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सफलता प्राप्ति के वैदिक सूत्र

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Vedic sources of success

ओ3म् यज्ञेन गातुमप्तुरो विविद्रिरे धियो हिन्वाना उशिजो मनीषिणः।
अभिस्वरा निषदा गा अवस्यव इन्द्रे हिन्वाना द्रविणान्याशत॥ ऋग्वेद 2.21.5॥

अर्थ- (उशिजः) सफलता प्राप्ति की कामना रखने वाले (मनीषिणः) मननशील बुद्धि वाले लोग (धियः) अपनी बुद्धियों को (हिन्वानाः) गति देते हुए (अप्तुरः) भाँति-भाँति के कर्मों में लगे रहने वाले होकर (यज्ञेन) यज्ञ से (गातुं) सफलता-प्राप्ति के मार्ग को (विविद्रिरे) प्राप्त करते हैं (अवस्यवः) भांति-भांति की रक्षा चाहने वाले वे (गाः) अपनी वाणियों को (इन्द्रे) ऐश्‍वर्यशाली, बलशाली प्रभु में (हिन्वानाः) लगाते हुए (द्रविणानि) विविध प्रकार के ऐश्‍वर्यों को (आशत) प्राप्त करते हैं। प्रभु में अपनी वाणियाँ किस प्रकार लगाते हुए? (अभिस्वरा) ऊँचे सुन्दर स्वर से और (निषदा) एकान्त में बैठ कर शान्ति-पूर्वक गम्भीर विचार द्वारा।

इस मन्त्र में जीवन में सफलता कैसे प्राप्त की जा सकती है, यह बताया गया है। कामयाबी किन्हें मिल सकती है? मन्त्र उत्तर देता है- ‘उशिजः’- जिनके भीतर कामना हो। जिनमें कामना ही नहीं, जो कुछ करना ही नहीं चाहते, ऐसे निकम्मों को सफलता कहाँ मिल सकती है? ‘मनीषिणः’- सफल वे हो सकते हैं जो मननशील बुद्धि वाले हों। निर्बुद्धि को सफलता प्राप्त नहीं हो सकती। ‘धियो हिन्वानाः’- जो अपनी बुद्धियों को हरकत देते रहते हों। जो बुद्धियों से काम ही नहीं लेते उनके पास पैनी-से-पैनी बुद्धि होने पर भी उन्हें सफलता नहीं मिल सकती। ‘अप्तुरः’- जो भाँति-भाँति के काम करते रहते हैं। जो लोग खाली विचार ही करते रहेंगे, अपने विचारों के अनुसार कार्य नहीं करेंगे ऐसे हवाई किले बनाते रहने वालों को भी जीवन में कामयाबी नहीं मिल सकती। ‘यज्ञेन’ जो अपने कामों को यज्ञ समझकर करते हैं, पवित्र भावना से अपना धर्म और कर्त्तव्य समझते हुए परोपकार की भावना से अपने कर्म करते हैं, उनका ही जीवन सफल-जीवन बन सकता है। उनके लिये ‘गातुं’-जीवन का मार्ग सरल और निष्कण्टक हो सकता है। जीवन को पूर्ण सफल और कृतकार्य बनाने के लिये हमें एक और बात करनी होगी। ‘इन्द्रे गाः हिन्वानाः’ परमात्मा में अपनी वाणियाँ लगा देनी होंगी। किस विधि से प्रभु में अपनी वाणियाँ लगायें? ‘अभिस्वरा’- भक्तिपूर्वक ऊँचे और सुन्दर स्वर से प्रभु की महिमा के, अपना और प्रभु का सम्बन्ध बताने वाले गीत गाओ। और ‘निषदा’- एकान्त में बैठकर गम्भीरता से आत्म-निरीक्षण करो और प्रभु की विभूतियों पर विचार करो। इस प्रकार करने से तुम्हें जीवन में सब प्रकार के आत्मिक और भौतिक ऐश्‍वर्य प्राप्त होंगे और तुम्हारे भीतर जो ‘अवस्यवः’- सब प्रकार का रक्षण चाहने की भावना है वह पूरी हो जायेगी। तुम्हारी सब ओर से उन्नति ही उन्नति, सफलता ही सफलता होगी। तुम्हें किसी ओर से भी किसी प्रकार का भय नहीं रहेगा।

सफलता चाहने वाले मनुष्य! अपने जीवन को यज्ञमय बनाकर बुद्धिपूर्वक सत्कर्मों में लग जा और अपनी वृत्तियों को प्रभु में लगा दे।

ओ3म् दृते दृं ह मा मित्रस्य मा चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षन्ताम्।
मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे। मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे॥ यजु. 36.18॥

अर्थ- (दृते) विघ्न और बाधाओं का विदारण करने वाले हे परमात्मन्! (मा) मुझे (दृं ह) दृढ़ बनाइये (सर्वाणि) सब (भूतानि) प्राणी (मा) मुझे (मित्रस्य) मित्र की (चक्षुषा) आँख से (समीक्षन्ताम्) देखें (अहम्) मैं (सर्वाणि) सब (भूतानि) प्राणियों को (मित्रस्य) मित्र की (चक्षुषा) आँख से (समीक्षे) देखूं। हम सब परस्पर एक दूसरे को (मित्रस्य) मित्र की (चक्षुषा) आँख से (समीक्षामहे) देखें।

यदि हम अपने आपको दृढ़ बनाना चाहते हैं, शक्ति से भरा हुआ तथा प्रत्येक प्रकार की बाधा और रुकावट के आगे डटकर खरा हो जाने वाला बनाना चाहते हैं, तो हमें भगवान् का आश्रय लेना चाहिए। भगवान् दृति हैं। वे हर प्रकार के विघ्न और बाधाओं का विदारण कर देते हैं। वे प्रत्येक बाधा का, हरेक रुकावट का, विध्वंस कर देते हैं। उनकी शक्ति के आगे कोई बाधा, कोई रुकावट ठहर नहीं सकती। उनकी शरण में जाने से हमें भी प्रभु की शक्ति मिलेगी। प्रभु से शक्ति प्राप्त करके हम भी इतने दृढ़ हो जायेंगे कि हमारे आगे कोई विघ्न-बाधा ठहर नहीं सकेगी। हम सब विघ्नों, सब बाधाओं और सब रुकावटों का विदारण करने वाले बन जायेंगे। ऐसे शक्तिशाली बनकर हम संसार में सब प्रकार की सफलता प्राप्त करने वाले बन जायेंगे।

सफलता प्राप्ति का एक दूसरा उपाय और है। यदि संसार में कोई भी हमारा शत्रु न रहे, सब हमारे मित्र बन जायें तो कोई भी हमारी उन्नति और सफलताओं में बाधा नहीं डालेगा, प्रत्युत सभी हमारी सहायता करेंगे। इसीलिए भगवान् से प्रार्थना की गई कि हे प्रभो! ऐसी कृपा करो कि संसार के सब प्राणी मुझे मित्र की आँख से देखें, सब मेरे मित्र बन जायें और मैं भी सब प्राणियों को मित्र की आँख से देखूँ, मैं भी सबका मित्र बन जाऊँ। इस प्रकार हम सभी एक दूसरे के मित्र बनकर आपस में सबको मित्र की दृष्टि से देखें। हम सब परस्पर एक दूसरे से प्रेम का बरताव करें। हममें से कोई किसी से द्वेष और शत्रुता न करे।

जब इस धरती पर रहने वाले हम सब मनुष्य जाति, रंग और देश का भेद भुलाकर आपस में मित्र बन जायेंगे तो कोई किसी की उन्न्नति और सफलता में बाधा उपस्थित नहीं करेगा। सब सबके स्नेही भाई बनकर परस्पर एक दूसरे को उन्नत और सुखी बनाने में सहयोग करेंगे। तब यह धरती स्वर्ग और इस पर रहने वाले नर-नारी स्वर्ग में रहने वाले बन जायेंगे। - आचार्य प्रियव्रत वेदवाचस्पति

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