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सामाजिक पर्यावरण (2)

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Social Environment

वैदिक समाज में दान भी एक आवश्यक कर्त्तव्य माना गया है। प्रत्येक समाज में निर्धन, दीन-हीन सहस्रों व्यक्ति होते हैं, जिनकी कोई स्थायी आमदनी नहीं होती- ये दान पर ही आश्रित होते हैं। सम्पन्न व्यक्ति का कर्त्तव्य है कि वह अपनी आय का कुछ अंश दान में दे। अतएव उपनिषद् में शिक्षा दी गई है कि श्रद्धापूर्वक, श्रद्धा के अभाव में, भय से, ज्ञानपूर्वक सम्पत्ति होने पर अवश्य दान दे-
श्रद्धया देयम्। अश्रद्धया देयम्। श्रिया देयम्।
ह्रिया देयम। भिया देवम्। संविदा देयम्॥98
जो कमाता है वह अकेला कमाई का उपभोग न करे, अपितु बांटकर उपभोग करे। जो व्यक्ति स्वार्थभावना से प्रेरित होकर सारी सम्पत्ति का स्वयं भोग करना चाहता है, वह जब विपत्ति में पड़ता है, तो उसका कोई साथी नहीं होता, कोई भी व्यक्ति उसके सुख दु:ख में सहयोग के लिए तैयार नहीं होता। इसलिए त्यागभाव से भोगने की शिक्षा दी गई है-
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा॥99
क्योंकि अकेला उपभोग करने वाला पापी होता है-
मोघमन्नं विन्दते अप्रचेता:
सत्यं ब्रवीमि वध इत् स तस्य।
नार्यमणं पुष्यति नो सखायं
केवलाघो भवति केवलादी॥100
अर्थात् मूर्ख व्यक्ति को व्यर्थ ही अन्न समृद्धि प्राप्त होती है। मैं सच कहता हूँ कि उसके लिए वह अन्न समृद्धि मृत्यु ही है। वह न अपने घनिष्ट मित्रों की सहायता करता है तथा न सामान्य मित्रों की। अकेला खाने वाला पापी होता है। इससे भी सामाजिक दायित्व बोध का संदेश प्राप्त होता है।
वैदिक ऋषि जहाँ दान की इतनी महिमा बताते हैं, वहाँ निठल्ला बैठने को भी अनुचित मानते हैं। इसलिए निरन्तर कर्म (श्रम) करने का उल्लेख आता है-
कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समा:॥101
अर्थात् मनुष्य निरन्तर कर्म (श्रम) करते हुए सौ वर्ष तक जीने की इच्छा करे।
इस उल्लेख का यही अभिप्राय है कि व्यक्ति को सदैव कर्मशील रहना आवश्यक है। तभी यह शतायु हो सकता है। यदि व्यक्ति कर्मशील होता है तो ही स्वस्थ एवं प्रसन्न रहेगा और नीरोग व्यक्ति ही सामाजिक दायित्व का वहन कर सकता है। सामाजिक उत्कर्ष के लिए आवश्यक है कि प्रत्येक व्यक्ति सक्रिय होते हुए पारस्परिक उन्नति का चिन्तन करता रहे।
समाज के सभी लोग तथा पशु नीरोग, पुष्ट एवं स्वस्थ हों। निम्न मन्त्र में यही कामना की गई है-
इमा रुद्राय तवसे कपर्दिने
क्षयद्वीराय प्र भरामहे मती:।
यथा शमसद् द्विपदे चतुष्पदे
विश्‍वं पुष्टं ग्रामे अस्मिन्ननातुरम्।102
अर्थात् हम बलवान्, जटाधारी, वीरों के शासक रुद्र के लिए ये स्तुतियाँ अर्पित करते हैं, जिससे हमारे मनुष्यों और पशुओें के लिए सुख हो। इस ग्राम में सभी हष्ट-पुष्ट तथा नीरोग हों।
निम्न मन्त्र में समाज की उन्नति, ऐश्‍वर्य तथा पुरुषार्थ की कामना की गई है-
इषे पिन्वस्वोर्जे पिन्वस्व ब्राह्मणे पिन्वस्व, क्षत्राय पिन्वस्व द्यावापृथिवीभ्यां पिन्वस्व।
धर्मासि सुधर्मामेन्यस्मे नृम्णानि धारय, ब्रह्म धारय क्षत्रं धारय विशं धारय॥103
अर्थात् हे परमात्मा ! तुम हमें अन्न और शक्ति के लिए पुष्ट करो। द्युलोक और पृथ्वी लोक के लिए पुष्ट करो। तुम संसार के धारक, सुन्दर नियामक और अहिंसक हो। तुम हमारे लिए धन दो। तुम हमारे लिए ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यवर्ग को दो।

समाज में अन्न समृद्धि और शक्ति या सामर्थ्य का होना आवश्यक है। जिस समाज में धन धान्य की प्रचुरता है तथा शारीरिक स्वास्थ्य या क्षमता से युक्त व्यक्ति हैं, वह समाज निरन्तर प्रगति के पथ पर अग्रसर होता है। इसके लिए इस उपरोक्त मन्त्र में शिक्षा दी गई है कि समाज में ब्रह्म और क्षत्रशक्तियों को पुष्ट करो। ब्रह्मशक्ति ज्ञान देती है, उपाय बताती है तथा मार्गदर्शन करती है। यह सैद्धान्तिक पक्ष है। क्षत्रशक्ति बताए हुए उपायों का प्रयोग करती है, कार्यान्वित करती है तथा उनका फल प्रस्तुत करती है। यह क्रियात्मक पक्ष है। सिद्धान्त और क्रियात्मक दोनों पक्षों को मिलाने से ही समाज, परिवार और राष्ट्र की प्रगति होती है।

समाज के लोगों में परस्पर प्रेम की भावना होनी चाहिए। समाज में विश्‍वबन्धुत्व की भावना से सर्वत्र मधुरता बहने लगती है तथा समाज सुदृढ होता है।
निम्न मन्त्र में सामाजिक संगठन की प्रेरणा दी गई है-
सं गच्छध्वं सं वदध्वं सं वो मनांसि जानताम्।
देवा भागं यथा पूर्वे संजानाना उपासते॥104
अर्थात् हे मनुष्यो ! मिलकर चलो, मिलकर बोलो। तुम्हारे मन एक जैसा विचार करें। जिस प्रकार प्राचीन विद्वान् एकमत होकर अपना-अपना भाग ग्रहण करते थे, उसी प्रकार तुम भी एकमत होकर अपना भाग ग्रहण करो।• (क्रमश:)
सन्दर्भ सूची
98. तैत्तिरीयोपनिषद - 1.11.3
99. यजुर्वेद संहिता - 40.1
100. तैत्तिरीय ब्राह्मण - 2.8.8.3
ऋग्वेद संहिता - 10.117.6
101. यजुर्वेद संहिता - 40.2
102. यजुर्वेद संहिता - 16.48
103. यजुर्वेद संहिता - 38.14
104. तैत्तिरीय ब्राह्मण - 2.4.4.4
ऋग्वेद संहिता - 10.191.2• (दिव्ययुग- जनवरी 2015)

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