हमारे स्वास्थ्य के विकास और संरक्षण में आहार का बहुत बड़ा हाथ है। इसीलिए भोजन के सम्बन्ध में विशेष सावधानी बर्तनी चाहिए। शरीर की पुष्टि एवं प्रगति के लिए जो लाभदायक हो सदा ऐसा ही भोजन करना चाहिए, न कि जिह्वा के स्वाद के लिए। अत: सुपाच्य, पौष्टिक और सन्तुलित भोजन एक सर्वगुण सम्पन्न रसायन है। ऐसा आहार औषध की तरह स्वस्थ के बल को बढाने वाला और रोग पीड़ित के कष्ट को हटाकर दोहरे फल वाला होता है। प्राकृतिक चिकित्सा की प्रक्रिया से यह बात प्राय: सामने आती रहती है।
आरोग्यता का दूसरा साधन व्यायाम- प्रतिदिन हम जो भोजन करते हैं, वह भोज्य जब पूर्ण रूप में पच जाता है, तब उससे परिपक्व और अच्छी मात्रा में रस, रक्तादि सात धातुओं का विकास होता है। जिसकी पाचन शक्ति जितनी सुदृढ होती है, वह भुक्त से उतने ही अधिक पोषक तत्त्व प्राप्त करता है। जैसे अच्छा यन्त्र ही गन्ने से पूरा रस निकाल सकता है। इसके लिए आवश्यक है कि व्यायाम द्वारा शरीर को शक्तिशाली बनाया जाए। पौधे में जैसे खाद-पानी देने के बाद यथासमय गुडाई कर देने से ये मिट्टी में मिलकर अधिक लाभप्रद बनते हैं, उसी प्रकार व्यायाम से भुक्त पदार्थ शरीर का अंग बनकर विकास में अधिक योगदान देते हैं। दूध-दही से मक्खन निकालने के लिए मन्थन सहायक होता है, उसी प्रकार व्यायाम खाए हुए से अच्छे पोषक तत्त्व प्राप्त कराता है।
प्रतिदिन नियमित व्यायाम का सेवन करने से शरीर में स्फूर्ति, सौन्दर्य, उत्साह, निरालस्य और लचक रहती है, जिससे शरीर लम्बे समय तक अपना कार्य सुचारू रूप से करता है। जैसे कसी हुई खाट-देखने में सुन्दर, अधिक उपयोगी, प्रयोग में सुखप्रद, रुचिकर और चलती भी अधिक है, इसी प्रकार व्यायाम से शरीर चुस्त, सुगठित, पुष्ट, लचकीला, सुन्दर, अधिक क्रियाशील, सुखजनक, रोगरहित और दीर्घजीवी होता है। यदि व्यायामशील व्यक्ति को अकस्मात कोई शारीरिक कार्य करना पड़ता है, तो वह सरलता से कर लेता है तथा उसके कारण उसका शरीर कई दिनों तक श्रान्त नहीं रहता अर्थात थकता-टूटता नहीं।
व्यायाम सदा शारीरिक शक्ति, प्रकृति और आयु के अनुरूप करना चाहिए। जहाँ व्यायाम का अभाव अहितकर है, वहाँ व्यायाम का अधिक तथा विधिविरुद्ध सेवन कम हानिकारक नहीं होता है। चालीस-पचास वर्ष के पश्चात भ्रमण, योग के दो-चार आसन या हलके खेल अधिक लाभप्रद रहते हैं। सप्ताह में एक दो बार तेल-मालिश भी सहायक रहती है।
शारीरिक स्वास्थ्य के लिए योगासन विशेष उपादेय हैं। इनसे सभी अंगों और ग्रन्थियों का बड़े व्यवस्थित ढंग से व्यायाम हो जाता है, जिसके परिणामस्वरूप भीतरी विकारों की निवृत्ति होने से आरोग्यता के साथ आभा व प्रसन्नता की भी प्राप्ति होती है। योगासनों के साथ प्राणायाम का विशेष सम्बन्ध है। प्राण (श्वांस) के लेने-छोड़ने के विविध आयामों व क्रियाओं के करने को प्राणायाम कहते हैं। प्राण हमारे शरीर की भीतरी व्यवस्था के संचालन में विशेष महत्त्व रखते हैं। तभी तो कहते हैं - प्राण ही जीवन है। जब तक सांस तब तक आस। क्योंकि प्राणों के प्रभाव से भुक्त आहार रस आदि के रूप में परिणत होता है तथा उसका नि:सार भाग मल नियमित रूप में बाहर आता है। शरीर के धारक तत्त्व जब सन्तुलित एवं व्यवस्थित रहते हैं, तब जीवन स्वस्थ, पुष्ट और सुखी रहता है।
तीसरा उपाय ब्रह्मचर्य (संयम)- भारतीय शास्त्रों में ब्रह्मचर्य अनेक अर्थों में आता है। इस प्रकरण में इसका तात्पर्य वीर्य रक्षा व संयम से है। हम जो भोजन करते हैं उससे क्रमश: रस, रक्त आदि सात धातुएं बनती हैं और अन्तिम का नाम वीर्य है। जोकि शक्ति, तेज, स्वास्थ्य, उत्साह और रोग निवारण का आधार होता है। अत: इस शारीरिक सम्पत्ति की देखभाल करना सर्वथा उपयुक्त रहता है। इसके विकास के लिए पौष्टिक पदार्थ अवश्य ही लेने चाहियें। क्योंकि भुक्त पदार्थों से ही सातों धातुएं बनती हैं।
संसार में ऐसा व्यक्ति मिलना कठिन है, जिसको कभी स्वप्नदोष न हो, पर अधिक होना रोग है। जैसे एक पात्र में भरा दूध ठोकर या उफान से बाहर आता है, ऐसे ही विषय-वासना का अधिक चिन्तन, व्यवहार, अधिक गर्म-खट्टे-चटपटे पदार्थ मन को असंयम के पथ पर ले जाते हैं। अत: कामवासना की दिशा से मन आदि को भटकाना अब्रह्मचर्य है।
आरोग्यता का चौथा साधन निद्रा- अन्य साधनों की तरह निद्रा भी स्वास्थ्य के लिए अत्यन्त उपयोगी है। जाग्रत अवस्था में शरीर के कार्यरत रहने से स्नायु तन्तुओं में थकान आ जाती है, वे टूट जाते हैं। इस थकान को दूर कर नीन्द नवीन उत्साह व शक्ति देती है और टूटे हुए तन्तुओं को वह जोड़ती है। कई बार भोजन के बिना हम इतनी कमजोरी अनुभव नहीं करते, जितनी कि एक दो रात न सोने से प्रतीत होती है। निद्रा से व्यक्ति तरोताजा हो जाता है।
अच्छी नीन्द के लिए तीन बातें आवश्यक हैं। पहली बात है- निश्चिन्तता। चिन्ता से नीन्द भाग जाती है। मन की पवित्रता चिन्ता रहित और प्रसन्न बनाती है। इससे गहरी नीन्द आती है जैसे कि बच्चों को। दूसरी बात थकावट की है। जो शरीर से श्रम नहीं करते, उनको भी कम नीन्द आती है और श्रम के बाद ही विश्राम सार्थक होता है। तीसरी बात है भोजन। क्योंकि भूखे पेट भी गहरी नींद नहीं आती। हाँ, अधिक मात्रा में अनाप-शनाप खा लेने पर भी निद्रा में व्यतिक्रम आ जाता है। समय पर पूरी नींद लेने से शारीरिक पुष्टि, रूप में निखार, बल, उत्साह, पाचन अग्नि में वृद्धि और चुस्ती आती है। इससे यही सिद्ध होता है कि ‘सोना‘ तो सोना ही है।
आर्थिक प्रगति- दूजा सुख जिसके पल्ले माया- भौतिक शरीर के संवर्धन और संरक्षाण के लिए भौतिक पदार्थों भोजन-वस्त्र-मकान, शिक्षा, चिकित्सा आदि सुविधाओं की आवश्यकता होती है। भौतिक पदार्थो की प्राप्ति का मानदण्ड या आधार आज धन ही है। धन हमारी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति का साधन होने से ही ‘अर्थ‘ कहलाता है। चल-अचल सम्पत्ति के रूप में अर्थ के दो भेद हैं। अत: जीवन व्यवहार और सफलता का साधन होने से अर्थ का पुरुषार्थ चतुष्टय में सदा से प्रतिष्ठित स्थान रहा है।
धन के बिना निर्धन की स्थिति ‘ढिड्डे न पइयां रोटियां-ते सब्भे गल्लां खोटियां‘ जैसी ही होती है। उसकी इच्छायें सूखी नदी की तरह उभर-उभर कर सूख जाती हैं। उसकी स्थिति सर्वत्र अपराधी और अपमानित जैसी ही होती है। अतएव कई बार व्यक्ति भूख व निर्धनता से बेचैन होकर ईमान, सचाई, दया को ताक पर रखकर चोरी, डाके आदि में लग जाता हैं। प्राय: खाली हाथ वाले विवश होकर क्रूर से क्रूर या घृणित कार्य करने से भी नहीं हिचकते। (क्रमश:) - प्रा. भद्रसेन वेदाचार्य (दिव्ययुग- फरवरी 2015)
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