काठक संहिता में भी यज्ञ से आयु धारण कराने की कामना की गई है-
यज्ञो मे आयुर्दधातु।161
यजुर्वेद में यज्ञ के आरोग्यप्रद होने का उल्लेख है। देव चिकित्सक यज्ञ को प्रभावशाली बनाते हैं-
देवा यज्ञमतन्वत।162
यज्ञ के लाभों में सबसे बड़ा लाभ सार्वजनीन आरोग्यता है। आरोग्यता का सम्बन्ध जीवन से है। संसार में जीवन सबसे अधिक मूल्यवान् है।
अतः सार्वजननीन जीवन रक्षा का श्रेय होने के कारण यज्ञ का आरोग्य सम्बन्धी विषय प्रथम तथा प्रधान है। यज्ञ से समस्त प्रकृति, सभी मनुष्यों, सभी पशु-पक्षियों तथा सभी कीट-पतंगों आदि को लाभ होता है।163 यज्ञ सभी के लिये सुखकारक है-
यज्ञो वै सुम्नम्।164
तैत्तिरीय संहिता में उल्लेख है कि सभी कामनाओं के लिए यज्ञ किया जाता है-
सर्वेभ्यो हि कामेभ्यो यज्ञः प्रयुज्यते।165
वैदिक महर्षियों की यह शैली रही है कि उन्होंने जिन कर्त्तव्यों को आवश्यक माना उन्हें पुण्य के साथ जोड़ दिया, ताकि लोग उनको अनिवार्य रूप से पुण्य समझकर करें। यज्ञ पर्यावरण को शुद्ध रखने, उसे रोगहित तथा प्रदूषण रहित रखने का एक महत्वपूर्ण साधन है। क्योंकि अग्नि में यह गुण है कि वह किसी पदार्थ को नष्ट नहीं करता, अपितु आहुति में दी हुई वस्तु को उसके पूर्ण गुणों के साथ विकसित कर देता है। आयुर्वेद की भस्में इसका उदाहरण हैं। यही कारण है कि सुगन्धित पदार्थों को अग्नि में डालने से उनका प्रभाव वायु द्वारा समीपवर्ती स्थान में सर्वत्र पड़ता है तथा उस स्थान का वायुमण्डल सुगन्धित हो जाता है।
जिस प्रकार भूमि में डाला हुआ बीज हजारों गुणा होकर हमें मिलता है, इसी प्रकार यज्ञ में अर्पित पदार्थ हमें सैकड़ों-हजारों धाराओं से शुद्ध-समृद्ध जीवन वाला बनाते हैं-
वसोः पवित्रमसि शतधारं वसोः पवित्रमसि सहस्रधारम्।166
अर्थात् हे यज्ञः! तू सैकड़ों और हजारों धाराओं से शुद्ध-पवित्र करके ऐश्वर्य को देने वाला है।
यजुर्वेद में अग्नि को ‘दूत’ कहा गया है। याज्ञिक कहता है कि मैं अग्नि को दूत के रूप में प्रस्तुत करता हूँ-
अग्नि दूतं पुरोदधे हत्यवाहमुप ब्रुवे।
देवाँ 2 आ सादयादिह॥167
अग्नि के द्वारा सब पार्थिक लोक लोकान्तरों तक यज्ञ से सुगन्धित वायु तथा वाष्प फैलाई जाती है।
अग्नि का एक नाम वह्नि है, क्योंकि वह आहुत पदार्थों को सूक्ष्म रूप देकर उन्हें हलका कर उठा ले जाती है तथा दूर प्रदेशों तक पहुंचा देती है। 168 घर में रखे सुगन्धित पदार्थों से वैसा लाभ नहीं होता, जैसा कि यज्ञ करने से होता है। अग्नि जलने से वायु का प्रवाह बढ़ जाता है। जिस स्थान पर यज्ञ किया जाता है, वहाँ की वायु को यह बाहर निकाल देता है तथा बाहर की वायु वेगपूर्वक अन्दर आ जाती है।
यज्ञाग्नि वर्षा कराने में भी सहयोगी है जैसा कि शतपथ ब्राह्मण में उल्लेख है-
अग्नेर्वै धूमो जायते धूमादभ्रमभ्राद वृष्टिरग्नेर्वा एता जायन्ते तस्मादाह तपोजा इति।169
स्वामी दयानन्द सरस्वती इसके भावार्थ में लिखते हैं- जो होम करने के द्रव्य अग्नि में डाले जाते हैं, उनसे धुआँ और भाप उत्पन्न होते हैं। क्योंकि अग्नि का यही स्वभाव है कि पदार्थों में प्रवेश करके उनको भिन्न-भिन्न कर देता है, फिर वे हलके होके वायु के साथ ऊपर आकाश में चढ़ जाते हैं। उनमें जितना जल का अंश है, वह भाप कहलाता है और जो शुष्क है वह पृथ्वी का भाग है- इन दोनों के योग का नाम धूम है। जब वे परमाणु मेघमण्डल में वायु के आधार से रहते हैं, फिर वे परस्पर मिलके बादल होके उनसे वृष्टि से औषधि, औषधियों से अन्न, अन्न से धातु, धातुओं से शरीर और शरीर से कर्म बनता है।170
महर्षि मनु ने भी मनुस्मृति में लिखा है कि अग्नि में डाली हुई आहुति सूर्य किरणों में जा उपस्थित होती है। इससे वर्षा होती है। वर्षा से अन्न तथा अन्न से प्रजा होती है-
अग्नौ प्रस्ताहुति सम्यगादित्यमुपतिष्ठते।
आदित्याज्जायते वृष्टिः वृष्टेरन्नं ततः प्रजा॥171
श्रीमद्भगवद्गीता में यज्ञ को वर्षाकारक कहा गया है-
अन्नाद् भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्न सभ्यः।
यज्ञाद् भवति पर्जन्यः यज्ञः कर्म समुद्भवः॥172
यजुर्वेद वाङ्मय में यज्ञ प्रयुक्त होने वाले पदार्थों का भी उल्लेख यत्र-तत्र प्राप्त होता है। यज्ञाग्नि हेतु घृत, समिधाएँ तथा सामग्री (औषधियाँ आदि) की आवश्यकता होती है। (क्रमशः)
सन्दर्भ-सूची
161. काठक संहिता 5.3
162. यजुर्वेद संहिता 19.12
163. वैदिक सम्पत्ति, पृ. 285,286,309 पं. रघुनन्दन शर्मा
164. काठक संहिता 21.8
165. तैत्तिरीय संहिता 2.4.11.2
166. यजुर्वेद 1.3
167. यजुर्वेद संहिता 2.17
168. निरुक्त 8.1
169. शतपथ ब्राह्मण 5.3.5.17
170. ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका वेदविषय विचार स्वामी दयानन्द सरस्वती
171. मनुस्मृति 2.76
172. श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 3
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