ओ3म् अप्रतीतो जयति सं धनानि प्रतिजन्यानि उत या सजन्या।
अवस्यवे यो वरिवः कृणोति ब्रह्मणे राजा तमवन्ति देवाः॥ (ऋग्वेद 4.50.9)
ऋषिः वामदेवः॥ देवता-बृहस्पतिः॥ छन्दः निचृत्त्रिष्टुप॥
विनय- पीछे कदम न हटाने वाला मनुष्य ही विजय को प्राप्त करता है। ऐसा ही मनुष्य विजयी होकर ऐश्वर्यों को पाता है। प्रतिजन से सम्बन्ध रखने वाले वैयक्तिक ऐश्वर्य तथा जन-समूह से सम्बन्ध रखने वाले सामाजिक व राष्ट्रीय ऐश्वर्य उन्हीं जनों या जनसमूहों को प्राप्त होते हैं जिनमें कि चिरकाल तक लगातार उद्योग करते जाने की शक्ति होती है, जिनमें लगन और धैर्य होता है, जिनमें अड़े रहने व डटे रहने का गुण होता है, जोकि कभी कदम पीछे हटाना नहीं जानते। जिनमें यह गुण नहीं है ऐसे व्यक्ति या राष्ट्र के लिए संसार में कोई ऐश्वर्य नहीं है। अतः हे मनुष्यो! तुम धैर्य रखना सीखो। हे राष्ट्रो! तुम मिलकर अन्त तक डटे रहना सीखो।
पर इसका दूसरा पार्श्व भी है। डटे रहना अन्याय के विरुद्ध और न्याय के लिए ही चाहिए। परन्तु प्रायः दुनिया के सब सत्ताधारी मनुष्य स्वार्थवश हो अन्याय के लिए भी डटे रहते हैं। ऐसे डटे रहने वालों का तो वे चाहे कितने ही बड़े शक्तिशाली हों, विनाश ही होता है। जगत् के संचालक देव लोग तो उसी सत्ताधारी राजा की रक्षा करते हैं जोकि न्याय के लिए झुकने वाला होता है, जोकि सत्य उपदेश देने वाले की बात को नम्रता से सुनता है, जो संरक्षण चाहने वाले सच्चे ब्राह्मणों (विद्वानों) की सदा पूजा किया करता है। सत्ताधारी लोग यदि अपना कल्याण चाहते हैं तो उन्हें चाहिए कि वे दुनियावी कोई सत्ता न रखने वाले, सबका भला और रक्षण चाहने वाले, नम्र, ज्ञानी पुरुष उन्हें आकर जो कुछ सुझावें उसे वे सत्कारपूर्वक सुनें और उनकी शुभ सलाह को वे तुरन्त पूरा करें।
जरूरत इस बात की है कि निर्बल और पद-दलित लोग सत्य पर अड़ना सीखें और सत्ताधारी लोग नमना सीखें। इससे भी अधिक जरूरत यह है कि प्रत्येक मनुष्य सदा देखे कि वह कहीं बलवान्, अन्यायी के सामने झुक तो नहीं जाता है, कदम पीछे तो नहीं हटा लेता और असत्ताधारी सच्चे पुरुष के सामने अड़ा तो नहीं रहता?
शब्दार्थ- अ+प्रति+इतः=पीछे कदम न हटाने वाला ही धनानि=ऐश्वर्यों को सं जयति=जीतता है, वे ऐश्वर्य चाहे प्रति-जनानि=वैयक्तिक हों अथवा या सजन्या=वे सामूहिक हों और देवाः=देव तम्=उस सत्ताधारी राजा की अवन्ति=रक्षा करते हैं यः राजा=जो राजा अवस्यवे=रक्षा चाहने वाले ब्रह्मणे=सच्चे ब्राह्मणों की वरिवः कृणोति=पूजा किया करता है, उनके आगे झुकता है। - आचार्य अभयदेव विद्यालंकार
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