थामस फ्रीडमेन ने वैश्वीकरण की हकीकत उजागर करते हुए ठीक ही कहा है कि ग्लोबलाइजेशन का अर्थ सरकारों और बहुराष्ट्रीय निगमों का पारस्परिक सम्बन्ध भर है। वह कहता है कि इसीलिए ग्लोबलाइजेशन की प्राथमिक कार्यवाही यही होती है कि जिस किसी चीज से भी ‘राष्ट्रीयता’ की बू आये, उसे अविलम्ब हटाइये। इस ‘सैद्धान्तिकी’ के अनुसार निश्चय ही ‘हिन्दी’ ग्लोबलाइजेशन के पहले निशाने पर है। क्योंकि इससे राष्ट्रीयता की बहुत तीखी और बरदाश्त से बाहर की गंध आती है। वजह यह है कि हिन्दी का रिश्ता राष्ट्रभाषा के रूप में नाथ देने से यह भारत के कुछ प्रदेशों की जनता की नजर में राष्ट्रीय अस्मिता का पर्याय बन गयी है। नतीजतन इस पर चढ़े राष्ट्रीयता के इस कवच को हटाना जरूरी है, वर्ना यह मारे जाने में काफी समय लेगी। बहुत मुमकिन है कि लोग इसकी हत्या के प्रकट पैंतरों को देखकर हो-हल्ला करते हुए एकमत होने लगें। लेकिन भूमण्डलीकरण की सफलता तभी है, जब लोग भाषा और भूगोल को लेकर एकमत होना छोड़ दें।
इसी संभावित संकट को भांपकर दलाल लोग यह कहते फिरते हैं कि हिन्दी को राजभाषा के पाखण्ड से मुक्त करके जनता की गाढ़ी कमाई से खींचे गए पैसों का बहाया जाना अविलम्ब रोका जाये। क्योंकि इससे उसे अकारण ही ऑक्सीजन मिलती रहती है। जबकि उसकी ब्रेन डेथ हो चुकी है। उसमें सोचने-समझने की क्षमता ही नहीं है। राजभाषा के नाम पर धन उड़ेलने से एक और समस्या पैदा हो जाती है। वह यह कि भाषा के जिस पुराने रूप को नष्ट करने में अखबार मेहनत करते हैं, दूसरी ओर राजभाषा वाले सरकारी प्रयासों से भाषा का वह पुराना रूप एक मानक के रूप में जिन्दा बना रहता है। अंग्रेजी इस बात में तो आरम्भ से सतर्क रही और उसने हिन्दी का अन्य भारतीय भाषाओं से सहोदरा का सम्बन्ध बनाने ही नहीं दिया। उलटे वैमनस्य और अदम्य वैरभाव को बढ़ाये रखा। लेकिन हिन्दी की अपनी बोलियों से जड़ें इतनी गहरी बनी और रही आयी कि उसको वहाँ से उखाड़ना मुश्किल रहा। बहरहाल, ये काम अब मीडिया ने अपने हाथ में ले लिया है।
बोलियों का संहार करने में जो काम इलेक्ट्रॉनिक मीडिया कर रहा है, उससे दस कदम आगे जाकर हिन्दी के अखबार कर रहे हैं। जो अखबार साढ़े तीन रुपये में बिकते हुए जानलेवा आर्थिक कठिनाई का रोना रो रहे थे, वे अब डेढ़ रुपये में चौबीस पृष्ठों के साथ अपनी चिकनाई और रंगीनी बेच रहे हैं। स्पष्ट है, यह विदेशी चंचला धनलक्ष्मी है। क्या ये लोग नहीं जानते कि यह पूँजी ‘अस्मिताओें’ का ‘विनिमय’ नहीं, बल्कि अस्मिताओं का सीधा-सीधा अपहरण करती है। यह अखबारों को अपनी ‘हवाई सेना’ बनाकर ’विचारों का विस्फोट’ करती है और विस्फोट वाली जगह पर थल-सेना कब्जा कर लेती है। इसी के चलते अखबार ‘बाजारवाद’ के लिए जगह बनाने का काम कर रहे हैं। वे पहले ‘विचार’ परोसते थे, अब ‘वस्तु’ परोस रहे हैं। अलबत्ता खुद वस्तु बन गये हैं। इसी के चलते अखबारों में सम्पादक नहीं, ब्राण्ड मैनेजर बरामद होते हैं। अखबारों की इस नई प्रथा ने ‘मच्छरदानी’ की ‘सैद्धान्तिकी’ का वरण कर लिया है। कहने को वह ‘मच्छर-दानी’ होती है, परन्तु उसमें मच्छर नहीं होता। वह बाहर ही बाहर रहता है। ठीक इसी तरह अखबार में अखबार नवीस को छोड़कर सारे विभागों के भीतर सब वाजिब लोग होते हैं। बस सम्पादकीय विभाग में सम्पादक नहीं होता। इसीलिए आपस में पत्रकार बिरादरी एडिटोरियल को एडव्हरटोरियल विभाग कहती है। सम्पादकीय विभाग विज्ञापन विभाग का मातहत है। यहाँ तक कि प्रकाशन योग्य सामग्री भी वही तय करता है। यों भी दैनिक अखबारों के सम्पादकीय पृष्ठ अब बुद्धिजीवियों की वैचारिक अभिव्यक्ति के लिए नहीं, अपितु राजनीतिक दलों के ‘व्यू-पाइण्ट’ (?) के लिए आरक्षित होते जा रहे हैं। वे राजनीतिक जनसम्पर्क हेतु सुरक्षित पृष्ठ हैं। यह उसी पूँजी के प्रताप का प्रपात है, जो बाहर से आ रही है।
ऐसे में वे पूछना चाहें कि बताइए, भला यह कैसे हो सकता है कि आप पूँजी तो हमारी लें और ‘भाषा और संस्कृति’ आप अपनी विकसित करें। यह नहीं हो सकता। हमें अपने साम्राज्य की सहूलियत के लिए ‘एकरूपता’ चाहिए। सब एक-सा खायें। एक-सा पीयें। एक-सा बोलें। एक-सा लिखें-लिखायें। एक-सा सोचें। एक-सा देखें। एक-सा दिखायें। तुम अच्छी तरह से जान लो कि यही संसार के एक ध्रुवीय होने का अटल सत्य है। हमारे पास महामिक्सर है, हम सबको फेंटकर ‘एकरूप’ कर देंगे। बहरहाल, उन्होंने भारत के मीडिया को अपना महामिक्सर बना लिया है। इसलिए अब अखबार और अखबार के बीच की पहले वाली यह स्पर्धा जो धीरे-धीरे गला काट हो रही थी, अब क्षीण हो गयी है। चूँकि अब वे सब एक ही अभियान में शामिल सहयात्री हैं। उनका अभीष्ट भी एक है और वह है ‘वैश्वीकरण’ के लिए बनाये जा रहे मार्ग का प्रशस्तीकरण। सो आपस मैं बैर कैसा? हम तो आपस में कमर्शियल कजिन्स हैं। आओ! हम सब मिलकर मारें हिन्दी को। अब भारत की असली हिन्दी पत्रकारिता यही है।
यहाँ यह याद दिलाना जरूरी है कि आज जिस हिन्दी को हम देख रहे हैं, उसे ‘पत्रकारिता’ ने ही विकसित किया था। क्योंकि तबकी उस पत्रकारिता के खून में राष्ट्र का नमक और लौहतत्व था, जो बोलता था। अब तो खून में लौहतत्व की तरह एफडीआई (फॉरेन डायरेक्टर इण्वेष्टमेण्ट) बहने लगा है। अतः वही तो बोलेगा। उसी लौहतत्व की धार होगी, जो हिन्दी की गर्दन उतारने के काम में आयेगी। हालांकि अखबार जनता में मुगालता पैदा करने के लिए कहते हैं, पूँजी उनकी जरूर है, लेकिन चिन्तन की धार हमारी है। अर्थात् सारा लोहा उनका, हमारी होगी धार। अर्थात् भैया हमें भी पता है कि धार को निराधार बनाने में वक्त नहीं लगेगा। तुम्हीं बताओ उन टायगर इकनॉमियों का क्या हुआ, जिनसे डरकर लोग कहने लगे थे कि पिछली सदी यूरोप या पश्चिम की रही होगी, यह सदी तो इन टायगरों की होगी, कहाँ गये वे टायगर? उनके तो तीखे दाँत और मजबूत पंजे थे। नई नस्ल के ये कार्पोरेटी चिन्तक रोज-रोज बताते हैं- हिन्दुस्तान विल बी टायगर ऑफ दुमॉरो।
भैया, ये जुमले सुनते-सुनते हमारे कान पक गये। हमें टुमॉरो का कुछ नहीं बनना, बल्कि जो कुछ बनना है आज का बनना है। हम कल के टायगर होने के बजाय आज की गाय होने और बने रहने में सन्तुष्ट हो लेंगे। गाय घास खायेगी तथा दूध और गोबर देगी और उससे हमारी खेतियों की सेहत ठीकठाक बनी रहेगी। लेकिन तुम हो कि थोड़े से चमड़े के लिए पूरी की पूरी गाय मार रहे हो।
तब की पत्रकारिता में अपने देश और समाज को गढ़ने-रचने का साहस था, संकल्प था, समझ और स्वप्न भी था। बेशक उसमें राष्ट्रीय पूँजीवाद की भूमिका भी थी। वह जख्मी कलम के साथ बारूद और बन्दूक की बर्बरता के खिलाफ लड़ी थी। इस कारण वह भाषा के मसले को गहरे ऐतिहासिक विवेक के साथ देख रही थी। यहाँ गान्धी का प्रसंग उल्लेखनीय लगता है। वे भी पत्रकार थे। आजादी की घोषणा के बाद जब बी.बी.सी. ने उन्हें बुलाया, तो उन्होंने प्रस्ताव को ठुकराते हुए कहा था, “संसार को कह दो गान्धी को अंग्रेजी नहीं आती। गांधी अंग्रेजी भूल गया है।’‘ यह एक नवस्वतन्त्र राष्ट्र के निर्माण के बड़े स्वप्न का उत्तर था। उन्हें यह अहसास था कि अपनी भाषा के अभाव में राष्ट्र फिर से गुलामी के नीचे चला जाएगा। उन्होंने स्वयं को वर्ग से पृथक् करके जिस तरह भारतीय समाज के आखिरी आदमी के बीच खुद को नाथ लिया था, उसने उन्हें इस बात के लिए और अधिक दृढ़ कर लिया था कि अंग्रेजी की औपनिवेशिक दासता से मुक्त नहीं हुए तो इतनी लम्बी लड़ाई के बाद हासिल की गई आजादी का कोई अर्थ नहीं रह जाएगा। उन्होंने ये बात कई-कई जगह और अपनी चिट्ठियों तथा पर्चों में भी बार-बार लिखी और छापी। (क्रमशः) - प्रभु जोशी
Conspiracy to End Hindi-4 | Language and Geography | Electronic Media | Hindi Newspapers | Publishing Content | Real Hindi Journalism | The Edge of Thought | Historical Discretion | Vedic Motivational Speech in Hindi by Vaidik Motivational Speaker Acharya Dr. Sanjay Dev for Khelari - Zamania - Rewari Rohtak | News Portal - Divyayug News Paper, Current Articles & Magazine Kheragarh - Zirakpur - Sirsa | दिव्ययुग | दिव्य युग