विशेष :

व्यावहारिक पर्यावरण

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यजुर्वेद वाङ्मय में पर्यावरण : व्यावहारिक पर्यावरण

शतपथ ब्राह्मण में पिता तथा पुत्र के मधुर प्रेम सम्बन्ध को दृष्टिगत रखते हुए उल्लेख आता है कि जैसे प्रजापति अपने प्रिय पुत्र को गोद में रखता है, वैसे ही पिता अपने पुत्र को गोद में रखता है- प्रजापतिरेवैतं प्रियं पुत्रमुरस्याधत्तऽइति स यो हैतदेवं वेदा हैवं प्रिय पुत्रमुरसि धत्ते॥44

पिता तथा पुत्र के अत्यधिक प्रेम सम्बन्ध पर बल देते हुए उल्लेख किया गया है कि पिता तथा पुत्र में कोई भेद नहीं है- य उ वै पुत्र: स पिता य: पिता स पुत्र:॥45

पुत्र पहले पिता के सहारे जीते हैं पश्‍चात पिता, पुत्र के सहारे (बुढापे में) जीते हैं- उत्तरवयसे पुत्रान्पितोपजीवत्युप ह वाऽएनं पूर्व वयसे पुत्रा जीवन्त्युपोत्तरवयसे पुत्रान्जीवति य एवमेतद्वेद॥46

पिता को पुत्र के लिए सुखकारी कहा गया है-
पितेवैधि सूनवऽआ सुशेवा॥47

पिता पुत्राय स्योन: सुशेव॥48

माता-पिता द्वारा पुत्र की रक्षा करने का उल्लेख भी प्राप्त होता है- पुत्रं पितरौ आवथु:॥49

निम्न मन्त्रों में माता-पिता तथा सन्तानों के पारस्परिक व्यवहारों का उल्लेख है-
ये समाना: समनसो जीवा जीवेषु मामका:।
तेषां श्रीर्मयि कल्पतामस्मिल्ँलोके शतं समा:॥50

जो इस लोक में जीवते हुओं में समान गुण कर्म स्वभाव वाले, समान धर्म में मन रखने वाले मेरे जीते हुए माता-पिता आदि हैं, उनकी लक्ष्मी मेरे समीप सौ वर्ष पर्यन्त समर्थ होवे।

अ़िङ्गरसो न: पितरो नवग्वा अथर्वाणो भृगव: सोऽम्यास:।
तेषां वयं सुमतो यज्ञियानामपि भद्रे सौमनसे स्याम॥51

जो हमारे सब विद्याओं के सिद्धान्तों को जानने और नवीन प्रगति करने वाले, अहिंसक तथा कभी शत्रु से पराजित न होने वाले, परिपक्व विज्ञान युक्त, ऐश्‍वर्य पाने योग्य पितादि ज्ञानी लोग हैं, उन यज्ञ करने वाले पुरुषों की शुभ मति और कल्याणकारी विचारधारा में हम सदा रहने वाले हों।
अन्नं पयो रेतोऽस्मासु धत्त॥52

(हे माता पिता आदि लोगो!) हमारे बीच में प्रजा, अन्न, दूध तथा शक्ति को धारण करो।

माता-पिता सदैव सन्तानों का हित चाहते हैं। सन्तानों के लालन-पालन में माता-पिता को बहुत कष्ट सहना पड़ता है। वे कर्त्तव्यभाव से यह सब सहन करते हैं। सन्तानों को भी इसी प्रकार आगे चलकर कर्त्तव्यभाव से माता-पिता की सेवा करनी चाहिए तथा उनको किसी प्रकार का कष्ट नहीं होने देना चाहिए। वृद्ध माता-पिता के अनुभवों से लाभ उठाकर पारिवारिक पर्यावरण को अच्छा रखा जा सकता है।

वैदिककाल में संयुक्त परिवार होते थे। संयुक्त परिवार में पति-पत्नी तथा बच्चों के अतिरिक्त माता-पिता, भाई-बहिन, ताऊ-ताई, चाचा-चाची तथा अन्य सम्बन्धी भी होते हैं। ‘कुल‘ शब्द एक संयुक्त परिवार का द्योतक है, जो अनेक स्थलों पर प्रयुक्त हुआ है।53 ‘कुल‘ में परिवार के सभी सदस्य पिता या बड़े भाई की प्रधानता में अविभक्त कुटुम्ब के रूप में रहते थे।54 पूरे परिवार को अनुशासन में रखने वाले ‘गृहपति‘ को ‘श्री‘ कहा गया है- श्रीर्वै गार्हपतम्॥55 ‘गृहपति‘ ही परिवार का ‘शिर‘ होता है- श्रीर्हि वै शिरस्तस्याद्योऽर्द्धस्य श्रेष्ठो भवत्यसावमुष्यार्द्धस्य शिर इत्याहु:॥56

संयुक्त परिवार में सम्मिलित रहने से सदस्यों में प्रेम, त्याग एवं सहयोग की भावनाएँ बढती है, जिससे राष्ट्र एवं समाज को अच्छे नागरिक मिलते हैं।

संयुक्त परिवार में अधिक सदस्य होने से कार्यों का विभाजन सरलता से किया जा सकता है, बच्चों का लालन-पालन भी अनायास हो जाता है तथा सभी एक दूसरे के सुख-दु:ख में भागी बनते हैं।

परिवार में सुख-समृद्धि के लिए परस्पर प्रेम तथत्त स्वावलम्बन होना चाहिए-
इह रतिरिह रमध्वम् इह धृतिरिह स्वधृति: स्वाहा।
उपसृजन् धरुणं मात्रे धरुणो मातरं धयन्।
रायस्पोषमस्मासु दीधरत् स्वाहा॥57

अर्थात् इस परिवार में प्रेम हो। यहाँ सब प्रेम से रहें। यहाँ धैर्य तथा स्थिरता हो। यहाँ स्वावलम्बन हो। माता परिवार के लिए सन्तान को जन्म दे और सन्तान माता का दूध पीए। वह सन्तान हमारे परिवार में ऐश्‍वर्य की वृद्धि करे।

सुखी पारिवारिक जीवन के लिए प्रेम और स्नेह का वातावरण होना आवश्यक है। ऐसी स्थिति में ही सब परिवारजन प्रसन्न रहते हुए एक दूसरे का सहयोग कर सकते हैं। प्रेम का वातावरण सुख तथा शान्ति की सृष्टि करता है, आह्लाद और आनन्द देता है तथा नीरसता में सरसता का मनोहर वातावरण बनाता है। परिवार में धैर्य भी होना चाहिए। क्योंकि जीवन एक संग्राम है, इसमें सुख-दु:ख दोनों आते हैं । सुख सुखद होता है तथा दु:ख का धैर्यपूर्वक सामना करना चाहिए। परिवारजनों में स्वावलम्बन होने से वे अपने-अपने काम को स्वयं कर सकते हैं तथा परिवार के प्रति अपने उत्तरदायित्वों को निभा सकते हैं।

यजुर्वेद वा़ङ्मय में न केवल परिवार की व्यवस्था का संकेत मिलता है बल्कि माता, पिता, पुत्र आदि के परस्पर व्यवहार का भी निर्देश प्राप्त होता है और इसके मूल में प्रेम या स्नेह है। स्नेह या प्रेम के द्वारा व्यक्ति-व्यक्ति एक जैसा आचरण करते हुए संगठित हो जाते हैं। पारिवारिक सम्बन्धों की दृढता से भी परस्पर हितचिन्तन तथा आत्यन्तिक विकास का निरूपण किया जाता है। पारिवारिक पर्यावरण की शुद्धता हेतु प्रेम और परस्पर हित का अनुसन्धान ही आवश्यक होता है।
सन्दर्भ सूची
44. शतपथ ब्राह्मण - 9.2.3.50
45. शतपथ ब्राह्मण - 12.4.3.1
46. शतपथ ब्राह्मण - 12.2.3.4
47. यजुर्वेद संहिता - 14.3
48. शतपथ ब्राह्मण - 8.2.1.6
49. शतपथ ब्राह्मण - 5.5.4.26
50. यजुर्वेद संहिता - 19.46
51. यजुर्वेद संहिता - 19.50
52. यजुर्वेद संहिता - 19.48
53. शतपथ ब्राह्मण - 1.1.2.22,
2.1.4.4,11.5.3.11,3.4.2.27
54. वैदिक इण्डेक्स- ख, पृष्ठ 189
मैकडौनल एवं कीथ
55. शतपथ ब्राह्मण - 5.3.3.3
56. शतपथ ब्राह्मण - 1.4.5.5
57. यजुर्वेद संहिता - 8.51 (दिव्ययुग - सितम्बर 2014)

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