सत्य की उपलब्धि में शिक्षा दूसरी सीढी है। शिक्षा क्या है? शिक्षा भी दो शब्दों से मिलकर बना है। संस्कृत के शिक्ष् शिक्षणे धातु से बना है। शिक्ष्यते क्षम्यते सा शिक्षा, शिक्षा वह है जिससे जीवन में स्थिरता, धैर्य और सहनशीलता आ जाए। जब वह सक्षम बन जाता है, अथर्व बन जाता है, तो वह दीक्षा का अधिकारी होता है। इतना ही नहीं बल्कि आचार्य दीक्षान्त समारोह से पहले ब्रह्मचारियों की परीक्षा लेता था। कहा जाता है कि एक आचार्य के गुरुकुल में अनेकों ब्रह्मचारी विद्याध्ययन करते थे। उनमें से तीन ब्रह्मचारियों की परीक्षा ली गई। विद्या प्राप्ति करने के उपरान्त तीनों ब्रह्मचारी शाम के समय घर जाने लगे। तीनों ने गुरु के समीप जाकर गुरु के चरण छूकर आशीर्वाद लिया। गुरु ने कहा तथास्तु, कल्याणमस्तु कहकर आशीर्वाद दिया।
शाम को थोड़ा सूर्य की किरणें धीमी होने लगी। लगता था जल्दी सायं हो जाएगी। तीनों आगे बढ रहे हैं। रास्ते में एक स्थान पर कुछ कांटे पड़े हुए थे। तीनों ब्रह्मचारियों में से दो तो उन्हीं के ऊपर चढकर आगे निकल गये, लेकिन उन्हीं में से एक ने धीरे से उन कांटों को उठाकर किसी एक नियत स्थान पर रख दिया तब वह आगे बढा। जैसे ही वह आगे बढ़ा ही था कि एक झाड़ी के पीछे से उनके आचार्य (गुरु) निकल करके आगे आए और कहा कि मेरे पुत्रो ! इधर आओ ! जो आगे चले गए, उनको कहा कि अभी तुम्हारी शिक्षा पूरी नहीं हुई है। जो बाद में गया, जिसने कांटों को उठाकर किसी अन्य नियत स्थान पर रखा उसकी शिक्षा पूरी हो चुकी है वह जा सकता है। क्योंकि उसने कांटों को रास्ते से हटाया है, जो आज कांटों को हटा सकता है वह कल शान्ति के फूल भी बो सकता है। क्योंकि उसकी विद्या (ज्ञान) जीवन में उतर गयी है। वह समाज में, घर में तथा जीवन में शान्ति और सत्य की प्राप्ति कर सकता है।
आचार्य ने देखा कि ब्रह्मचारी अब सक्षम हो गया है, ज्ञान जीवन में उतर चुका है, सहज हो गया है, सरल हो गया है, नम्र हो गया है। दक्षता का गुण अब जीवन में उतर गया है। क्योंकि विद्या का फल सुख प्राप्त कराना है-
विद्या ददाति विनयं, विनयात् याति पात्रताम्।
पात्रत्वाद् धनमाप्नोति धनात् धर्मं तत: सुखम्॥
अर्थात् विद्या नम्रता देती है, नम्रता से योग्यता आती है, योग्यता से धन मिलता है, धन से धर्म की प्राप्ति होती है। उसके बाद सुख मिलता है। सुख की प्राप्ति के लिए बहुत परिश्रम करना पड़ता है। सुख के मूल में विद्या ही है। विद्या नम्रता देती है। मनुष्य सरल बन जाता है, क्योंकि विद्या (ज्ञान) जीवन में उतर गयी है। वह शास्त्र को केवल पढा ही नहीं, बल्कि शास्त्र को जीया है। शास्त्र कितना भी पढ लेना, ज्ञान कितना भी हासिल कर लेना, लेकिन जब तक ज्ञान अन्दर नहीं उतरेगा तब तक वह ज्ञान व्यर्थ है, थोथा ज्ञान है। अब वह स्नातक बन गया, सक्षम बन गया।
सत्य प्राप्ति की तृतीय सीढ़ी है दीक्षा। दीक्षा शब्द संस्कृत के दिक्ष् धातु से बना है। जिसका अर्थ है दीक्ष्यते क्षीयते यया सा दीक्षा अर्थात् जिसके द्वारा गुणों की वृद्धि होती है और दोष क्षीण होते हैं, उसे दीक्षा कहते हैं। जब ब्रह्मचारी या ब्रह्मचारिणी ने ज्ञान रूपी जल से स्नान कर लिया, तब यह स्नातक बन जाते हैं। तब आचार्य अपने अन्तेवासी शिष्य को दीक्षान्त उपदेश प्रदान करता है और वह उपदेश जीवन का सार होता है, निचोड़ होता है।
आचार्य उस समय समावर्तन संस्कार करता है और दीक्षान्त उपदेश देते हुए कहता है कि हे वत्स ! माना कि मैंने तुम्हें सम्पूर्ण विद्या से युक्त कर दिया, परन्तु यह योग्यता तभी तक स्थिर रहेगी जब तक जीवन में स्वाध्याय होगा। सर्वप्रथम कहा- सत्यं वद। अर्थात् सदा सत्य बोलना, सत्य में जीना। धर्मं चर अर्थात् धर्म का आचरण करना, धर्म की साधना करना। धर्म की शिक्षा नहीं बल्कि धर्म की साधना होती है। और कहा- स्वाध्यायान्मा प्रमद:। अर्थात् स्वाध्याय में कभी प्रमाद मत करना। चाहे कैसी भी स्थिति क्यों न हो स्वाध्याय को मत छोड़ना। स्वाध्याय अर्थात् अपना अध्ययन करना कि मैं कौन हूँ, कहाँ से आया हूँ और कहाँ जाऊँगा? मुझे क्या करना चाहिये। एतत् चिन्त्वा मुहुर्मुहु। ऐसा बार-बार चिन्तन करना चाहिये। यह हमारी प्राचीन शिक्षा पद्धति होती थी। इससे मनुष्य का सर्वांगीण विकास होता था और एक स्वच्छ समाज का निर्माण होता था।
आज हर माता-पिता की यही इच्छा होती है कि हमारा बेटा पढ लिखकर किसी तरह डॉक्टर या इंजीनियर बन जाये। कोई नहीं चाहता कि मेरा बेटा धर्मात्मा, चन्द्रशेखर, भगतसिंह बन जाये। बने जरूर लेकिन मेरे घर में नहीं बल्कि पड़ोसी के घर का पुत्र बने। अब वह डॉक्टर या इंजीनियर बन भी जाये तो क्या वह वास्तव में धर्म का आचरण करता हुआ इलाज करेगा या नहीं। इंजीनियर बन भी जाये तो क्या कह सकते हैं कि वह नदी का पुल बनाए या धन का पुल बनाए। क्योंकि उसकी नींव धन पर टिकी है। भवन भी धन का है, तो फिर उसमें रहने वाले कैसे धर्म की बात कर सकते हैं!
पहले एक वाक्य कहा जाता था- सादा जीवन उच्च विचार। आज बिल्कुल उल्टा है। विचार चाहे कैसे ही हों लेकिन जीवन उच्च होना चाहिए। ऐसे ऊँचे हाई-फाई जीवन को देखकर मन के अन्दर हीनता के भाव जागृत हो जाते हैं। वह विद्यार्थी औरों की जीवन शैली देखता है कि ऊँचे घर के लड़के हैं, बड़ी-बड़ी कारें लेकर आते हैं और लेपटाप मोबाईल लेकर आते हैं, उन्हें देखकर वह भी वैसा ही बनना चाहता है। क्योंकि संगति का असर पड़ता है। वह भी चाहता है कि कोई गर्ल फ्रेण्ड हो, लम्बी कार हो, अपनी गर्लफे्रण्ड को लुभा सके, मँहगी गिफ्ट दे सके। अब समस्या कि अपने माता-पिता से तो रुपये नहीं मांग सकता और अपनी प्रेमिका को भी खुश रखना चाहता है तो अब करे तो करे क्या? अब उसने अपने माँ बाप के आंखों में धूल झोंककर, समाज के आंखों में धूल झोंककर पथभ्रष्ट होकर डकैती की राह को चुन लिया। चोरी-डकैती, जघन्य अपराध और आवारागर्दी में उसके कदम बहक गए। माँ-बाप को पता नहीं कि हमारा बेटा पढ रहा है या क्या कर रहा है। जब थाने में रिपोर्ट लिखी जाती है और किसी अखबार में नाम आता है तब छाती पीट-पीटकर रोते हैं। तो क्या यही शिक्षा है?
आज शिक्षा के केन्द्र बदनाम होते जा रहे हैं। इसके लिए सरकार को ठोस कदम उठाने चाहिएं। छात्र एवं छात्राओं के एक जगह एक साथ पढने की व्यवस्था बन्द होनी चाहिये। छात्र और छात्राओं के लिये शिक्षालय अलग-अलग हों। छात्रों को पढ़ाने के लिये अध्यापक और छात्राओं को पढ़ाने के लिए अध्यापिकाएँ अलग-अलग चरित्रवान एवं विद्वान हों। शिक्षा का व्यवसायीकरण न होकर जीवनोपयोगी हो, सरलीकरण हो, जिससे मानव समाज समुन्नत हो और इसका चहुँमुखी विकास हो। मैकाले की शिक्षा पद्धति खत्म हो। आधुनिक शिक्षा तो हो लेकिन अन्धानुकरण शिक्षा न हों जिससे कि हम अपनी संस्कृति, संस्कार और सभ्यता को भी भूल जाएँ। ऐसा होगा तभी शिक्षा की सुगन्ध फैलेगी और एक स्वस्थ समाज का निर्माण हो सकेगा। - आचार्य चन्द्रमणि याज्ञिक (दिव्ययुग- अप्रैल 2015)
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