क्या आप जानते हैं कि सन् 1947 में मिली स्वतन्त्रता का सुख सबसे अधिक कौन भोग रहे हैं? उन नौकरशाहों के कुलीन वंशज, जो अंग्रेजों के शासन में स्वाधीनता आन्दोलन का दमन करते थे। स्वाधीनता मिलने के बाद किसी नौकरशाह को पद से नहीं हटाया गया। जो अंग्रेज या मुसलमान अफसर भारतीयों के अधीन रहकर काम नहीं करना चाहते थे, वे इग्लैंण्ड या पाकिस्तान चले गए। उनके अलावा सभी सरकारी अफसर और कर्मचारी अपने पदों पर ज्यों के त्यों बने रहे।
स्वातन्त्र्य योद्धाओं की उपेक्षा- सत्ता परिवर्तन के बाद रक्तहीन क्रान्ति हो जानी चाहिए थी। सन् 1930 के सत्याग्रह आन्दोलन को हुए कुल 17 वर्ष हुए थे और सन् 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन को तो केवल 5 ही साल बीते थे। उन आन्दोलनों में जिन्होंने घर-बार छोड़कर बलिदान का पथ अपनाया था, उनकी आयु कुछ अधिक नहीं हुई थी। सन् 30 में जो 30 वर्ष का था, वह सन् 47 में 47 वर्ष का होता। उनको ढूंढ-ढूंढकर सरकारी पदों पर बिठाया जाना उचित था। पर नहीं बिठाया गया। क्यों?
15 अगस्त, 1947 की अन्धियारी आधी रात में पं. जवाहर लाल नेहरू को महाराज्यपाल बनाने के लिए कोई कांग्रेसी, कोई स्वतन्त्रता सेनानी नहीं मिला। मिला माउण्टबेटन। यह हमारे स्वाभिमान का दिवाला था। जो आदमी 14 अगस्त की आधी रात तक ब्रिटिश सम्राट की ओर से भारत का वायसराय था, वही रात के बाद बारह बजने के बाद स्वाधीन भारत का पहला महाराज्यपाल बन गया। इससे बड़ा छल इतिहास में कभी नहीं हुआ। यह नेहरू जी की ओर गांधी जी की सहमति से हुआ। यह कलंक अमिट है।
भारतीयता से चिढ- ऐसी स्वाधीनता का परिणाम जो होना था, वह हो रहा है। शेर के मारे हुए शिकार को गीदड़ खा रहे हैं। आज देश पर उन लोगों का शासन है, जो भारत की स्वतन्त्रता को, भारत की संस्कृति को, भारत की भाषा को, भारतीय वेषभूषाओं को, भारतीय भोजन को और भारतीय कलाओं को फूटी आँखों देख भी नहीं सकते। हर भारतीय वस्तु से इन्हें चिढ है, घृणा है, द्वेष है।
सुनने में यह बात विचित्र और असम्भव जान पड़ती है कि भारतीयों को भारतीयता से घृणा और द्वेष हो। परन्तु इसकी सत्यता आप भारतीय प्रशासनिक सेवा के (आई.ए.एस.) अफसरों के समाज में जाकर देख सकते हैं। यह सारा वर्ग (कुछ एक अपवाद हो सकते हैं) ‘इण्डियन’ है। ‘इण्डियन’ वे लोग हैं, जो भारतीय माँ-बाप की सन्तान हैं, जो भारत का अन्न-जल खा-पीकर पुष्ट हुए हैं, परन्तु जिनकी शिक्षा और सम्पत्ति ने उन्हें पश्चिमी संस्कृति और सभ्यता का दास बना दिया है। वे पश्चिम के अन्धभक्त हैं। गाय, धोती और ईश्वर उन्हें दकियानूसी लगते हैं। कुत्ता, पतलून और पैसा उनकी आराधना के पात्र हैं।
कुशिक्षा ने बिगाड़ा- ये लोग जन्म से ऐसे नहीं थे। इन्हें शिक्षा देकर बिगाड़ा गया है। इन्होंने लार्ड मैकाले के द्वारा निर्धारित शिक्षा पाई है। उसके बाद संघ लोक सेवा आयोग ने यत्नपूर्वक उन लोगों को चुना है, जो ‘इण्डियन’ होने की कसौटी पर खरे उतरते हैं। उसके बाद मसूरी की भारतीय प्रशासनिक अकादमी में उनकी अन्तिम साज-संवार की जाती है कि उनके इण्डियनपने में कोई कमी न रह जाए। इन्होंने इस परम सत्य को भलीभांति हृदयंगम कर लिया है कि भारत न पहले कभी कुछ था (यह निरा पाखण्डों, जादू-टोनों, सपेरों और ठगों का देश था), न यह अब कुछ है और न यह पश्चिमी देशों की अनुकम्पा और अनुकरण के बिना भविष्य में कभी कुछ बन सकेगा। यह भयावह स्थिति है। इन काले साहबों से गोरे साहब कहीं अच्छे हैं। उन गोरों साहबों ने चाहते हुए न जानते हुए एक उपकार हम पर किया था। उन्होंने हमें लूटा-खटोसा था, जिसके विरोध में सारा देश पेशावर से डिब्रूगढ तक और कश्मीर से कन्याकुमारी तक एक हो गया था। पंजाब, बंगाल, गुजरात, महाराष्ट्र, असम और केरल सब मिलकर एक हिन्दुस्तान हो गए थे। परन्तु इन काले साहबों ने कुल तरेसठ बरसों में देश को न केवल अलग-अलग अंचलों में, अपितु सम्प्रदायों, जातियों और भाषाओं के आधार पर खण्ड-खण्ड कर दिया है। भारतीय कोई नहीं है। बंगाली हैं, तमिल हैं, मराठा हैं, ब्राह्मण हैं, दलित हैं, जाट हैं, यादव हैं, राजपूत हैं।
हर कोई स्वतन्त्रता चाहता है। कश्मीर स्वतन्त्रता चाहता है, नागालैण्ड, मिजोरम, अरुणाचल, पंजाब सब स्वतन्त्र होना चाहते हैं। भारत का स्वतन्त्र होना काफी नहीं समझा जा रहा।
हर अंग स्वतन्त्रता चाहता है- राज्य ही स्वतन्त्र होना नहीं चाह रहे, सरकार के अंग भी स्वतन्त्र होना चाह रहे हैं। संसद तो स्वतन्त्र है ही, नियन्त्रक और महालेखा परीक्षक भी स्वतन्त्र हैं। प्रसार भारती एक और स्वतन्त्र अंग बन गया है। प्रसार भारती सरकार का मुख है। वह सरकार से स्वतन्त्र रहना चाहता है।
यह बहुत ही रोचक और हंसाने वाली स्थिति है। पूरा देश भारत अग्रेजों के शोषक, अपमानजनक चंगुल से मुक्त हो गया (भले ही विभक्त और क्षत-विक्षत होकर ही सही), इतना काफी नहीं है। अब इसका हर अंग-प्रत्यंग पूर्णतया स्वतन्त्र होना चाहिए। आंख, नाक, कान, मुंह, हाथ, पांव सब स्वतन्त्र रहें। कोई किसी के अधीन न हो। आंख की इच्छा है कि देखे या न देखे। मुंह की मर्जी है कि खाए न खाए या कितना खाए और क्या खाए। हाथ की मर्जी है कि बाकी शरीर की रक्षा के लिए लड़े या न लड़े। पांव की मर्जी है कि सांप देखकर उससे दूर हटे या न हटे।
प्रसार भारती की स्वतन्त्रता का और क्या अर्थ हो सकता है? सेंसर बोर्ड की स्वतन्त्रता का क्या मतलब है? ये देश के शासन के अंग हैं। इन्हें देश-हित के विरुद्ध कार्य करने की स्वतन्त्रता कभी नहीं दी जा सकती। स्वतन्त्रता का अर्थ होता है, अपना बुरा तक करने की स्वतन्त्रता।
स्वतन्त्र प्रसार भारती विभाग देश पर जो अंग्रेजी भाषा और संस्कृति थोप रहा है, उसकी छूट उसे कैसे दी जा रही है? वह किसके आदेश से, इशारे से ऐसा कर रहा है? क्या संसद ने उसे ऐसा करने का आदेश दिया है? क्या मन्त्रिमण्डल ने उसे आदेश दिया है कि भारत में जो कुछ अच्छा है, उसका विनाश कर दो और जो कुछ बुरा है, उसका प्रसार करो?
प्रबुद्ध भारत की संस्कृति नहीं- हमारा कहना है कि यह प्रबुद्ध भारत की संस्कृति नहीं है। दूरदर्शन या केबल चैनलों पर हिंसा, अपराध- कौशल, क्रिकेट, फैशन शो, विश्व सुन्दरी प्रतियोगिताओं का प्रदर्शन भावी पीढ़ी की उन्नति की सही दिशा नहीं है। युवक-युवतियाँ इसे देखना चाहते हैं, यह उनके प्रसारण के पक्ष में सही युक्ति नहीं है। लोग अपराध और पाप करना चाहते हैं, उनकी रोकथाम करना शासन का कर्त्तव्य है। राष्ट्र की शक्ति और साधनों का दुरुपयोग लोगों की बुरी लालसाओं को तृप्त करने के लिए नहीं किया जाना चाहिए।
इकाई के अंग स्वतन्त्र नहीं- विचार स्वतन्त्रता और परन्त्रता का चल रहा था। भारत देश यदि एक इकाई है, तो उस इकाई की स्वतन्त्रता का कुछ अर्थ है। परन्तु एक इकाई में दो अंग स्वतन्त्र नहीं रह सकते। मुस्लिम लीगियों ने 1947 में कहा था कि हम हिन्दुओं के साथ मिलकर नहीं रह सकते। हमारा अलग पाकिस्तान बनाओ। अंग्रेजों और कांग्रेस ने सहमत होकर पाकिस्तान बना दिया। भारत और पाकिस्तान दो अलग इकाई बन गए।
अब स्वतन्त्रता के प्रचारक-प्रसारक, विदेशी महाशक्ति की शह पर कह रहे हैं कि कश्मीर स्वतन्त्र करो, मिजोरम स्वतन्त्र करो, नागालैण्ड स्वतन्त्र करो आदि। एक इकाई के अन्दर दूसरी स्वतन्त्र इकाई नहीं रह सकती। वह स्वतन्त्रता नहीं, अराजकता होगी।
अमर्यादित स्वतन्त्रता नाम की कोई वस्तु नहीं होती। हर परिवार में, हर समाज में या राष्ट्र में मनुष्य शरीर की भांति सब अंग स्वतन्त्रता और परतन्त्रता के सन्तुलन से बन्धे रहते हैं। यदि मिलकर रहना है और किसी ऊँचे लक्ष्य की ओर बढ़ना है, तो स्वतन्त्रता का उपभोग करते हुए कुछ न कुछ परन्तत्रता अपनानी पड़ेगी। इस परतन्त्रता को ‘अनुशासन’ कहा जाता है। अनुशासनहीन शरीर, परिवार और राष्ट्र नष्ट हो जाता है।
इतिहास से यदि कुछ सीखना है, तो नेपोलियन के फ्रांस, विल्हेम कैसर और हिटलर के जर्मनी, जनरल तोजो के जापान से सीखा जा सकता है। यदि शक्तिशाली बनना है, तो अनुशासन में रहना होगा और व्यक्ति को अपनी स्वतन्त्रता का कुछ अंश त्यागकर उतने अंश में परतन्त्रता स्वीकार करनी पड़ेगी। हर एक को कुछ बेचैनी भी होगी।
स्वतन्त्रता कितनी हो और परतन्त्रता कितनी, इसमें ही सुशासन और कुशासन का अन्तर निहित है। सुशासन वह है, जो राष्ट्र को शक्तिशाली बनाए रखते हुए अपने नागरिकों को अधिकतम स्वतन्त्रता दे सके। जैसा कि आज भारत में हो रहा है, स्वतन्त्रता के नाम पर हत्यारों, बलात्कारियों, अपहरणकर्ताओं, लुटेरों, ठगो, गबन करने वालों, रिश्वतखोरों, अपमिश्रण करने वालों, शराब, जुआ और मादक द्रव्यों का व्यापार करने वालों को छूट देना शासन नहीं कुशासन है और उसका फल राष्ट्र भुगत रहा है।
आत्महितकारी कर्मों में लोगों को भले ही स्वतन्त्रता दी जाए, परन्तु सर्वहितकारी कार्यों में तो उन्हें परतन्त्र ही रहना चाहिए। - उदयवीर विराज
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