ओ3म् पर ऋणा सावीरध मत्कृतानि माहं राजन्नन्यकृतेन भोजम्।
अव्युष्टा इन्नु भूयसीरुषास आ नो जीवान् वरुण तासु शाधि॥ ऋग्वेद 2.28.9॥
अन्वय- (ऋणा) ऋणानि (पर सावी:) परासावी:। अद्य मत्कृतानि (ऋणानि) परासावी:। हे राजन् (वरुण) अहं अन्यकृतेन मा भोजम्। भूयसी: (उषास:) उषस: इत् न अव्युष्टा: सन्ति। हे वरुण तासु (अष:सु) (न:) अस्मान् जीवान् (आ) समन्तात् शाधि ॥
अर्थ- हे राजा वरुण1 अर्थात् संसार के विधि-विधान के शासक परमात्मन् ! (मत् कृतानि) मेरे किये हुए (ऋणा=ऋणानि) ऋणों को (पर सावी:=परा असावी:) दूर कर दीजिए। ‘अध‘ यहाँ पाद पूरक अव्यय है। या ‘अध‘ का अर्थ ‘अध‘ या ‘च‘ भी हो सकता है अर्थात् मेरे सम्बन्ध में जो दूसरों का किया हुआ ऋण हो उसे भी दूर कर दीजिए। मैं (अन्यकृतेन) दूसरों की कमाई का (मा भोजम्= मा भोगं लभेयम्) न खाऊँ। (भूयसी: उषास:) बहुत-सी उषाएँ अर्थात् प्रात:कालीन सुख देने वाली मनोवृत्तियाँ (इत् नु) वस्तुत: (अव्युष्टा:=व्युष्टिरहिता:, प्रकाशरहिता:) प्रकाश और सुख-रहित ही प्रतीत हुआ करती हैं। हे वरुण देव ! (न:=अस्मान् जीवान्) हम जीवों को (तासु उष:सु) उन उषाओं में (आ=समन्तात्) पूर्ण रीति से (शाधि) अनुशिष्ट कीजिए अर्थात् हमको ऋणों की चिन्ता से मुक्त कीजिए।
व्याख्या- मा अहं अन्य कृतेन भोजम्। यह वाक्य समस्त मन्त्र का निचोड़ है। अन्य वाक्य इसी भावना को केन्द्र बनाकर उसके चारों ओर घूमते हैं। ‘‘मैं किसी दूसरे की कमाई न खाऊँ। मैं अपनी ही कमाई पर निर्भर रहूँ।‘‘ सृष्टि का यह नियम है कि जो जैसा करेगा उसे उसी के अनुकूल भोग मिलेगा। अपनी कमाई का भोग, न कि दूसरों की कमाई का। जो दूसरों की कमाई खाता है मानो वह दूसरों से ऋण लेता है और ऋण ब्याजसहित चुकाना पड़ता है। इससे चिन्ता भी बढती है और कर्तव्य-पालन में भी बाधा पड़ती है।
सृष्टि में प्राणियों के उपभोग के लिए असंख्य पदार्थ हैं। परन्तु संसार एक बाजार है। यहाँ प्रत्येक वस्तु मिलेगी, परन्तु मुफ्त नहीं, उसका मूल्य तो चुकाना ही पड़ेगा। जिसके पैसा नहीं है पास, उसको मेला लगे उदास। इसलिए बाजार जाने से पहले देख लो कि तुम्हारी जेब मैं पैसा है या नहीं। नहीं है तो कमाई करो और जब पैसा पास हो जाए तब बाजार जाओ। खाली हाथ बाजार जाने वाले या तो बाजार की चीजों से वंचित रहकर जी मसोस कर रह जाते हैं या चोरी करते हैं तो कारागार की यातनाएँ झेलते हैं। जो बिना कमाई के खाना चाहते हैं उनको ऋण चुकाने की चिन्ता रहती है और जिनकी प्रकृति दिवालियापन की है अर्थात् जो ऋण लेकर देना नहीं चाहते उनको सृष्टि क्षमा नहीं करती। उनको ऋण तो चुकाना ही पड़ता है।
इस मन्त्र में परमात्मा को ‘वरुण‘ कहकर पुकारा है। इसकी विस्तृत व्याख्या के लिए टिप्पणी में दिये हुए शतपथ ब्राह्मण के उद्धरण पर विचार कीजिए। परमात्मा का नाम वरुण इसलिए है कि वह संसार का शासक है। जो सृष्टि के कानून को तोड़ता है वरुण उसको दण्ड देता है। मन्त्र के अन्त में ‘शाधि‘2 शब्द आया है जो ‘शासु‘ धातु से बना है। इससे भी स्पष्ट है कि ‘वरुण‘ में शासक की भावना निहित है। ऋण लेना निकम्मेपन का प्रमाण है और न चुकाना देशद्रोह या समाजद्रोह है, इसके लिए परमात्मा की ओर से दण्ड मिलता है। इसलिए प्रत्येक ईश्वर-भक्त को चाहिए कि वह ऋणों से बचता रहे और जो ऋण उसे परिस्थिति के कारण लेने पड़ते हैं उनको चुकाने के लिए चिन्तित रहे। ऋण में निमग्न मनुष्य को कितने दु:ख भोगने पड़ते हैं उसका एक अच्छा दृष्टान्त मन्त्र के इस वाक्य में दिया हुआ है- अव्युष्टा इन्नु भूयसी: उषास:। ‘उषा‘ का अर्थ है प्रात:काल होने से ठीक पूर्व का मन्द प्रकाश। उसी को उषाकाल कहते हैं, घोर तड़का। अँधेरी रात की समाप्ति पर जब सूर्य उदय होने को होता है तो सूर्य महाराज के चोबदार पहले से ही घोषणा कर देते हैं कि सूर्य महाराज आ रहे हैं। जागो, उनके स्वागत के लिए तैयार हो जाओ। उषाकाल दिन का चोबदार है। उषाकाल के आते ही पशु-पक्षी सबके मन में आनन्द की लहरें उठने लगती हैं। कमल खिलने लगते हैं। समस्त सृष्टि आनन्द मनाती है। भौतिक प्रकाश और अभौतिक आनन्द दोनों ही उषाकाल के परिणाम हैं।
परन्तु यह आनन्द और प्रकाश उन्हीं को मिलता है जो ऋण-रहित या ऋण-मुक्त हैं। जिनके सिर पर ऋण चढा है उनको न उषाकाल आनन्द देता है न प्रकाश। थोड़ा-सा चित्र खींचिए उस मनुष्य का जिसके ऊपर बहुत-सा कर्ज है और कर्जवाले अपना-अपना कर्ज वसूल करने के लिए उसका पीछा किये हुए हैं। किसी प्रकार रात हो गई और कर्जदार ने रात का आश्रय लेकर कहा, ‘कल अवश्य ऋण चुका दूँगा।‘ चलो छुट्टी मिली। थोड़ी देर के लिए ही सही। ऋणी मनुष्य सो जाता है परन्तु ज्यों ही उषाकाल आता है उसकी नींद खुल जाती है। क्या वह उषा का स्वागत करता है? कदापि नहीं। जिन चिन्ताओं से उसको थोड़ी देर के लिए मुक्ति मिली थी वे फिर आ घेरती हैं। जिनका उधार लिया था उन्होंने रात ही कठिनाई से पिण्ड छोड़ा था। अब वे फिर आकर घेरेंगे। रात का भी बहाना नहीं। अब मैं क्या करुँगा? ऐसे चिन्तित पुरुष की उषाएँ भी ‘अव्युष्टा:‘ ही हो जाती हैं। ‘व्युष्टि:‘ का अर्थ है उषाकाल की प्रकाश की किरणें। व्युष्टि का उलटा है ‘अव्युष्टि:‘ अर्थात् उषाकाल प्रकाश देने के स्थान में अँधेरा देने लगता है, अर्थात् ऋणी मनुष्य के दिन भी रात से अधिक अँधेरे होते हैं। ऋणी मनुष्य ऋण की चिन्ताओं के कारण दुखी होकर वरुणदेव से प्रार्थना करता है कि हे भगवन् ! ऋण के कारण मेरा नाक में दम है। मैं सब प्रकार के सुखों से वंचित हूँ। कृपा करके ऋण के पाशों से मुझे मुक्त कर दीजिए और ऐसी शक्ति दीजिए कि मैं दूसरों की कमाई का उपभोग करने की इच्छा ही छोड़ दूँ और सब प्रकार के ऋणों से मुक्त हो जाऊँ।
ऋणी के लिए ऋणी होने की भावना पहली आवश्यक वस्तु है। जो ऋणी ऋणी होते हुए भी अपने को ऋणी नहीं समझता वह ऋण को चुकाने की भी कोशिश नहीं करता। ऋण को चुकाने की कोशिश भी वही करेगा जो ऋण को भार समझता है। बहुत से तो ऋण लेने से पहले ही ठान बैठते हैं कि हमको ऋण का उपभोग करना है, चुकाना नहीं। नास्तिक चार्वाक का कथन है-
यावज्जीवेत् सुखं जीवेत् ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्।
भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कृत:॥
जब तक जियो सुख से जियो। ऋण लेकर घी पियो। जब मर जाओगे, तो देह भस्म हो जाएगी। तुम मरकर वापस नहीं आओगे। जिसने तुमको कर्ज दिया है वह किससे वसूल करेगा? यद्यपि दुनिया में लोग अपने को न नास्तिक कहते, न चार्वाक का अनुयायी मानते हैं, परन्तु व्यवहार-रूप में इस श्लोक के ऊपर कार्य करने वाले असंख्य हैं। ऋण को लेने और न चुकाने के उपाय तलाश करने में संसार लगा हुआ है। भिन्न-भिन्न प्रकार के कानूनों का सहारा लेकर ऋण से बचने का यत्न किया जाता है। कचहरियों में कितने ही मुकदमें होते हैं, जिनमें ऋण लेने वाले ऋण को स्वीकार ही नहीं करते या जानबूझकर दिवालिये बन जाते हैं। बहुत कम लोग ऐसे हैं जो राजा वरुण से सच्चे दिल से प्रार्थना करते हों कि परमात्म-देव उनको उनके ऋणों से मुक्त कर दें। जिसने ऋण लेकर अपने को ऋण से दबा हुआ अनुभव किया और इस चिन्ता के कारण उसकी सुखद उषाएँ अव्युष्ट अर्थात् चिन्ता के बादलों से आच्छादित हो गई वह अवश्य ऋण से छूट जाएगा और वही अपनी कमाई का उपभोग कर सकेगा।
मनुष्य जिस परिस्थिति में जन्म लेता है उसमें यह असम्भव है कि वह किसी का ऋण न लेवे। सम्भव केवल इतना ही है कि जिनका ऋण ले उनका ऋण चुका दे। समस्त व्यापार ऋण के आश्रित है। समस्त सरकारें ऋण लेती हैं जिसको नेशनल डैट या राष्ट्र-ऋण कहते हैं। ऋण का संविधान यह प्रकट करता है कि आरम्भिक अवस्था में दूसरों की सहायता लेनी ही पड़ती है, चाहे आर्थिक हो, चाहे नैतिक, चाहे शारीरिक। परन्तु जब तक ऋण चुकाने की भावना बनी रहती है सामाजिक उन्नति में कोई बाधा नहीं पड़ती। कोई बैंक ऋण देने में संकोच नहीं करता यदि ऋण वसूल करने में कोई सन्देह न हो। छोटे व्यापारी ऋण लेकर ही व्यापार बढाते हैं। परन्तु यदि ऋण को न चुकाने के प्रयत्न होने लगते हैं तो न बैंक चल सकता है न व्यापार। इसलिए ऋणी के मन में ऋणी होने की भावना जाग्रत होनी चाहिए। शतपथ-ब्राह्मण आदि ग्रन्थों में चार प्रकार के ऋणों का उल्लेख आता है- एक सामान्य है और तीन विशेष। विशेष तीन ऋण अधिक परिचित और प्रचलित हैं। एक पितृ-ऋण, दूसरा देव-ऋण, तीसरा ऋषि-ऋण।
पहला सामान्य ऋण तो हर मनुष्य पर है या यों कहना चाहिए कि हर प्राणी का हर प्राणी पर। हम अपनी हर एक सुविधा के लिए दूसरों के ऋणी रहते हैं। कभी-कभी तो हमको यह भी पता नहीं चलता कि अमुक भोग के लिए हम किसके ऋणी हैं।
आप सड़क पर प्रात:काल सैर के लिए जा रहे हैं। दूर से हवा में उड़ती हुई गुलाब की सुगन्धि आपकी नाक में पड़ती है। आपको सुख का अनुभव होता है। यह गुलाब कहाँ है, किस बाग में है, किसने यह गुलाब लगाया है? यह सुगन्ध आपको दूसरों के परिश्रम से मिली है। आप उनके ऋणी हैं। यदि आप इसको ऋण समझें तो आप भी ऐसे परोपकार के काम करें और संसार गुलाबों की सुगन्ध से भर जाए। परन्तु यदि आप समझें कि ‘माले मुफ्त, दिल बेरहम‘ तो संसार कण्टक बन जाए।
यहाँ एक छोटी-सी बच्चों की कहानी पर विचार कीजिए। एक पिता ने अपने बच्चे को कहा, ‘कल हम तुमको शीरमाल खिलायेंगे।‘ बच्चे ने पूछा, ‘शीरमाल क्या होता है?‘ पिता बोला, ‘शीरमाल वह चीज है जिसके बनाने में हजारों आदमियों का हाथ लगा है।‘ बच्चे को बड़ी उत्सुकता हुई। वह बड़ी उमँग के साथ प्रात:काल की प्रतीक्षा करने लगा। जब प्रात:काल हुआ और बच्चे ने ‘शीरमाल-शीरमाल‘ पुकारना आरम्भ किया तो पिता ने दो पैसे की जलेबियाँ हलवाई की दुकान से दिला दीं। लड़के ने कहा, ‘‘यह तो शीरमाल नहीं है। शीरमाल के बनाने में तो हजारों मनुष्यों के हाथ लगते हैं। मैं तो हजारों क्या सौ मनुष्यों को भी नहीं देखता।‘‘ पिता बोला, ‘‘ये जलेबियाँ भी हजारों हाथों की बनी हुई हैं।‘‘ बच्चे ने कहा, ‘कैसे?‘
पिता ने उत्तर दिया, ‘‘देखो! जलेबी आटे की बनती है। आटा गेहूँ का बनता है। गेहूँ को किसान बोता है। सोचो तो सही कि खेत जोतने और गेहूँ बाने से लगाकर आटा तैयार होने तक कितने आदमियों के हाथ लगे होगें !‘‘
लड़का दंग रह गया। वह हिसाब लगाने बैठा तो सैकड़ों की संख्या प्रतीत हुई। पिता ने कहा, ‘‘अभी तुमने पूरा नहीं सोचा। यह तो केवल गेहूँ का हिसाब लगाया है। घी के विषय में भी तो सोचो। फिर चीनी का नम्बर आयेगा, फिर यह भी देखना पड़ेगा कि भट्टी में जो आग जलती है उसके लिए ईंधन उगाने और लकड़ी या कोयला प्राप्त करने के लिए कितने हाथ लगते हैं।‘‘ लड़के ने देखा कि हाथों की संख्या जितना विचार दौड़ाते हैं बढती ही जाती है। पिता ने कहा, ‘‘इतना ही नहीं। अभी तक तो तुम्हारा ध्यान केवल गेहूँ, चीनी, घी या अग्नि तक ही सीमित था। जिस कड़ाही में जलेबियाँ बन रही हैं उसकी कहानी भी तो सुनो, वह क्या कह रही है। कड़ाही लोहे की बनी है। लोहा खदान में होता है। कभी लोहे के कारखाने में जाओ या कोयले की खदानों पर दृष्टि डालो।‘‘
यह एक छोटी-सी कहानी है जो बताती है कि हमारे ऊपर दूसरे कितने मनुष्यों का ऋण है। हर एक जलेबी हमारे लिए शीरमाल है, जिसमें हजारों आदमियों के हाथ लग चुके हैं और हम सब उनके ऋणी हैं। यह ऋण तो तभी छूट सकता है जब हम भी देश या जाति के उद्योगों में भरसक यत्न करें और जैसे हमने दूसरों से ऋण लिया है उसी प्रकार हम भी दूसरों को उसका बदला चुका सकें। जिस देश या जाति में ऐसे व्यक्ति रहते हैं, जिनके जीवन का एक ही उद्देश्य है कि ‘माहं राजन् अन्यकृतेन भोजम्‘ हे ईश्वर ! हम दूसरों की कमाई न खाएँ, अपितु जो कुछ उपभोग हमको प्राप्त हैं उनमें हमारा भी पूर्ण भाग हो तो संसार के समस्त कष्ट मिट जाएँ।
यह संसार एक सहयोगी संस्था है, एक कारखाना है, जिसमें सभी मनुष्य भागीदार हैं। कारखाने के हित के लिए प्रत्येक व्यक्ति अपना हिस्सा लगाता है। जब तक भागीदार सत्यता पर आरूढ रहकर कारखाने में अपना-अपना भाग लगाते हैं तब तक कोई किसी का ऋणी नहीं या सब सबके ऋणी हैं, ऋण लेते हैं और ऋण देते हैं। किसी को किसी की शिकायत नहीं है। परन्तु जब भागीदारों की नीयत खराब हो जाती है और स्वार्थ भागीदारों को अन्धा कर देता है तो कारखाने टूट जाते हैं, जातियाँ नष्ट-भ्रष्ट हो जाती हैं। संसार के हर देश में व्यापारिक और औद्योगिक कम्पनियाँ (संघ) चला करती हैं। जब तक भागीदार अपने-अपने भाग के अनुपात से ही भोग करते हैं, ऋण का जाल किसी को कष्टप्रद नहीं होता। परन्तु जब भाग के अनुपात से भोग का अनुपात बढ जाता है तो वरुणदेव अपने पाशों को शिथिल करने के स्थान में कड़ा कर देते हैं। ऋग्वेद के एक और मन्त्र में वरुण देव से प्रार्थना की गई है- उदुत्तमं वरुण पाशमस्मदवाधमं वि मध्यमं श्रथाय। (ऋग्वेद 1.24.15)
हे वरुणदेव ! अब अपने बड़े, छोटे और बिचले पाशों अर्थात् बन्धनों को ढीला कर दीजिए। हम इन बन्धनों की जकड़ से तंग आ रहे है।
वरुण के पाशों की जकड़ को ढीला करने की एक ही विधि है। वह है ऋणों की प्रकृति को समझकर अपने जीवन का एक नियम निर्धारित करना कि माहं राजन्नन्यकृतेन भोजम्। मेरा भोग मेरे भाग के अनुपात से बढ न जाए। ऐसा न हो कि मैं कम दाम देकर अधिक दामों का माल खरीदूँ, या धोखा देकर माल के दाम न चुकाऊँ।
भोग और भाग का अनुपात इस मन्त्र का मूलमन्त्र है, इसको अच्छी तरह याद कर लेना चाहिए, इससे सबका कल्याण होगा।
सन्दर्भ-
1. मित्र और वरुण के अर्थों के विषय में शतपथ काण्ड पाँच का तृतीय ब्राह्मण विचारणीय है। यद्यपि इस ब्राह्मण में चरु बनाने और उसकी आहुति देने का वर्णन है, परन्तु याज्ञिक क्रिया के विधान के साथ जो गुणवाद-सूचक वाक्य हैं उनसे मित्र और वरुण के सम्बन्ध में जो भावनाएँ प्राचीनकाल में प्रचलित रही होंगी उन पर अच्छा प्रकाश पड़ता है।
अथ मित्राय सत्याय। नाम्बानां चरुं निर्वपति। तदेनं मित्रऽएव सत्यो ब्रह्मणे सुवति। अथ यन्नाम्बानां भवति। वरुण्या वा एताऽओषधयो या: कृष्ट्टे जायन्तेऽथैते मैत्रा यन्नाम्बास्तस्मान् नाम्बानां भवति॥ (शतपथ ब्राह्मण 5.3.3.8)
अथ वरुणाय धर्मपतये। वारुणं यवमय चरुं निर्वपतितदेनं वरुण एव धर्मपतिर्धमस्य पतिं करोति। परमता वै सा यो धर्मस्य पतिरसद् यो हि परमतां गच्छति तं हि धर्मऽउपयन्ति तस्माद् वरुणाय धर्मपतये। (शतपथ. 5.3.3.9)
यहाँ प्रकरण यज्ञ का है। दो देवताओं के लिए चरु बनाये गये- एक वरुण के लिए दूसरा मित्र के लिए। ‘मित्र‘ के लिए विशेषण है ‘सत्याय‘ तथा वरुण के लिए ‘धर्मपतये‘। मित्र के लिए ‘नाम्ब‘ नामक अनाज का चरु बनाया। वरुण के लिव ‘यव‘ (जौ) का। ‘नाम्ब‘ अनाज बिना खेती के उत्पन्न होता है। ‘जौ‘ खेती करके उत्पन्न करते हैं। ‘वरुण्या वा एताऽओषधयो या: कृष्ट्टे जायन्ते।‘ जो अन्न किसान लोग खेत में उत्पन्न करते हैं उन पर शासन, शासक या सरकार का आधिपत्य होता है, इसलिए उनको ‘वरुण्य‘ कहा। ‘नाम्ब‘ नामक अनाज बिना खेती के स्वयं उपज खड़ा होता है, अत: उस पर लगान नहीं लगता। वह ‘वरुण्य‘ नहीं है। उसके द्वारा ब्राह्मणों का सत्कार करना होता है।
इस गाथा में कितना वैज्ञानिक तत्त्व है इसका प्रश्न नहीं। यहाँ केवल यह दिखाना है कि ‘वरुण‘ शब्द के साथ शासन और शासित की भावना संयुक्त है। समाज में ‘मित्र‘ नाम है सत्यपति या ब्राह्मण का जो बिना दण्ड-विधान के समाज का संशोधन करता है। ‘वरुण‘ नाम है क्षत्रिय या शासक का जो धर्मपति है अर्थात् दण्ड-विधान के द्वारा समाज की रक्षा करता है। जैसे शासन-विधान में राज के कानूनों का जाल-सा बिछा रहता है, वैसे ही वरुण के पाश या जाल सर्वत्र बिछे रहते हैं। सड़क पर चलने का एक नियम है। घर बनाने का एक नियम है। खेत जोतने का एक नियम है। विवाह करने का एक नियम है। व्यापार करने का एक नियम है और यदि आपने एक नियम को भी भंग किया तो राजपुरुष तुरन्त आपको पकड़ लेते हैं। हर क्रिया के लिए एक कानून है और हर कानून तोड़ने के लिए एक दण्ड है। विधि-विधान और दण्ड-विधान इन दोनों का नाम शासन है। यही ‘वरुण्य‘ है अर्थात् वरुण से सम्बन्ध रखने वाली वस्तु। ब्राह्मण उपदेश देता है, दण्ड नहीं देता। उसके उपदेशों में आन्तरिक प्रेरणा निहित है। परमात्मदेव के लिए भी हम दोनों प्रकार के भाव रख सकते हैं। ईश्वर मित्र है क्योंकि हमारा हितैषी है। ‘वरुण‘ है, क्योंकि वह हमारे कर्मों का फल देने वाला है। वेद में बहुत से मन्त्रों का रहस्य समझने के लिए वरुण और मित्र की विवेचना को ध्यान में रखना आवश्यक है।
2. शाधि (शासु अनुशिष्टौ द्विकर्मक) लोट्, मध्यम पुरुष एकवचन। ‘शा हौ।‘ पाणिनि अष्टाध्यायी सूत्र 6.4.35 - पं. गंगाप्रसाद उपाध्याय (दिव्ययुग-अक्टूबर 2014)
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