विशेष :

हिन्दी को समाप्त करने का षड्यन्त्र (6)

User Rating: 0 / 5

Star InactiveStar InactiveStar InactiveStar InactiveStar Inactive
 

hindi 2कहने की जरूत नहीं कि युद्धातुर उतावली से गुरुचरणदास जैसे लोग अपने तर्कों में बार-बार डेविड क्रिस्टल की पुस्तक लेंग्विज डेथ का हवाला इस तरह देते हैं, जैसे वह भाषा की भृगु संहिता है, जिसमें भाषा की मृत्यु की स्पष्ट भविष्योक्ति है। अतः आप हिन्दी की मृत्यु को लेकर छाती-माथा मत कूटो। जबकि इससे ठीक उलट बुनियादी रूप से वह पुस्तक भाषाओं के धीरे-धीरे क्षयग्रस्त होने को लेकर गहरी चिन्ता प्रकट करती है। भाषाई उपनिवेशवाद (लिंग्विस्टिक इम्पेरेजिज्म) के खिलाफ सारी दुनिया के भाषाशास्त्री को सचेत करती है, पर हिन्दी वाले हैं कि सुन्न पड़े हैं। हिन्दी साहित्य संसार में विचरण करने वाले साहित्यकार तो तेरी कविता से मेरी कविता ज्यादा लाल में लगे हुए हैं या हिन्दी की वर्तिनी को दुरुस्त कर रहे हैं। जबकि इस समय सबको मिलजुलकर इस सुनियोजित कूटनीति के खिलाफ कारगर कदम उठाने की तैयारी करनी चाहिए।

बहरहाल, इस सारे मसले पर एक व्यापक राष्ट्रीय विमर्श की जरूरत है। हमें याद रखना चाहिए कि कई नव स्वतन्त्र राष्ट्रों ने अपनी भाषा को अपनी शिक्षा और आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की भाषा बनाया। इसलिए आज उनके पास उनका सब कुछ सुरक्षित है। हमने अपनी राजनीतिक भीरुता के चलते भाषा के मसले पर पुरुषार्थ नहीं दिखाया। इसी की वजह है कि हमसे आज का ये धोखादेय समय हमारे सर्वस्व को जिबह के लिए मांग रहा है। आज हमारी आजादी वयस्क होते ही राजनीति के ऐसे छिनाले में फंस गई है कि सारा देश मीडिया में चल रही व्यवस्था का मुजरा देख रहा है। पूरा समाज मीडिया और माफिया आपरेटेड बन गया है। अब मीडिया ही आरोप तय करता है, वही मुकदमा चलाता है और अन्त में अपनी तरह से अपनी तरह का फैसला भी सुनाता रहता है और विडम्बना यह कि वह यह सब जनतंत्र की दुहाई देकर करता है, जबकि अपनी आलोचना का हक वह किसी को नहीं देता और अपने आत्मावलोचन के लिए तो उसके पास समय ही नहीं है।

राजनीति ने तो भाषा, शिक्षा, संस्कृति जैसे प्रश्‍नों पर विचार करना बहुत पहले ही स्थगित कर रखा है। वह तो देश को बाजार तथा एनजीओ के भरोसे छोड़कर मुक्त हो गई है। यों भी उसमें प्रविष्टि की अर्हता और घूस लेकर कानून के शिकंजे से सुरक्षित बाहर आ जाना हो गया है। और जो इन अर्हताओं से रहित हैं, वे देश को एक प्रबन्ध संस्थान की तरह चलाने को भूमण्डलीकरण की वैश्‍विक दृष्टि मानते हैं तथा वे उसके राजनीतिक प्रबन्धक का काम कर रहे हैं। यह राजनीतिक संस्कृति की समाज से विदाई की घड़ी है, जिसने संस्थागत अपंगता को असाध्य बन जाने की तरफ हाँक दिया है। हम क्या थे? हम क्या हैं और क्या होंगे? ऐसे प्रश्‍नों पर बहस करना मूर्खों का चिन्तन हो गया है। जबकि ये प्रश्‍न शाश्‍वत रहे हैं और हमेशा ही उत्तरों की मांग करते रहेंगे। इसलिए हमें अपने इतिहास को जीवित बचाकर रखना जरूरी है, क्योंकि भविष्य का जब सौदा होगा उसमें हमारी कम हमारे अतीत की भूमिका बहुत बड़ी होती है। वरना यह भाषा की मृत्यु के साथ दफ्न हो जायेगा। वे हमें हालीवुड की तरह भविष्यवादी फंसातियों में जीने के लिए तैयार किये दे रहे हैं।

विश्‍व हिन्दी सम्मेलन में तालियाँ कूटने के बजाय इस प्रश्‍न पर बहुत शिद्दत से सोचा जाना चाहिए कि क्या हम शेष संसार से मुल्क बोस्निया, जावा, चीन, आस्ट्रिया, बल्गारिया, डेनमार्क, पुर्तगाल, जर्मनी, ग्रीक, इटली, नार्वे, स्पेन, बेल्जियम, क्रोएशिया, फिनलैण्ड, फ्रांस, हंग्री, नीदरलैण्ड, पौलेण्ड या स्वीडन की तरह अपनी ही मूल भाषा में शिक्षा और ज्ञान के क्षेत्र के लिए जगह बनाने के लिए क्या कर सकते हैं। क्योंकि सम पित्रौदा के अनुसार सिर्फ एक प्रतिशत ही हैं जो लोग अंग्रेजी जानते हैं। या कि हमें अफ्रीकी उपमहाद्वीप बन जाने की तैयारी करना है। अन्त में अफ्रीका महाद्वीप में स्वाहिली लेखक की पीड़ा को भारतीय उपमहाद्वीप की पीड़ा का पर्याय बनाना है। उसने कहा कि जब ये नहीं आए थे तो हमारे पास हमारी कृषि, हमारा खानपान, हमारी वेशभूषा, हमारा संगीत और हमारी अपनी कहे जाने वाली संस्कृति थे। इन्होंने अंग्रेजी दी और हमारे पास हमारा अपने कहे जाने जैसा कुछ नहीं बचा है। हम एक त्रासद आत्महीनता के बीच जी रहे हैं।

हमारी हिन्दी पत्रकारिता को सोचना चाहिए कि विदेशी धन और खुद को मीडिया मुगल बनाने के बजाय वह सोचे कि अन्ततः भारतीय भाषाओं को आमतौर पर और हिन्दी को खासतौर पर हटाकर वह देश को आत्महीनता के किस मोड़ की तरफ घेरने जा रही है। साथ यह भी सोचे कि प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की आरती उतारने वाले भर रह जायें और देवपुरुष कोई अन्य हो जाये। बाहर की लक्ष्मी आयेगी तो वह विष्णु भी अपना ही लायेगी। आपके क्षीरसागर के विष्णु सोए ही रह जायेंगे।

क्या हमारे हिंग्लिशियाते अखबार इस पर कभी सोचते हैं कि पाओलो फ्रेरे से लेकर पाल गुडमेन तक सभी ने प्राथमिक शिक्षा के सर्वश्रेष्ठ माध्यम को मातृभाषा ही माना है और हम हिन्दुस्तानी हैं कि हमारे रक्त में रची-बसी भाषा को उसके मांस-मज्जा सहित उखाड़कर फेंकने का संकल्प कर चुके हैं। दरअसल औपनिवेशक दासत्व से ठूंस-ठूंसकर भरे हमारे दिमागों ने हिन्दी के बल पर पेट भर सकने की स्थिति को कभी बनने ही नहीं दिया, उल्टे धीरे-धीरे शिक्षा में निजीकरण के नाम पर शहरों की गली-गली में केवल अंग्रेजी सिखाने की दुकानें खोलने के लिए लायसेंस उदारता के साथ बांटे गये। उन्हें इस बात का कतई इल्हाम नहीं रहा कि वे समाज और राष्ट्र के भविष्य के साथ कैसा और कौन सा सलूक करने की तैयारी करने जा रहे हैं। पूंजीवादी भूमण्डलीकरण से देश स्वर्ग बन जायेगा, ऐसी अवधारणा हो गई है। हिन्दी में अधकचरे ग्लोबलिस्टों की इतनी भरमार है कि वे एक अरब लोगों के भविष्य का मानचित्र मनमाने डंग से बनाना चाहते हैं और दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह है कि पूरा देश गूंगों की नहीं अन्धों की शैली में आँख मीचकर गुड़ का स्वाद लेने में लगा हुआ है। उनकी व्याख्याओं में भाषा की चिन्ता एक तरह का देसीवाद है, जो भूमण्डलीकरण के सांस्कृतिक अनुकूलन को हजम नहीं कर पा रहा है। वे इसे मरणासन्न देसीवाद का छाती-माथा कूटना कहकर उससे अलग होने के लिए उकसाने का काम करते हैं।

भारत में सूचना प्रौद्योगिकी के अवतार पुरुष होने का जो डंका पीटा जाता है, उसके बारे में एक अमेरिकी विशेषज्ञ ने एक वाक्य की टिप्पणी में हमारी औकात का आंकलन करते हुए कहा कि भारत के आई.टी. आर्टिकल्स तो आभूषणों की दुकानों के बाहर गहनों को पालिश करके चमकाने वाले लोग भर हैं। माइक्रोसाफ्ट उत्पाद बनाता है और भारतीय उसे केवल अपडेट करते हैं। यह वाक्य हमारे सूचना सम्राट होने के गुब्बारे की क्षणभर में हवा निकाल देता है और दुर्भाग्यपूर्ण तथा शर्मनाक बात यह है कि हम इसी के लिए (आई.टी. आर्टिकल्स) अपनी भाषाओं को मार रहे हैं। हम चमड़े के लिए भैंस मारने पर आमादा हैं।

यदि हमें हिन्दी को आमतौर पर और तमाम भारतीय अन्य भाषाओं को खासतौर पर बचाना है तो पहले हमको प्राथमिक शिक्षा पर ध्यान करना होगा और विराट छद्म को नेस्तानाबूत करना होगा, जो बार-बार ये बता रहा है कि अगर प्राथमिक शिक्षा में पहली कक्षा से ही अंग्रेजी अनिवार्य कर दी जाये, तो देश फिर से सोने की चिड़िया बन जायेगा। जहाँ तक भाषा में महारत का प्रश्‍न है, संसार भर में हिन्दुस्तान के ढेरों प्रतिभाशाली वैज्ञानिक उद्योगपति और रचना लेखक रहे हैं, जिन्होंने अपनी आरम्भिक शिक्षा अंग्रेजी में पूरी नहीं की। इसके साथ सबसे महत्वपूर्ण और अविलम्ब ध्यान देने वाली बात यह है कि प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में निरन्तर बढ़कर विकराल होते निजीकरण पर भी सफल नियन्त्रण पाना होगा। तभी हम अपना जैसा कहे जा सकने वाला थोड़ा बहुत सुरक्षित रख पाने की स्थिति में होंगे। भारतीय भाषाओं को रोमन लिपि में बदलने का परिणाम यह होगा कि आने वाले 25 वर्ष बाद हमारी हजारों सालों की भारतीय भाषाएं बच्चों के लिए केवल जादुई लिपियाँ होंगी। (समाप्त) - प्रभु जोशी

Conspiracy to End Hindi-6 | Language Death | Hindi Literature World | Well Planned diplomacy | Farewell to Society of Culture | Role of Our Past | World Hindi Conference | Vedic Motivational Speech in Hindi by Vaidik Motivational Speaker Acharya Dr. Sanjay Dev for Kherwara Chhaoni - Achalpur - Palwal | News Portal - Divyayug News Paper, Current Articles & Magazine Khetia - Acharapakkam - Agroha | दिव्ययुग | दिव्य युग