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आयुर्वेद : एक आदर्श चिकित्सा पद्धति (2)

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meanपिछली बार आपने आयुर्वेद चिकित्सा शास्त्र के कुछ महत्वपूर्ण सिद्धान्तों के सम्बन्ध में ज्ञान प्राप्त किया एवं ‘दिनचर्या’ शब्द के बारे में जाना। अब इसके आगे दिनचर्या का विस्तार से वर्णन प्रस्तुत है ।

1. ब्रह्ममुहूर्त में उठना- सर्वप्रथम स्वस्थ व्यक्ति को ब्रह्ममुहूर्त में उठ जाना चाहिये। ब्रह्ममुहूर्त का समय सूर्योदय से दो घण्टे पहले का बताया गया है, जो सामान्यतया: प्रात: 4 से 6 बजे तक माना गया है।
2. मल विसर्जन- प्रात:काल उठते ही उदर की ओर ध्यान देना चाहिये। जागते ही अथवा कुछ समय बाद मलत्याग एवं मूत्र त्याग करना चाहिये। इस कार्य में विलम्ब स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है। सूर्योदय हो गया हो या उजाला हो गया हो तो उत्तर दिशा की ओर तथा रात्रि या अन्धेरा हो तो दक्षिण दिशा की ओर मुख करके मूत्र-पुरीष का त्याग करना चाहिये। मलोत्सर्जन के समय वाणी पर नियंत्रण रखना चाहिये। वेगोत्पत्ति के लिए इच्छा-शक्ति अथवा जलपान आदि का प्रयोग करना चाहिये।
निकलते हुए मल-मूत्र को निकलने देना चाहिये। वेग रोकना उचित नहीं। किन्तु अत्यन्त बल लगाकर निकालने का प्रयत्न भी नहीं करना चाहिये।
अत्यन्त अपवित्र स्थान में, मार्ग में, मिट्टी अथवा राख के ढेर पर, गायों के बैठने चरने की भूमि पर, जहाँ गोबर बिखरा हो या सुखाया जा रहा हो, नगर के समीप, जहाँ अग्नि पड़ी हो, भस्म या मिट्टी में दबी हुई अग्नि हो, वल्मीक या बांबी पर (क्योंकि इसमें अकसर सर्प का निवास रहता है), उपवन एवं क्रीड़ा-स्थल आदि रमणीय स्थानों में, जोती हुई भूमि पर, चिता के पास श्मशान भूमि में, वृक्ष के नीचे मूत्र-पूरीष का त्याग नहीं करना चाहिये।
स्त्रियों, गुरु एवं पिता आदि पूज्य तथा गौ के सामने, जिस दिशा में सूर्य एवं चन्द्रमा हो उस ओर मुख करके, जिस दिशा से वायु बह रहा हो उस दिशा की ओर मुख करके, जिस ओर अग्नि जलती हो उस ओर मुख करके मलत्याग नहीं करना चाहिये।
भूमि को टेढी, एक ओर नीची या तिरछी किये बिना मलोत्सर्जन नहीं करना चाहिये। समतल भूमि पर त्याग किया हुआ मूत्र अथवा पुरीष पाँव तक आ सकता है। मूत्र के लिए आगे की ओर एवं पुरीष के लिए पीछे की ओर भूमि नीची होनी चाहिये और मूत्र-पुरीष जहाँ गिरे वह स्थान अन्तर्धान वाला होना चाहिये जहाँ मूत्र-पुरीष दिखाई ना दे।
मलोत्सर्जन की यह विधि स्वस्थ व्यक्तियों के लिए कही गई है। परन्तु भय होने पर यदि मूत्र-पुरीष का वेग हो जाये अथवा उठने-बैठने की शक्ति न हो तो कहीं भी मलोत्सर्ग किया जा सकता है। मूत्र-पुरीष का वेग होने पर किसी दूसरे कार्य में नहीं लगना चाहिये। सब कुछ छोड़कर मल-त्याग करना चाहिये, अन्यथा मूत्र-पुरीष का वेग रोकने से उत्पन्न होने वाले रोग उत्पन्न हो सकते हैं।

3. मलायन-शोधन- मलोत्सर्जन के बाद नदी, तालाब अथवा अन्य स्थान से लिए गये स्वच्छ जल एवं गड्ढे से ली गई स्वच्छ या पवित्र मिट्टी के द्वारा मलायन का प्रक्षालन करना चाहिये। प्रक्षालन करते समय जल के छींटे पाँव आदि पर नहीं पड़ें।
4. मुख-प्रक्षालन (आचमन)- मूत्रपुरीषादि मलों को, रस-रक्तादि धातुओं को, नेत्र के आंसुओं एवं नासा आदि के मलों को, शरीर से गिरे हुऐ केश एवं नखों को छूने के बाद, स्नान के बाद, भोजन एवं जलपान के पहले तथा बाद में, छींक के बाद, देवपूजन के पहले, गली-कूचे या बाजार आदि में घूमकर आने के बाद उत्तर दिशा की ओर मुख करके और बैठकर आचमन करना चाहिये।
मुखप्रक्षालन या आचमन करते समय एकान्त हो, दोनों हाथों को जानुओं के अन्दर रखे, दृष्टि एकाग्र हो, इधर-उधर का वार्तालाप न किया जाये, अंगोछा कन्धे पर हो, जल स्वच्छ हो, उससे अञ्जलि भरी हो, जल इधर-उधर न छलक रहा हो, ताकि पाँव आदि पर छींटे न पडें।
आचमन के समय न झुक कर बैठना चाहिये और न तनकर बैठना चाहिये। जल ज्यादा गर्म न हो, अत्यन्त शीतल भी न हो, इससे दाँतो को हानि पहुँचती है । जल सड़ा हुआ या दुर्गन्धित न हो, झाग एवं बुलबुलों वाला न हो और खारा न हो।
5. दन्त धावन- इसके पश्‍चात् दातुन (मंजन) करनी चाहिये। दातुन बरगद, विजयसार, खदिर, करंज, अपामार्ग, अर्जुन, बबूल, नीम वृक्ष की उत्तम मानी गई है। किसी भी इस प्रकार के अन्य वृक्ष की शाखा (टहनी), जिसका कषाय रस, तिक्त रस अथवा कटु रस हो, परन्तु वृक्ष जान-पहचान का हो, उसकी दातुन की जा सकती है।
दातुन की लम्बाई लगभग बारह अंगुल और मोटाई कनिष्ठा अंगुली के अग्र भाग जितनी हो। दातुन सीधी हो और उसमें ज्यादा गांठें न हों। दातुन करने के पहले उसका अग्र भाग कुचल कर मृदु बना लेना चाहिये ताकि उत्तम कूची जैसी बन जाये।
दातुन एक या दो बार करनी चाहिये। प्रात: काल दातुन करने से रात्रिभर की मुख मलिनता, दौर्गन्ध्य दूर हो जाती है। भोजन करने के बाद दातुन करने से दाँतों में फँसे अन्न कण दूर हो जाते हैं। दातुन करते समय वाणी पर नियंत्रण रखना चाहिये। दातुन की कूची से धीरे-धीरे एक-एक करके सब दाँतों को रगड़-रगड़ कर साफ करना चाहिये, परन्तु मसूढों को बचाकर दातौन करें।
खदिर एवं बबूल आदि कषाय रस, नीम आदि तिक्त और तेज बल आदि कटू रस होते हैं तथा प्राय: इन्हीं की दातुन का प्रयोग भी होता है। कषाय रस से मसूढों का संकोच होता है, फलस्वरूप मसूढे मजबूत बने रहते हैं और मुख की चिपचिपाहट नष्ट हो जाती है। तिक्त रस कृमिनाशक तथा रक्तशोधक होता है, परिणामस्वरूप दन्त रोग, मसूढों के रोग तथा समस्त मुख रोगों की उत्पत्ति ही नहीं होती। कटू रस से लालास्राव होता है। इससे विकारकारी द्रव निकल जाने पर किसी भी प्रकार के मुख रोगों की उत्पत्ति की संभावना नहीं रहती।•

कुछ अनुभूत नुस्खे

प्राचीन काल से ही आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति में यष्ठिमधु अर्थात् मुलेठी का प्रयोग हम प्रचुर मात्रा में करते आ रहे हैं। अनुभूत योगों की शृंखला में मुलेठी से सम्बन्धित नुस्खों का उल्लेख किया जा रहा है-
1. मुलेठी का एक टुकड़ा दाँत निकलते समय बच्चे के गले में लटका दें, जिससे बच्चा उसे चूसता रहे। ऐसा करने से दाँत आसानी से एवं बिना किसी वेदना के आ जाते हैं तथा दन्तोत्पत्ति के समय होने वाले रोगों से भी बचाव हो जाता है।
2. मुलेठी का चूर्ण एवं पिप्पली का चूर्ण शहद के साथ चटाने पर हिचकी रोग ठीक हो जाता है।
3. मुलेठी 10 ग्राम, इलायची 5 नग एवं काली मिर्च 5 नग, इनका काढा बनाकर प्रयोग करना खाँसी तथा जुकाम में लाभदायक है।
4. मुलेठी के काढे से आँखें धोने से आँखों की लालिमा दूर होकर नेत्र ज्योति में वृद्धि होती है।
5. मुलेठी को गाय के घी में मिलाकर दिन में तीन बार चटाने से मिर्गी के दौरे आना बन्द हो जाते हैं।
6. मुलेठी का चूर्ण 2 ग्राम, हल्दी का चूर्ण 1 ग्राम मिलाकर शहद से देने पर श्‍वेत प्रदर (अर्थात् योनि मार्ग से सफेद पानी आना) में बहुत लाभदायक है।
7. मुलेठी, सनाय पत्ती और सौंफ को समान मात्रा में लेकर चूर्ण बनाकर, इन सबके बराबर मिश्री मिलाकर 5 ग्राम की मात्रा में कुनकुने जल से देने पर अर्श (बवासीर) एवं कोष्ठबद्धता (कब्ज) में लाभ होता है।
8. मुलेठी 2 ग्राम, कालीमिर्च 1ग्राम और मिश्री 3 ग्राम इनका मिश्रित चूर्ण दिन में तीन बार शहद से चाटने से स्वर-भंग (गला बैठना) शीघ्र ही ठीक हो जाता है।
9. मुलेठी का चूर्ण एवं शतावरी का चूर्ण दूध से लेने पर स्त्रियों के दूध की वृद्धि होती है।
10. मुलेठी चूर्ण और गिलोय सत्व नियमित रूप से दूध के साथ सेवन करना रसायन माना गया है।• - डॉ.धर्मेन्द्र शर्मा, एम.डी.

वैधानिक सलाह / परामर्श - इन प्रयोगों के द्वारा उपचार करने से पूर्व योग्य चिकित्सक से सलाह / परामर्श अवश्य ले लें। सम्बन्धित लेखकों द्वारा भेजी गई नुस्खों / घरेलु प्रयोगों / आयुर्वेदिक उपचार विषयक जानकारी को यहाँ यथावत प्रकाशित कर दिया जाता है। इस विषयक दिव्ययुग डॉट कॉम के प्रबन्धक / सम्पादक की कोई जवाबदारी नहीं होगी।

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