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आवश्यक है विदेशी संस्कृति से मुक्ति

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किसी भी देश की पहिचान उसकी संस्कृति से होती है। भारत और भारतीयों की पहचान तथा गरिमा उसकी महान् संस्कृति में निहित है। इसकी प्रतिष्ठा के निर्माता एवं मार्गदर्शक थे वेद तत्त्वदर्शी ऋषिगण, जिन्होंने राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक आपत्तिकाल में क्षत्रिय वीरों का समयोचित दिशादर्शन कर संस्कृति की गरिमा को बनाए रखा। शक, हूण आदि कितनी ही जातियाँ अपनी-अपनी संस्कृति लेकर भारत आई, किन्तु प्रभावशाली नेतृत्व के कारण वे सभी यहाँ की संस्कृति में समरस हो गई। यूनान देश के सिकन्दर और सेल्यूकस ने क्रमशः भारत पर आक्रमण किए। सेल्यूकस को हार के पश्‍चात् सन्धि की शर्त के अनुसार अपनी कन्या का विवाह सम्राट चन्द्रगुप्त के साथ करना पड़ा। उसने कन्या के साथ पाँच सौ यूनानी परिवार भी भारत में भेजे। चन्द्रगुप्त के मार्गदर्शक आचार्य चाणक्य भलीभाँति जानते थे कि यदि भविष्य में यूनान से कोई आक्रमण होता है, तो आगन्तुक यूनानियों की संतानों की सहानुभूति आक्रमणकारियों के साथ होगी ही। वे गुप्त रूप से सहायता भी कर सकते हैं। यह सोचकर दूरदर्शी आचार्य चाणक्य ने उन यूनानियों को उनके गुण एवं कर्म के अनुसार भारत की आर्य संस्कृति में दीक्षित कर समरस कर दिया। ऐसे महापुरुषों के चिन्तन एवं प्रयासों का ही परिणाम था कि भारतीय संस्कृति सर्वोपरि एवं भारत-भारती समन्वित रही। इतिहास की साक्षी में आगे चलकर और हमले हुए। आक्रमणकारी सत्ता की लालसा के साथ अपनी संस्कृति भी लेकर आए। राजनीतिक सत्ता स्थापना के साथ सांस्कृतिक आक्रमण भी प्रारम्भ कर दिए। बलिदानों का एक लम्बा सिलसिला प्रारम्भ हुआ। पदलोलुप और कायरों ने विदेशी संस्कृति के सामने सिर झुका दिए। कालान्तर में भारत राजनीतिक गुलामी से तो मुक्त हो गया, परन्तु वह सांस्कृतिक गुलामी आज तक विद्यमान है। गुलामी के उत्तराधिकारियों की सहानुभूति भी उसी और होना भी सम्भव हो सकता है। इनकी मुक्ति के लिए कोई सकारात्मक प्रयास भी तो नहीं हुए। जो कुछ हुए भी तो आपसी कलह के कारण समाप्त हो गए।

अंग्रेजों द्वारा प्रचलित शिक्षा प्रणाली के जनक लार्ड मैकाले से यह पूछा गया कि उसके द्वारा स्थापित की जा रही शिक्षा प्रणाली का भारतवासियों पर क्या प्रभाव होगा? उत्तर में उसने कहा था कि उसकी शिक्षा प्रणाली में शिक्षित भारतीय युवक अंग्रेजी राज्य की नौकरी करने के लिए योग्य होने के साथ-साथ अपनी ही संस्कृति का मजाक उड़ाते दिखाई देंगे, जिस संस्कृति पर उनके पूर्वजों को गर्व रहा है। परिणाम हमारे सामने हैं। विदेशी संस्कृति को अपनाने वाले जन समुदाय को भारत की मुख्य सांस्कृतिक धारा में लाने के प्रभावशाली प्रयासों के अभाव का ही दुष्परिणाम है, भारत का विभाजन। स्वतन्त्रता-संग्राम के राजनीतिक आन्दोलन तो चलते रहे, किन्तु सांस्कृतिक स्वतन्त्रता के लिए होने वाले प्रयासों को दबाया जाता रहा। इसके विपरीत भारतीय समाज मुख्य सांस्कृतिक धारा से अज्ञान अवस्था में छोटे-छोटे साम्प्रदायिक, जातीय, प्रान्तीय, भाषायी आदि विवादों में उलझकर झगड़ते और बिखरते रहे हैं और बिखरते जा रहे हैं।

उपर्युक्त कथन का तात्पर्य यह है कि हम विदेशी आक्रमणकारियों की राजनीतिक सत्ता से स्वतन्त्र तो हो सके, परन्तु उनके द्वारा भारतीय समाज के बड़े हिस्सों पर जो सांस्कृतिक गुलामी लादी गई थी, उससे स्वतन्त्रता प्राप्त नहीं कर सके। विशाल जन समुदाय को भारतीय संस्कृति की मुख्य धारा में नहीं ला सके। अभी सांस्कृतिक गुलामी शेष है। इससे मुक्ति पाना समय की मांग है। भारत और भारती का संयुक्त स्वरूप ही भारतीयता है? यही मुख्य धारा है। भटके हुए लोगों को इसमें ले आना है। यही मुक्ति है। आन्दोलन प्रारम्भ करें। आगे पछताने का समय भी नहीं मिलेगा। - जगदीश दुर्गेश जोशी

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