विशेष :

हिन्दी को समाप्त करने का षड्यन्त्र

User Rating: 0 / 5

Star InactiveStar InactiveStar InactiveStar InactiveStar Inactive
 

hindi

भारत इन दिनों दुनिया के ऐसे समाजों की सूची के शीर्ष पर हैं, जिस पर बहुराष्ट्रीय निगमों की आसक्त और अपलक आँख निरन्तर लगी हुई है। यह उसी का परिणाम है कि चिकने और चमकीले पन्नों के साथ लगातार मोटे होते जा रहे हिन्दी के दैनिक समाचार पत्रों के पृष्ठों पर एकाएक भविष्यवादी चिन्तकों की एक नई नस्ल अंग्रेजी की मांद से निकलकर बिना नागा, अपने साप्ताहिक स्तम्भों में आशावादी मुस्कान से भरे अपने छायाचित्रों के साथ आती है। यह नस्ल हिन्दी के मूढ़ पाठकों को गरेबान पकड़कर समझाती हैकि “तुम्हारे यहाँ हिन्दी में अतीतजीवी अन्धों की बूढ़ी आबादी इतनी अधिक हो चुकी है कि उनकी बौद्धिक-अन्त्येष्टि कर देने में ही तुम्हारी बिरादरी का मोक्ष है। कारण यह है कि वह अपने आप्तवाक्यों में हर समय इतिहास का जाप करती रहती है और इसी के कारण तुम आगे नहीं बढ़ पा रहे हो। इतिहास ठिठककर तुम्हें पीछे मुड़कर देखना सिखाता है, इसलिए वह गति अवरोधक है। जबकि भविष्यातुर रहने वाले लोगों के लिए गरदन मोड़कर पीछे देखना तक वर्ज्य है, एकदम निषिद्ध है। ऐसे में बार-बार इतिहास के पन्नों में रामशलाका की तरह आज के प्रश्‍नों के भविष्यवादी उत्तर बरामद कर सकना असम्भव है। हमारी सुनो और जान लो कि इतिहास एक रतौंध है, तुमको उससे बचना है। हिस्ट्री इज बंक। वह बकवास है। उसे भूल जाओ। बहरहाल अगर-मगर मत कर। इधर उधर मत तक। बस सरपट चल।’’

भविष्यवाद का यह नया सार्थक और अग्रगामी पाठ है। जबकि इस वक्त की हकीकत यह है कि हमारे भविष्य में हमारा इतिहास एक घुसपैठिये की तरह हरदम मौजूद रहता है। उससे विलग, असंपृक्त और मुक्त होकर रहा ही नहीं जा सकता। इतिहास से मुक्त होने का अर्थ स्मृति-विहीन हो जाना है तथा सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से अनाथ हो जाना है। लेकिन वे हैं कि बार-बार बताये चले जा रहे हैं कि “तुम्हारे पास तुम्हारा इतिहास बोध तो कभी रहा ही नहीं है। और जो है, वह तो इतिहास का बोझ है। तुम लदे हुए हो। तुम अतीत के कुली हो और फटे-पुराने कपड़ों में लिपटे हुए अपना पेट भर पालने की जद्दोजहद में हो, जबकि ग्लोबलाइजेशन की फ्यूचर एक्सप्रेस प्लेटफार्म पर खड़ी है और सीटी बजा चुकी है। इसलिए तुम इतिहास के बोझ को अविलम्ब फेंको और उस पर लगे हाथ चढ़ जाओ।’’

जी हाँ, अधीरता पैदा करने वाली नव उपनिवेशवाद की यही वह मोहक और मारक भाषा है, जो कहती है कि “अब आगे और पीछे सोचने का समय नहीं है। अलबत्ता, हम तो कहते हैं कि अब तो सोचने का काम तुम्हारा है ही नहीं, वह तो हमारा है। हम ही सोचेंगे तुम्हारे बारे में। अब हमें ही तो सब कुछ तय करना है तुम्हारे बारे में। याद रखो! हमारे पास वह छैनी है, जिसके सामने पत्थर को भी तय करना पड़ता है कि वह क्या होना चाहता है, घोड़ा या कि सांड। उस छैनी से यदि हम तुम्हें घोड़ा बनायेंगे तो निश्‍चय ही रेस का घोड़ा बनायेंगे। यदि हमें सांड बनाना होगा तो तुम्हें वो सांड बनायेंगे जो अर्थव्यवस्था को सींग पर उछालता हुआ सेंसेक्स के ग्राफ में सबसे ऊपर डुंकारता हुआ दिखाई पड़ेगा।’’

इन्हीं चिन्तकों की इसी नई नस्ल ने हिन्दी के अखबारों के पन्नों पर रोज-रोज लिख-लिखकर सारे देश की आँख उस तरफ लगा दी है, जहाँ विकास दर का ग्राफ बना हुआ है और उसमें दर-दर की ठोंकरे खाता आम आदमी देख रहा है कि येल्लो उसने छः-सात और आठ के अंक को छू लिया है। इसी दर के लिए ही तमाम दरों-दीवारों को तोड़कर महाद्वार बनाया जा रहा है। इसे ही ओपन डोर पॉलिसी कहते हैं। और कहने की जरूरत नहीं कि चिन्तकों की ये फौज, इसी ओपन डोर से दाखिल हुई है। यही उसकी द्वारपाल है, जो घोषणा कर रही हैकि तुम्हारे यहाँ मही (पृथ्वी) पाल आ रहे हैं। तुम्हारे यहाँ विश्‍वेश्‍वर आ रहे हैं। दौड़ो और उनका स्वागत करो। तुमने आपातकाल का स्वागत किया था, तो इसका स्वागत करने में क्या हर्ज है! मजेदार बात यह कि इसके स्वागत में, इसकी अगवानी में सबसे पहले शामिल हैं इसके हिन्दी के अखबार। वे बाजा फूंक रहे हैं और फूंकते-फूंकते बाजारवाद का बाजा बन गये हैं। ये अखबार पहले विचार देते थे, विचार की पूँजी देते थे। लेकिन अब पूँजी का विचार देने में जुट गये हैं। एक अल्प उपभोगवादी भारतीय प्रवृत्ति को पूरी तरह उपभोक्तावादी बनाने की व्यग्रता से भरने में जी-जान से जुट गये हैं, ताकि भूमण्डलीकरण के कर्णधारों तथा अर्थव्यवस्था के महाबलीश्‍वरों के आगमन में आने वाली अड़चनें ही खत्म हो जायें और इन अड़चनों की फेहरिस्त में वे तमाम चीजें आती हैं, जिनसे राष्ट्रीयता की गंध आती हो।

कहना न होगा कि इसमें इतिहास, संस्कृति और भाषा शीर्ष पर है। फिर हिन्दी से तो राष्ट्रीयता की सबसे तीखी गंध आती है। परिणामतः भूमण्डलीकरण की विश्‍व-विजय में सबसे पहले निशाने पर हिन्दी ही है। इसका एक कारण यह भी है कि यह हिन्दुस्तान में संवाद, संचार और व्यापार की सबसे बड़ी भाषा बन चुकी है। कोई भी मुल्क अपनी राष्ट्रभाषा के अभाव में बना नहीं रह सकता। चूँकि भाषा सम्प्रेषण का माध्यम भर नहीं, बल्कि चिन्तन प्रक्रिया एवं ज्ञान के विकास और विस्तार का भी हिस्सा होती है। उसके नष्ट होने का अर्थ एक समाज, एक संस्कृति और एक राष्ट्र का नष्ट हो जाना है। वह प्रकारान्तर से राष्ट्रीय एवं जातीय अस्मिता का प्रतिरूप भी है। इस अर्थ में भाषा उस देश और समाज की एक विराट ऐतिहासिक धरोहर भी है। अतः उसका संवर्धन और संरक्षण एक अनिवार्य दायित्व है।

जब देश में सबसे पहले मध्यप्रदेश के एक स्थानीय अखबार ने विज्ञापनों को हड़पने की होड़ में बाकायदा सुनिश्‍चित व्यावसायिक रणनीति के तहत अपने अखबार के कर्मचारियों को हिन्दी में 40 प्रतिशत अंग्रेजी के शब्दों को मिलाकर ही किसी खबर के छापे जाने के आदेश दिये और इस प्रकार हिन्दी को समाचार पत्र में हिंग्लिश के रूप में चलाने की शुरूआत की, तो मैंने अपने पर लगने वाले सम्भव आरोप मसलन प्रतिगामी, अतीतजीवी अंधे, राष्ट्रवादी और फासिस्ट आदि जैसे लांछनों से डरे बिना एक पत्र लिखा, जिसमें मैंने हिन्दी को हिंग्लिश बनाकर दैनिक अखबार में छापे जाने से खड़े होने वाले भावी खतरों की तरफ इशारा करते हुए लिखा- “प्रिय भाई, हमने अपनी नई पीढ़ी को बार-बार बताया और पूरी तरह उसके गले भी उतारा कि अंग्रेजों की साम्राज्यवादी नीति ने ही हमें ढाई सौ साल तक गुलाम बनाये रक्खा। दरअसल ऐसा कहकर हमने एक धूर्त चतुराई के साथ अपनी कौम के दोगलेपन को इस झूठ के पीछे छुपा लिया। जबकि इतिहास की सच्चाई तो यही है कि गुलामी के विरुद्ध आजादी की लड़ाई लड़ने वाले नायकों को अंग्रेजों ने नहीं, बल्कि हमीं ने मारा था। आजादी के लिए ‘आग्रह’ या ‘सत्याग्रह’ करने वाले भारतीयों पर क्रूरता के साथ लाठियाँ बरसाने वाले बर्बर हाथ अंग्रेजों के नहीं, हम हिन्दुस्तानी दरोगाओं के ही होते थे। अपने ही देश के वासियों के ललाटों को लाठियों से लहू-लुहान करते हुए हमारे हाथ जरा भी नहीं कांपते थे। कारण यह है कि हम चाकरी बहुत वफादारी से करते हैं और यदि वह गोरी चमड़ी वालों की हुई तो फिर कहने ही क्या ?

पूछा जा सकता है कि इतने निर्मम और निष्करुण साहस की वजह क्या थी? तो कहना न होगा कि दुनिया भर के देशों में ‘सारे जहाँ से अच्छा’ ये हमारा ही वो देश है, जिसके वासियों को बहुत आसानी से और सस्ते में खरीदा जा सकता है। देश में जगह-जगह घटती आतंकवादी गतिविधियों की घटनाएँ, हमारे ऐसे चरित्र का असंदिग्ध प्रमाणीकरण करती है। दूसरों शब्दों में हम आत्म स्वीकृति कर लें कि ‘भारतीय’ सबसे पहले ‘बिकने’ और ‘बेचने’ के लिए तैयार हो जाता है और यदि वह संयोग से व्यवसायी और व्यापारी हुआ, तो सबसे पहले जिस चीज़ का सौदा वह करता है, वह होता है उसका जमीर। इस सौदे के बाद उसमें किसी भी किस्म की नैतिक-दुविधा शेष नहीं रह जाती है और भाषा, संस्कृति तथा अस्मिता आदि चीजों को तो वह खरीददार को यों ही मुफ्त में बतौर भेंट के दे देता है। ऐसे में यदि कोई हिंसा के लिए भी सौदा करे, तो उसे कोई अड़चन अनुभव नहीं होती है। फिर वह हिंसा अपने ही शहर, समाज या राष्ट्र के खिलाफ ही क्यों न होने जा रही हो । (क्रमशः) - प्रभु जोशी

Conspiracy to end Hindi | Hindi | Daily News | Intellectual Funeral | History Sense | Hindustaan | Hindi News Paper | Hinglish | independence | India's goldenland | English language | Divyayug | Divya Yug


स्वागत योग्य है नागरिकता संशोधन अधिनियम
Support for CAA & NRC

राष्ट्र कभी धर्म निरपेक्ष नहीं हो सकता - 2

मजहब ही सिखाता है आपस में बैर करना

बलात्कारी को जिन्दा जला दो - धर्मशास्त्रों का विधान