विशेष :

बच्चे बचपन में ही प्रौढ़ हो रहे हैं

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जवाहर सिंह अपने ग्राम पिलखना से आकर अलीगढ़ में मजदूरी करता है। पुत्रियों के जन्म के बाद पुत्र के लिए अभिलाषा और तीव्र हो जाती है। उसके यहाँ जब पुत्र का जन्म हुआ, तो सबकी नजर से बचाने के लिए ही उसने अपने पुत्र का नाम रखा बेनामी। इसी अन्धधारणा के कारण अनेक दम्पती अपनी सन्तानों के ऊटपटांग नाम रख लेते हैं। गुरुवार 31 जुलाई 2008 की बात है। जवाहर अपने काम पर चला गया और उसकी पत्नी सरोज कार्यवश ग्राम पिलखना चली गई। चौदह वर्षीय बेटी रेणू घर पर थी। उसका दस वर्षीय भाई बेनामी, सात वर्षीय छोटू और चार वर्षीय बहन मधु स्कूल से घर आये। बहन मधु ने बेनामी के बस्ते से पेंसिल निकालकर लिखना शुरू कर दिया। इसी बात पर बेनामी ने मधु की पिटाई कर दी। इसके बाद भी मधु ने पेंसिल देने से मना कर दिया। बहन द्वारा पेंसिल वापस न करने से नाराज बेनामी ने धमकी दी की वह फांसी लगा लेगा। इसी बीच बड़ी बहन रेणू शौच करने चली गई। लौटकर उसने मधु से पूछा कि भाई कहाँ है? तो उसने बताया कि कमरा बन्द कर अन्दर बैठा है। रेणू ने कमरा खुलवाने का प्रयास किया तो भीतर से कोई आवाज नहीं आई। रेणू ने पड़ोस के कमरे में जाकर खिड़की से देखा, तो बेनामी चारपाई के पाये से झूल रहा था। बच्चे ने चारपाई के पाये में दुपट्टा बांधकर फांसी का फन्दा लगा लिया था। इसके बाद के शोक-सन्ताप व कोहराम का वर्णन ही क्या करना? सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। बेनामी बेजान हो गया। रोने का सामान दे गया। माता-पिता का अरमान मिट गया।

इस प्रकार की आपदाग्रस्त घटनाएं यदा-कदा प्रौढ़ जनों में हो जाया करती थीं, जो आज बच्चों में आम हो गई हैं। बात आत्महत्या की ही नहीं, बच्चे खेल-खेल में अपने साथी बच्चों की हत्या तक कर देते हैं, साथ ही अपरिपक्वता में यौनाचार के शिकार होते देखते जाते हैं। तात्पर्य यह है कि अपनी बालसुलभ क्रीड़ाओं को छोड़कर अब वे वह सब करने पर आमादा हैं, जो पौढ़ों के लिए ही संभव होता था। साधारण सी बात है कि अनुकरण करना बच्चों की प्रवृत्ति होती है। वैदिक संस्कृति इस बात की विशेष सावधानी बरतती आई है कि बच्चों को संस्कारों की शृंखला में ढाला जाये और उन्हें इस प्रकार से पाला जाये कि कोई भी कुविचार, अभद्र शब्द और अवांछित दृश्य की छाया उन पर पड़ने न पाये। यह बात कोरी कल्पना नहीं है। इन्हीं वैदिक संस्कारों ने इस भारत वसुन्धरा पर ऐसे बच्चों का निर्माण किया है, जिन्होंने विश्‍व धरातल पर वेद और उसकी वाणी का गौरवगान किया है। एक नाम लेंगे तो सहस्रों महापुरुषों की यशगाथा गुञ्जायमान हो उठेगी।

बच्चे बचपन की ललित-कलित क्रीड़ाओं को छोड़कर तड़ित-घृणित क्रीड़ाओं को क्यों करने लगे हैं? इस पर आपने विचार तो अवश्य किया होगा। टेलीविजन की आकर्षक पेटिका, जिसके रिमोट (दूर परिचालक) का एक बटन दबाते ही उस पिटारी के पटल पर वह सब उपस्थित हो जाता है, जिसके द्वारा बालमन विकार का शिकार हो जाता है। बच्चे के कच्चे मानस पटल पर अटपटे, अशोभन व हिंसक दृश्य-शब्द पक्के होने लगते हैं और असमय में ही वे प्रौढ़ हों जाते हैं। प्रौढ़ हों, परन्तु किसी सकारात्मक सृजनशील शास्त्रीय प्रभा में प्रौढ़ हों, तो कोई बात भी है। प्रौढ़ होते हैं पर नकारात्मक, हिंसा, दुराचार, दुर्व्यसन, भोग-विलास और मादक द्रव्यों के वशीभूत होकर हत्या तथा आत्महत्या की डगर पर उनके अप्रौढ़ पग डगर-मगर होने लगते हैं। शासन को बच्चों के चरित्र निर्माण की किञ्चित चिन्ता नहीं। क्योंकि जो शासन के नियन्ता होते हैं, वे स्वयं दूरदर्शन के समाचार चित्रों में सच्चरित्रता को अंगूठा दिखाते हुए उपस्थित होते हैं। वे कोषागार के राजस्व के लिये राष्ट्र के सर्वस्व चारित्रिक स्वत्व को संसद के सर्वोच्च मंच पर निर्वस्त्र करते दिखाई देते हैं। कोषागार का भी कोई पारावार नहीं। वह कितना राष्ट्रीय विकास का आधार बनता है और कितना राष्ट्र विनाशक! अनाधिकारी अधिकारी का आहार हड़प जाता है।

भारत में कितने सन्त-महात्मा-महाराज हैं, जो वास्तव में तथाकथित ही हैं, जो जनता को उपदेश सुनाते हैं- माया महाठगिनी हम जानी। पर स्वयं दिन दूनी-रात चौगुनी माया की करते रहते हैं अगवानी। कितने हैं जो वेदकथा कहते हैं तथा मानव की व्यथा हरते हैं? यों समझिये नक्कारखाने में तूती की आवाज। बेनामी बेजान हो गया, क्योंकि वेदमार्ग से अनजान हो गया। ऋग्वेद के पृष्ठ पलटते हुए कुछ पवित्र ऋचाओं पर आंखें टिक गई। प्रथम मण्डल के 165 वें सूक्त की 15 ऋचायें बड़ी मधुर व मनोहारी लगीं। स्थानाभाववश यह चर्चा केवल प्रथम मन्त्र तक सीमित रखते हुए बच्चों के उत्तमोत्तम जीवन निर्माण की प्रेरणा प्राप्त करते हैं-
कया शुभा सवयसः सनीळाः समान्य मरुतः सं मिमिक्षुः।
कया मती कुत एतास एतेऽर्चन्ति शुष्मं वृषणो वसूया॥

महर्षि दयानन्द ने इस मन्त्र के भावार्थ में लिखा है- “जैसे पवन वर्षा कर सबको तृप्त करते हैं, वैसे विद्वान जन भी रागद्वेषरहित धर्मयुक्त किस क्रिया से जनों की उन्नति करावें और किस विज्ञान या अच्छी क्रिया से सबका सत्कार करें? इस विषय में उत्तर यही है कि आप्त जनों की रीति और वेदोक्त क्रिया से उक्त कार्य करें।’‘ आप्त पुरुष कहीं आकाश से नहीं टपकते, इसी धरती माता, सरस्वती माता व जननी माता की कोख और संस्कारों के स्रोत से जन्मते हैं।

भाष्यकार पं. हरिशरण सिद्धान्तालंकार के अनुसार इस मन्त्र में विद्यार्थी की कर्त्तव्यत्रयी का बोध कराया गया है। समान आयुष्य वाले एक ही आचार्यकुल (गुरुकुल) में रहने वाले प्राणसाधना करने वाले वे विद्यार्थी आनन्द देने वाली सम्यक् प्राणित करने वाली ज्ञान की वाणी से अपने को सिक्त करते हैं और आनन्द प्राप्त करने वाली बुद्धि से अपने को युक्त करते हैं। कहाँ-कहाँ से आये हुए ये विद्यार्थी शत्रुओं का शोषण करने वाले प्रभु का अर्चन करते हैं। ये शक्तिशाली वस्तुओं की कामना से उस प्रभु का अर्चन करते हैं। इन वस्तुओं के द्वारा ही तो वे अपने जीवन-निवास को सुन्दर बना पायेंगे।

विद्यार्थियों को उनके इन तीन कर्त्तव्यों के प्रति सदैव सावधान व सतर्क करते रहना चाहिए कि वे 1. ज्ञान के अर्जन में रत रहें, 2. ऐसे साधन अपनायें जिनसे उनकी बुुद्धि सूक्ष्म व सक्षम हो, 3. ईश्‍वर की उपासना के लिए समय निकालें, जिससे उनके अन्दर आत्मिक शक्ति का संचय हो।

इस मन्त्र की भावभूमि पर शासन का किञ्चित ध्यान नहीं है। उसकी प्राथमिक शिक्षाओं की योजनाए तों बड़ी विस्तृत प्रतीत होती हैं, पर वे अन्दर से खोखली और विपरीत होती हैं। पुस्तकों का बोझ बढ़ता जा रहा है, किन्तु उनमें से ऐतिहासिक-धार्मिक व सामाजिक महापुरुषों के आदर्श चरित्र निर्माण सम्बन्धी पाठ विलुप्त होते जा रहे हैं। सामाजिक स्तर पर जो मेले और प्रदर्शनियाँ लगाई जाती हैं, उनमें भी बच्चों को पथभ्रष्ट करने वाले मनोरंजन जुटाये जाते हैं। पर्वोत्सव में जो सांस्कृतिक कार्यक्रम रखे जाते हैं, उनमें भी नृत्य-गायन के भोंडे प्रदर्शन देखने को मिलते हैं। एक बालविद्यालय के वार्षिकोत्सव में बुलाया गया। कई घण्टे सुन्दर प्रेरक प्रोग्राम चला। महाविद्यालय के अतिथि प्राचार्य, शिक्षक, विधायक व शिक्षिकाओें ने शिक्षाप्रद प्रस्तुतियां दी। समाप्त होते-होते किसी का अनुरोध एक दृश्य गीत प्रस्तुत करने का आया, जिसे सहानुभूतिपूर्वक मान लिया गया। बालक-बालिकाओं की टोली सजधजकर मंच पर आ गई। वहाँ पर जो गीत के बोल ध्वनिविस्तारक से प्रसारित हुए, उनसे अब तक की अर्जित समस्त आर्यसंयोजना पर पानी फिर गया। गायन के बोल थे- “मनिहारी का वेश बनाया, श्याम चूड़ी बेचने आया।“ अभी कुछ ही समय पूर्व एक गुरुकुल में कक्षा 9 के छात्र द्वारा कई छोटे बच्चों को स्नानागार में मारे जाने का समाचार आया था। वह कोई गुरुकुल विशेष तक सीमित नहीं है, प्रत्युत् प्रस्तुत समस्त अनाचारी व अत्याचारी दृश्यावलियाँ इसके लिए उत्तरदायी हैं, जिन्हें नियन्त्रित करने का कोई प्रयास राज्य शासन द्वारा नहीं किया जाता है। - पं. देवनारायण भारद्वाज

Children are Getting Mature in Childhood | Delusion | Bad Words | Unwanted View | Mischief | Power of Determination | Happy Family | Religion of Women | Life Companion | The Cornerstone of Life | Divyayug | Divya Yug


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