आजादी के 68 साल बाद भी लोग उन असंख्य क्रान्तिकारियों के बारे में कुछ नहीं जानते जिन्होंने देश को आजाद कराने के लिए अपनी जान हथेली पर रखकर कितने ही हैरतअंगेज कारनामे किये। इन स्वतन्त्रता सेनानियों की स्थिति बड़ी अजीब सी रही है। एक बड़ा तबका उस लड़ाई में उनके सक्रिय योगदान को न समझ कर उसे सीधे-सीधे नकारता है। उनके खिलाफ असंगत बयान देता रहता है और उनके उद्देश्यों और गतिविधियों का महत्व समझे बिना झटपट अपनी राय दे डालता है। सच यह है कि भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के इतिहास में इन अज्ञात नायक-नायिकाओं को न तो अब तक अपेक्षित स्थान मिला है, न उनकी कोई भूमिका स्वीकारी गयी है। उलटे उन पर कई तरह के आरोप लगाकर उनकी छवि धूमिल करने की नाकाम कोशिश की जाती रही है।
जहाँ तब उन पर भारत की स्वतन्त्रता के लिए विदेशी सहायता मांगने का आरोप है, उसका सीधा, स्पष्ट और सरल उत्तर इस उक्ति में है कि ‘हमारे शत्रु का विरोधी हमारा मित्र है।‘ सुभाषचन्द्र बोस आलोचकों को इसका सटीक और खामोश करने वाला जवाब देते हुए कहते हैं कि ‘‘आधुनिक इतिहास में मुझे ऐसा एक भी उदाहरण दिखाई नहीं देता जहाँ एक परतन्त्र देश बिना किसी तरह की विदेशी सहायता के स्वतन्त्रता हासिल करने में सफल हुआ हो।‘‘ गैरी बाल्डी और लेनिन इसके सर्वश्रेष्ठ उदाहरण हैं, लेकिन उन्हें कोई गद्दार या देशद्रोही नहीं कहता।
यह अत्यन्त स्वाभाविक है कि जिस देश ने अहिंसा के आदर्श पर चलते हुए स्वतन्त्रता प्राप्त की है, वहाँ लोग हिंसा में विश्वास करने वाले क्रान्तिकारियों द्वारा सामूहिक या व्यक्तिगत तौर पर अपनाये गये रूख की आलोचना करें। पर विदेशी भूमि पर रहते हुए भारतीय स्वतन्त्रता की लड़ाई में योगदान देने वाली ‘भारतीय क्रान्ति की जननी‘ मदाम कामा इसका सटीक उत्तर देते हुए कहती हैं- ‘‘पहले हिंसा करने का प्रश्न उठना भी मुझे अटपटा लगता था, लेकिन नरम दल के गैर उदारवादी रूख, पाखण्डीपन और धूर्ततापूर्ण दोहरी नीतियों को देखकर स्थिति बदल गयी है। अगर हम सबका प्रयोग करते हैं तो केवल इसलिए कि हमें उसके लिए बाध्य किया जा रहा है। हम हिंसा का प्रयोग क्यों करें, जब हमारे शत्रु हमें उसी आखिरी समाधान पर लाकर छोड़ दें? यह कितनी अटपटी स्थिति है कि ब्रिटिश नागरिक रूस के कामरेडों को तो नायक-नायिकाओं जैसा सम्मान देते हैं, उनकी प्रशंसा करते नहीं थकते, लेकिन उसी लक्ष्य को लेकर काम करने वाले भारतीयों को अपराधियों की दृष्टि से देखते हैं। अगर रूसी क्रान्तिकारियों की यह हिंसात्मक नीति प्रशंसनीय है तो भारत की क्यों नहीं?‘‘
भारत में सबसे अजीब बात यह है कि कुछ लोगों को क्रान्ति शब्द से घृणा है। वे इसका अस्तित्व आसानी से नकार देते हैं, इसे बड़ा असंगत कदम मानते हैं। शहीदे आजम भगतसिंह कहते हैं कि ‘‘क्रान्ति का मतलब न तो केवल रक्तपात करना है, न ही यह किसी के खिलाफ व्यक्तिगत लड़ाई है। इसका उद्देश्य केवल अन्याय की नीति पर आधारित शासन पद्धति को उखाड़ फेंकना है। इन हालात में क्रान्ति मानवता की ओर से मनुष्य को अमूल्य और अनिवार्य भेंट है। युद्ध हमेशा नये उत्साह, अदम्य साहस और दृढ संकल्प के साथ लड़ा जाना चाहिए। तभी राष्ट्रवादी मूल्यों पर टिके राष्ट्र की स्थापना हो सकेगी।‘‘
जरूरत व अपेक्षा इसी बात की है कि न केवल क्रान्ति बल्कि इसके असंख्य अज्ञात सूत्रधार भी हमारी स्मृति में हमेशा अमर रहें। जय हिन्द ! - प्रस्तुति : कु.भावना पहल (दिव्ययुग- अगस्त 2015)
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