बहरहाल पुस्तक के लेखक जॉन पार्किन्स ने उसमें विस्तार से बताया कि किस तरह बहुराष्ट्रीय निगमों के जरिए अमेरिका ने तीसरी दुनिया के गरीब मुल्कों के आर्थिक ढांचे को तहस-नहस कर दिया, जिसके परिणाम स्वरूप वे सामाजिक-सांस्कृतिक स्तर पर भी विपन्न हो गए। कहने की जरूरत नहीं कि ऐसे ही बहुराष्ट्रीय निगमों और विश्व बैंक के पूर्व कर्मचारी हिन्दी के अखबारों के तथाकथित सम्पादकीय पृष्ठों पर कब्जा करते जा रहे हैं। वे ही हमारे भूमण्डलीय युग के चिन्तक और राष्ट्र निर्माता बन गये हैं। भारत में अंग्रेजी के अश्वमेध में भिड़े ये लोग अंग्रेजी की अपराजेयता का इतना बखान करते हैं कि सामान्यजन ही नहीं कई राजनेताओं और शिक्षाविदों को लगता है, जैसे आर्थिक प्रलय की घड़ी सामने है और उसमें अब केवल अंग्रेजी ही मत्स्यावतार है। अतः हमें लगे हाथ उसकी पीठ पर इस आर्यभूमि को चढ़ा देना चाहिए, अन्यथा यह रसातल में डूब जायेगी। ये सब देश को बचाने वाले लोग हैं। वे कहते हैं एक ईष्ट इण्डिया कम्पनी ने तुम्हें सभ्य बनाया। अब जो आ रही हैं वे तुम्हें सम्पन्न बनायेगी। माँ तो मांगने पर ही रोटी देती है, ये तुम्हें बिना मांगे माल देंगी। तुम्हें मालामाल कर देंगी। फिर भी तुम मांगोगे मोर। इसलिए हिन्दी को छोड़ो और अंगे्रजी का दामन थामो।
अंग्रेजी की विरुदावली गा-गाकर गला फाड़ते ये किराये के कोरस गायक, यह क्यों भूल जाते हैं कि चीनी (जिसमें ढाई हजार चिन्हनुमा अक्षर हैं) तथा जापानी जैसी चित्रात्मक लिपियों वाली भाषाओं ने अंग्रेजी की वैसाखी के बगैर ही बीसवीं सदी के सारे ज्ञान-विज्ञान को अपनी उन्हीं चित्रात्मक “लिपियों वाली भाषा में ही विकसित किया और आज जब संसार में व्यापार, टेकनॉलाजी या आर्थिक क्षेत्रों के सन्दर्भ खुलते हैं तो कहा जाता है, ’’लिंचपिन आव वर्ल्ड इकोनॉमी एण्ड टेकनोलॉजी हेज शिफ्टेड फ्रॉम अमेरिका टू जापान। हालांकि कुछ लोग अब जापान के साथ चीन का भी नाम लेने लगे हैं और यह किसी से छुपा नहीं है कि अमेरिका चीन से भी चमकने लगा है। क्योंकि वह शीघ्र ही सूचना प्रौद्योगिकी पर कब्जा करने वाला है। क्योंकि, अमेरिका में पढ़ रहा एक चीनी छात्र, यदि वहाँ रहकर कोई कम्प्यूटर सॉफ्टवेयर विकसित करता है तो साथ ही साथ उसे वह अपनी चीनी भाषा में विकसित करता है और अपने देश में पहुँचते ही वह उसे स्थापित कर देता है। जबकि हिन्दी की नागरी लिपि जो संसार भर की तमाम भाषाओं की लिपियों में श्रेष्ठ और वैज्ञानिक है को अंग्रेजी का रास्ता साफ करने के लिए निर्दयता के साथ मारा जा रहा है। वे अपने धूर्त मुहावरे में बताते हैं कि अखबार इस तरह हिन्दी को नष्ट नहीं कर रहे हैं, बल्कि ग्लोबल बना रहे हैं। वे हिन्दी को एक फ्रेश लिंग्विस्टिक लाइफ दे रहे हैं। हम जानना चाहते हैं कि भैया आप किसे मूर्ख बना रहे हैं? जिस हिन्दी को राष्ट्र संघ की भाषा सूची में शामिल नहीं करवा सके, उसे हिंग्लिश बनाकर ग्लोबल बनायेंगे? और हिंग्लिश बनकर हिन्दी ग्लोबल होगी कि वह अंग्रेजी के ‘महामत्स्य’ के पेट में पहुंच जाएगी।
श्रीमान् आप आग लगाकर उस पर आग के आगे पर्दा खींच रहे हैं और हमें समझा रहे हैं कि ‘बेवकूफो! हिन्दी सकुशल है और वह जिंदा बची रहेगी।’ अंग्रेजी की लपट में स्वाहा नहीं होगी। यदि हो भी गई तो बाद में वह राख के रूप में रहेगी, पर रहेगी जरूर। भाषा की भस्म को कपाल पर पोतकर तुम प्रसन्न रहना। ठीक है, हिन्दी तुम्हारी जबान पर रहे न रहे पर वह तुम्हारे ललाट पर तो रहेगी ही। पहले हिन्दी ‘ललाट की बिंदी भर’ थी, अब तो तुम उससे पूरा ललाट लीप लेना। फिर तुम तो आत्मावादी हो। ’वासांसि जीर्णानि यथा विहाय’ वाले हो। इसलिए भलीभांति जानते हो कि आत्मा अमर होती है। हिन्दी की आत्मा अमर है और रहेगी। वो सिर्फ पुराने कपड़े बदल रही है। उसके पुराने कपड़ों की हालत ’नौ गज साडी फिर भी जांघ उघाड़ी’ वाली उक्ति की तरह हो चुकी थी। शब्द का बहुत बड़ा जखीरा अर्थात् मोटे-मोटे शब्दकोश, लेकिन फिर भी लफ्जों के लाले। हिन्दुस्तान की बुकराई हुई एक अंग्रेजी लेखिका ने कहा- ’‘बताइये हिन्दी के पास एटम के लिए कोई शब्द ही नहीं है, फिर भला उसमें विज्ञान की शिक्षा कैसे संभव है।’’ बहरहाल तुम्हारी हिन्दी जींस पहन रही है। उसे स्मार्टनेस की तरफ जाना है। वह फिलहाल ग्रीन रूम में है। लद्धड़ता छोड़कर एक फ्रेश लिंग्विष्टक लाईफ को हासिल करने की तरफ बढ़ रही है। - प्रभु जोशी
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