अभी कुछ समय पहले वर्ष 2001 की जनगणना के आधार पर मुसलमानों की जनसंख्या के आंकड़े सामने आए थे। इसके मुताबिक भारत में मुस्लिमों की आबादी करीब 24 फीसदी बढ़ी है। सबसे ज्यादा इनकी वृद्धि असम में दर्ज की गई, जहाँ इनका अनुपात दस वर्षों में 30.9 फीसदी से बढ़कर 34.2 फीसदी हो गया।
अब एक नजर भाजपा सांसद महन्त आदित्यनाथ योगी के उस बयान पर डालते हैं जिसमें उन्होंने कहा था कि दंगे वहीं होते हैं, जहाँ मुस्लिमों की आबादी ज्यादा होती है। उनके कथनानुसार जहाँ मुस्लिमों की आबादी 10-20 प्रतिशत होती है, वहाँ साम्प्रदायिक तनाव ज्यादा होता है और जहाँ मुस्लिमों की आबादी 40 फीसदी से ज्यादा होती है, वहाँ गैर-मुस्लिमों के लिए कोई जगह नहीं होती है। गैर-मुस्लिमों को या तो वहाँ से विस्थापित होने के लिए दबाव डाला जाता है या फिर उन्हें वहाँ से खदेड़ दिया जाता है। सांसद महन्त आदित्यनाथ योगी के बयान का यदि समर्थन नहीं किया जा सकता तो कम से कम उसे साम्प्रदायिक कहकर अनदेखा भी नहीं किया जा सकता।
इसका ताजा उदाहरण है जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव का परिणाम। कश्मीर घाटी में भाजपा को कोई सीट मिलना तो दूर, वहाँ भाजपा का कोई भी उम्मीदवार अपनी जमानत तक नहीं बचा पाया। वहीं जम्मू में उसने 25 सीटों पर जीत हासिल की। इसके क्या मायने हो सकते हैं? पहले कश्मीरी पण्डितों को आतंकवादियों की मदद से वहाँ से खदेड़ा गया और अब वहाँ पर मुस्लिम ही निर्णायक स्थिति में है। इससे तो यही लगता है कि आने वाले 50 सालों में भी वहाँ कोई हिन्दू उम्मीदवार चुनाव नहीं जीत सकता। यही स्थिति रही तो चुनाव जीतना तो दूर वहाँ कोई हिन्दू चुनाव लड़ने की कल्पना भी नहीं कर पाएगा।
असम की ही बात करें तो वहाँ वर्तमान में हिन्दुओं का जीना दूभर है। बांग्लादेशियों की बढ़ती घुसपैठ के कारण वहाँ का हिन्दू अल्पसंख्यक होता जा रहा है और वहाँ उसे निशाना बनाया जा रहा है। वर्ष 2012 में तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष (अब केन्द्रीय मन्त्री) नितिन गडकरी ने असम की हिंसा पर कहा था कि असम की हिंसा साम्प्रदायिक घटना नहीं है, यह विदेशी घुसपैठ का मसला है। भाजपा असम में बांग्लादेशी घुसपैठियों का मसला लगातार उठाती आई है, किन्तु सरकार (कांग्रेस नीत यूपीए) हाथ पर हाथ धरे बैठी रही। उन्होंने कहा था कि पूर्वोत्तर राज्यों की स्थिति यह हो चुकी है कि वहाँ की तीन करोड़ की आबादी में से एक तिहाई बांग्लादेशी घुसपैठिए हैं। अकेले असम में ही 50 लाख बांग्लादेशी रह रहे हैं। इतना ही नहीं इन घुसपैठियों ने असम की कुल जमीन का 36 प्रतिशत हिस्सा खरीद लिया है और वहाँ के मूल निवासियों को बेघर कर दिया है। तब उन्होंने सलाह दी थी कि देश की सीमा को सुरक्षित करने के लिए अगर 750 से 800 करोड़ रुपए व्यय कर दीवार खड़ी कर दी जाए तो घुसपैठियों को रोका जा सकता है। अब केन्द्र में उनकी ही सरकार है, देखते हैं वे अपनी ही कही गई बात पर कितना अमल करते हैं। स्वयं प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने भी लोकसभा चुनाव के दौरान असम के लोगों को घुसपैठ की समस्या से निजात दिलाने की बात कही थी। साथ ही अवैध बांग्लादेशियों को वापस भेजने की बात भी कही थी। लोगों ने उनकी बात पर भरोसा कर उन्हें प्रधानमन्त्री की कुर्सी तक पहुंचाया। लेकिन अब मोदी की बारी है कि वे अपनी बात पर कितना खरा उतरते हैं।
यह समस्या दिखने में भले ही छोटी हो सकती है, लेकिन इस पर समय रहते ध्यान नहीं दिया गया तो यह समूचे देश के लिए घातक हो सकती है। क्योंकि देखने में यह भी आया है कि भारत से लोग इस्लामिक स्टेट (आईएस) के आतंकवादियों की मदद के लिए इराक और सीरिया जा रहे हैं। अशिक्षित हों तो इन्हें नासमझ और भटका हुआ कह सकते हैं, लेकिन इस तरह के लोगों में ज्यादातर उच्च शिक्षित हैं। इसके पीछे मतान्धता नहीं तो और क्या है, जबकि भारत का इराक और सीरिया की हिंसा से दूर-दूर तक कोई लेना-देना नहीं है। इस्लाम को मानने वालों को भी यह समझना होगा कि वे इस तरह के लोगों की पहचान कर उनसे दूरी बनाएं, अन्यथा इस कलंक से इस्लाम और उसके मानने वाले भी अछूते नहीं रह पाएंगे। अत: न सिर्फ हमारे देश के नेताओं बल्कि लोगों को भी समझने और सम्भलने की जरूरत है, ऐसा न हो कि बहुत देर हो जाए।
अन्त में, ऐसे समय में जब विज्ञापनों के अभाव में या फिर कम प्रसार संख्या के चलते समाचार पत्र अथवा पत्रिकाएं साल-दो साल प्रकाशित होकर बन्द भी हो जाते हैं, ऐसे में वेद और भारतीय संस्कृति को समर्पित राष्ट्रीय मासिक पत्रिका दिव्ययुग का लगातार 13 वर्षों तक प्रकाशन किसी चुनौती से कम नहीं है, वह भी पूर्ण सात्विक सामग्री के साथ। अन्यथा वर्तमान में तो सनसनीखेज समाचारों का चलन ही ज्यादा है। लेकिन यह सम्भव हो पाया देशभर में मौजूद दिव्ययुग के उन सभी विचारशील और सुधि पाठकों के कारण, जिन्होंने पत्रिका के प्रति सदैव अपना स्नेह और विश्वास बनाए रखा। हमें पूर्ण विश्वास है कि भविष्य में भी हम सदैव अपने पाठकों के विश्वास पर खरा उतरेंगे। दिव्ययुग के 14 वें वर्ष में प्रवेश पर सभी पाठकों को बहुत-बहुत शुभकामनाएं और आभार ! - सम्पादकीय (दिव्ययुग- अप्रैल 2015)
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