ओ3म् सुविज्ञानं चिकितुषे जनाय सच्चासच्च वचसी पस्पृधाते।
तयोर्यत्सत्यं यतरदृजीयस्तदित्सोमो अवति हन्त्यासत् ॥ (ऋग्वेद 7.104.12, अथर्व. 8.4.12)
ऋषिः वसिष्ठ:॥ देवता सोम: ॥ छन्दः विराट् त्रिष्टुप् ॥
विनय- मनुष्य जब वास्तविक ऊँचे ज्ञान को विवेकपूर्वक जानना चाहता है, जब वह सत्यज्ञान की खोज में होता है, तब उस विवेकशील पुरूष के सामने सत् और असत् दोनों स्पर्धा करते हुए आते हैं । दोनों उसके सामने अपनी-अपनी श्रेष्ठता दिखाना चाहते हैं, दोनों उसके हृदय पर कब्जा करना चाहते हैं। कभी सत् प्रबल होता है, कभी असत् प्रबल होता है । इस तरह देर तक यह स्पर्धा, यह लड़ाई, चलती रहती है । जब उस पर किन्हीं कुटिल और असत्य से काम निकालने वाले लोगों का प्रभाव पडता है । तब वह असत्यता को ही काम की चीज समझ लेता है । और यदि वह सत्यग्रन्थों को पढता है या सच्चे, निष्कपट, पवित्र लोगों के संग में आता है तो सत्य की महत्ता को समझने लगता है । फिर किसी जबरदस्त बलवान् नीतिनिपुण पुरुष का प्रभाव उसे यह सिखला देता है कि संसार में असत्य के बिना काम नहीं चलता है, पर पुन: कोई महान् सत्यनिष्ठ पुरुष उसे सत्य का पुजारी, सत्य के पीछे पागल बना देता है । इस तरह सत् और असत् दोनों प्रकार के वचन (ज्ञान) उसपर प्रभाव जमाने के लिए स्पर्धा करते रहते हैं, पर मनुष्य को यह पता होना चाहिए (और विवेकी पुरुष को यह धीरे-धीरे पता हो जाता है) कि मनुष्य के हृदय में बैठा हुआ सोम परमेश्वर तो सदा सत् की, अकुटिल की ही रक्षा कर रहा है और असत् का नाश कर रहा है । जो लोग इस सत्य से अभिज्ञ हो जाते हैं वे तब सोम की शरण में जाना चाहते हैं और जो सचमुच सर्वोच्च सत्य ज्ञान की खोज में लगे हुए हैं इन्हें इसी हृदयस्थ सोम देव की शरण जाना चाहिए, तभी उन्हें अपना अभीष्ट मिलेगा। क्योंकि सब भूतों के हृद्देश में बैठे हुए सोम ईश्वर के आश्रय को मनुष्य जितना ही अधिक सर्वतोभाव से ग्रहण करता है, उतना ही उसमें असत्य का नाश होकर सत्य और निष्कपटता बढती जाती है और उसमें सुविज्ञान भरता जाता है । अत: इस सत् और असत् की लडाई में मनुष्य जितना ही सोम का आश्रय लेगा, उतनी ही जल्दी उसमें सत्य की विजय होगी और उसे शान्ति मिलेगी । हर एक जीव की इस सत् और असत् की स्पर्धा में जल्दी या कितनी ही देर में अन्तत: सोम परमेश्वर द्वारा विजय तो सत्य की ही होनी निश्चित है, क्योंकि वे सोम सदा सत्य का, सत्य वचन का, सत्य व्यवहार का रक्षण कर रहे हैं और असत्य का, असत्य भाषण का, असत्य व्यवहार का हनन कर रहे हैं।
शब्दार्थ- सुविज्ञानम्= उत्तम विशेष ज्ञान को चिकितुषे= जानना चाहने वाले विवेकी जनाय=मनुष्य के लिए सत् च असत् च=सत्य और असत्य वचसी=वचन या ज्ञान पस्पृधाते=परस्पर स्पर्धा करते हैं । तयो:=इन दोनों में यत्सत्यम्=जो सत्य है यतरत् ऋजीय: =जौन-सा सरल, अकुटिल, छलरहित है तत् इत्= उसे ही सोम परमेश्वर अवति=रक्षा करता है असत् हन्ति=और असत् का नाश करता है । - आचार्य अभयदेव विद्यालंकार (दिव्ययुग - अगस्त 2013)
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