा गणतन्त्र, हमारा लोकतन्त्र और हमारा लोकजीवन? उत्तर स्पष्ट है कि ऐसा इसलिए है कि हमने अपने आजाद देश की यात्रा और गणतन्त्र का आरम्भ दोहरे और दोगलेपन के साथ किया। पन्द्रह अगस्त 1947 के पूर्व जो भारत अतिप्राचीन राष्ट्र था, पन्द्रह अगस्त 1947 को आजाद होने के बाद उसे एक ऐसा राष्ट्र कहा गया, “जिसे अभी राष्ट्र बनना है और जो अभी राष्ट्र बनने की प्रक्रिया से गुजर रहा है। अंग्रेजों की कृपा से इसे राष्ट्र होने का अहसास हुआ और इसलिए भारत देश की धरती पर हमें एक नया राष्ट्र बनाना है।’’ हमारे देश के संविधान के प्रथम भाग की प्रथम पंक्ति इस दोगले और दोहरेपन का दस्तावेजी सबूत है कि “इण्डिया अर्थात् भारत राज्यों का संघ होगा।’’ एक देश के दो सांविधानिक नाम और उसके मूल नाम पर विदेशी साम्राज्यवाद द्वारा थोपे गए नामकरण को दी गई वरीयता का यह नतीजा है कि हम न भारत बन पा रहे हैं और न ही इण्डिया ही। हमारा देश ‘भारत और इण्डिया’ के मानसिक द्वन्दयुद्ध में फंसा हुआ है। इसकी संस्कृति, इसका स्वभाव, इसका चरित्र, इसका चिन्तन और इसकी चेतना को ‘इण्डिया’ से जुड़ा सोच, यहाँ के मनुष्य और उसकी मानसिकता भ्रष्ट कर रहे हैं हैं और हम हैं कि ‘इण्डिया’ को आधुनिक और ‘भारत’ को अन्धयुग का मानकर आत्मनाश करने को उत्थान करना मानकर फूले नहीं समाते।
इस देश का केवल नाम ही नहीं, इसका रूप और स्वरूप भी दोहरा और दोगला बना दिया गया है। हम भारत के लोगों को जो संविधान दिया गया है और जिसे पवित्र गाय मानने की हमें नसीहतें दी जाती हैं तथा जिसे ‘गाय’ की तरह ही समय-समय पर संशोधनों के खंजर से काटा जाता रहता है, उसमें भारत को एक रस और एकात्म राष्ट्र नहीं, ‘राज्यों का संघ’ कहा गया है। जैसे विभिन्न राज्यों की सहमति में से भारत राष्ट्र का जन्म हुआ हो और यदि यहाँ के विभिन्न राज्यों ने ‘एकराष्ट्र’ बनने के लिए समझौता न किया होता तो इस भूगोल पर भारत नामक राष्ट्र का उदय ही नहीं हुआ होता। भारत को भारत नहीं अमरीका, इंग्लैण्ड तथा दूसरे पश्चिमी देशों और समाप्त हो चुके सोवियत रूस जैसा कुछ बनाने के प्रयास का ही नतीजा है कि न हम अपने पौरुष को पहचान पा रहे हैं और न ही अपनी प्रतिभा का प्रगटीकरणकर पा रहे हैं। यही कारण है कि हमारी वैदिककालीन अतिप्राचीन राष्ट्रीय अस्मिता और उसके अस्तित्व का पूरा-पूरा अहसास हमें नहीं हो पा रहा है और हमारे अपने ही देश के नेता-नियन्ता, बुद्धिजीवी और विचारक अपनी ही संस्कृति और परम्परा, अपने ही पूर्वजों, अपनी ही राष्ट्रीय प्रज्ञा और मुख्य जीवन प्रवाह के विरुद्ध ताल ठोककर खड़े हैं कि ‘चाहे जो कुछ भी हो जाए, लेकिन हम ‘इण्डिया’ को छोड़कर ‘भारत’ को नहीं अपनाएंगे।’
‘इण्डिया’ को छोड़कर ‘भारत’ को न अपनाने के बदले में ही हमें मिली है आज की यह शर्मिन्दगी। इसी की देन है आज का कदाचार, भ्रष्टाचार, बेचारगी, भूख, गरीबी, बेरोजगारी, मानसिक विकलांगता, पौरुष और पराक्रमहीन, पराश्रित भिखारी जीवन तथा चरित्रहीनता। हमारी मानसिक विकलांगता और वैचारिक कोढ़ इसी का उत्पाद है। यही कारण है कि कभी कोई किसी युवती को रास्ते और घर से पकड़ ले जाकर उसे अपनी हवस का शिकार बनाता है। कोई किसी व्यक्ति को उसके घर से बाहर लाकर भीड़ भरे चौराहे पर उसकी हत्या कर देता है और ‘हम भारत के लोग’ उसे कुछ न होना मानकर अनदेखा कर देते हैं। कोई भी ऐसा व्यक्ति सामने नहीं आता जो इन बलात्कारियों, अपहर्ताओं और हत्यारों पर अंगुली उठाए, उन्हें रोके, उनको पत्थर मारे। हमारे ‘भारत देश’ की जिन्दगी को ‘इण्डिया’ ने नरक बना दिया है। हमारे देश को राज्यों का संघ बनाने और ’इण्डिया दैट इज भारत’ की सोच तोड़ रही है तथा हम राज्यों का संघ कहलाकर संयुक्त राज्य अमरीका और यूनाइटेड किंगडम (इंग्लैण्ड) बनने की दौड़ और होड़ कर रहे हैं कि ‘यदि वे आधुनिक राष्ट्र राज्यों-साम्राज्यों का संघ हैं तो भारत को भी आधुनिक कहलाने-बनने के लिए वैसा ही होना और बनना होगा। इसे भी वैसा ही होना चाहिए।
‘भारत’ को ‘इण्डिया’ बनाने का प्रयास न किया गया होता और हम भारत के लोग ‘इण्डियाई भ्रमजाल’ में न फंसे होते तो भारत की सीमाएँ और उसकी धरती इतना अधिक असुरक्षित न हुए होते कि किसी देश का कोई आतंकी हमारी देशभूमि पर आतंक करता।
भारत की कथा बहुत ही दुःखद और बहुत ही भय भरी है। देश-दशा इतनी भयग्रस्त, इतनी दुःखदायी, इतनी अस्थिर, असुरक्षित, अराजक और असहाय है कि हमारे देश के वैज्ञानिकों, उद्यमियों, अभियन्ताओं की उपलब्धियों और लोकसेवकों की सेवाएं उनके नीचे इस कदर दब गई हैं कि हमें उनका अहसास तक नहीं होता। कर्जदार देश के खुदगर्ज नेताओं ने इस देश की जितनी हानि गत पैंसठ और बासठ वर्षों में की है, उतनी हानि उसे गुलामी और संघर्ष के हजारों वर्षों में भी नहीं उठानी पड़ी। यदि ‘हम भारत के लोग’ अपनी उदासीनता का त्याग नहीं करेंगे, यदि हम अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह करने के लिए आगे नहीं आएंगे, यदि हम मुखर और सक्रिय नहीं होंगे, यदि हमने अपनी मानसिकता को नहीं बदला, यदि देश के राजनीतिक नेतृत्व में कोई सार्थक परिवर्तन नहीं किया गया या हुआ तो हमारी असुरक्षित सीमाएँ, हमारी धरती के नीचे बिछी बारूदी सुरंगें हमारा नामशेष कर देंगीं और हम टुकड़े-टुकड़े होकर कहीं के नहीं रह जाएंगे।
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