ओ3म् ऋचो अक्षरे परमे व्योमन् यस्मिन्देवा अधिविश्वे निषेदुः।
यस्तन्न वेद किमृचा करिष्यति य इत्तद् विदुः त इमे समासते॥ (ऋ. 1.164.39 अथर्व. 9.10.18)
ऋषि दीर्घतमा॥ देवता विश्वेदेवाः॥ छन्दः भुरिक्त्रिष्टुप्॥
विनय- हे मनुष्य! यदि तूने सब ऋचाओं की एक आधारभूत वस्तु को नहीं जाना है तो वेद की ऋचाएँ पढ़कर तू क्या करेगा? उसके जाने बिना वेद पढ़ना निष्फल है, समय खोना है। वेद उसे ही पढ़ने चाहिएँ जिसे वेदमन्त्रों के एक प्रतिपाद्य विषय उस अक्षरतत्त्व को जानने की इच्छा है जो कि ‘परम व्योम’ है, एक परम आकाश है। वह इस प्रसिद्ध आकाश से भी उत्कृष्ट है। वह इतना व्यापक आकाश है कि यह सब विविध ब्रह्माण्ड उसमें ओत-प्रोत है। इसीलिए वह ‘परम व्योम’ कहाता है। उसे ज्ञानी लोग ‘ओ3म्’ इस अक्षर से भी पुकारते हैं। वह विविध प्रकार से सबकी रक्षा करने वाला (व्योम), अविनाशी (अक्षर) तत्त्व है। सब देवता, सब संसार उस एक में समाया हुआ है। प्रत्येक वेदमन्त्र किसी न किसी देवता की स्तुति करता है, परन्तु ये वेद-प्रतिपाद्य सबके सब देवता उस एक ही देव में ठहरे हुए हैं। इसलिए यदि उस एक देव को जानने की, उसे पाने की इच्छा है, तभी वेदमन्त्रों को पढ़ो। वेदमन्त्रों को इसलिए मत पढ़ो कि उनमें से किन्हीं अपने अभीष्ट विचारों को निकालेंगे या उसके ऐसे अर्थ करेंगे जिनसे कुछ भलाई सिद्ध होगी। वेद का ऐसा पढ़ना तो निष्फल ही नहीं, किन्तु पाप है। हमें वेदमन्त्रों के पास इस पवित्र भाव से पहुँचना चाहिए कि ये हमें उस एक देव के पवित्र चरणों में पहुंचाने के साधन होंगे। प्रत्येक वेदमन्त्र में हमें उस अक्षर प्रभु का प्रतिबिम्ब दिखाई देना चाहिए। इसलिये वे पुरुष जो उस तत्व को जानते हैं और जो यह जानते हैं कि सब ऋचाएँ उस अक्षर में हैं, ऐसे ज्ञानी लोग समासीन हो जाते हैं, ठीक तरह स्थित हो जाते हैं और यह अवस्था केवल ऐसे ही ज्ञानी लोगों को प्राप्त होती है। ऐसे ही ज्ञानी लोगों को शान्ति प्राप्त होती है, सब संशयों से रहित स्वस्थता और आनन्द की एक अवस्था प्राप्त हो जाती है। सब संशयों से रहित स्वस्थता और आनन्द की एक अवस्था प्राप्त हो जाती है। वेदमन्त्रों के ध्यान से वे लोग समाहित (समाधिस्थ) हो जाते हैं तथा उस अक्षर में लीन होने का परमानन्द पाते हैं। वहाँ ऋचाओं का पढ़ना सफल हो जाता है।
शब्दार्थ- ऋचः=ऋचाएँ, वेदमन्त्र अक्षरे=उस अक्षर अविनाशी परमेव्योमन्=परम आकाश में आश्रित हैं यस्मिन्=जिसमें विश्वे देवाः=सब के सब देव अधि निषेदुः=ठरहे हुए हैं। इसलिए यः=जो मनुष्य तत्=उस अक्षर को न वेद=नहीं जानता, वह ऋचा=ऋचाएँ, वेदमन्त्र पढ़कर किं करिष्यति=क्या करेगा और ये=जो तत् विदुः=उसे जानते हैं, ते इत् इमे=वे ही ज्ञानी लोग समासते=समासीन होते हैं। स्वस्थ, स्वरूपस्थ, आत्मानन्द में स्थित होते हैं। - आचार्य अभयदेव विद्यालंकार (दिव्ययुग- नवंबर 2012)
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