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विजयादशमी पर्व का सांस्कृतिक महत्व 1

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Cultural Significance of Vijayadashami Festival

भारत ऋषि एवं कृषि-प्रधान देश है। पर्व यहाँ की सांस्कृतिक चेतना के आधार रहे हैं। कई पर्व फसलों के साथ जुड़े हैं तो कई पर्व ऋतु-परिवर्तन ऐतिहासिक, घटनाओं और महापुरूषों के जीवनों से जोड़े गए हैं। पर्व जीवन में उत्साह, उल्लास एवं उमंग का संचार करते हैं। इन त्यौहारों से जीवन और समाज में मेलजोल व भाईचारा आता है। हमारा देश त्यौहारों का देश कहलाता है। यहाँ किसी न किसी पर्व का वातावरण हर दिन बना ही रहता है। इन पर्वों से सामाजिक एवं राष्ट्रीय एकता, संगठन और परस्पर भाईचारे का सन्देश मिलता है।

विजयादशमी पर्व समूचे देश में बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। वैदिक काल से ही इस त्यौहार का महत्व आकर्षण व विशेषता रही है। हमारे देश में मुख्य तीन ऋतुएँ होती हैं- सदी, गर्मी व वर्षा। वर्षा के कारण नदियाँ बाढ से उमड़ पड़ती हैं। चारों ओर पानी नजर आता है। आने-जाने के मार्ग बन्ध हो जाते हैं। प्राचीन काल में ऐसा होता था। आजकल तो इतने साधन, सुविधाएँ उपलब्ध हैं कि वर्षा ऋतु का सामान्य जीवन पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता। पहले के समय में इतने उन्नत साधन नहीं होते थे। किसान, व्यापारी और यात्री गाड़ी, रथ, नौका आदि साधनों से अपना आवागमन का कार्य चलाते थे। वर्षा के बन्द होते ही शरद ऋतु के आगमन पर व्यापार-यात्रा, कृषिकर्म सब-कुछ आरम्भ हो जाता था।

वर्षा ऋतु में गाड़ी, रथ व अन्य साधनों में जो जंग व रुकावट आ जाती थी, उन अस्त्र-शस्त्रों और साधनों को साफ व तेज किया जाता था। यात्रा और व्यापार के लिए वाहनों व साधनों को साफ-सुथरा बनाकर उपयोग के योग्य किया जाता था। सभी अपने-अपने कार्य की तैयारी में लग जाते थे। विजयाशदमी के दिन से व्यापार, यात्रा विजय और विदेश-गमन आदि आरम्भ हो जाते थे। लोग व्यापार-यात्रा से पूर्व यज्ञ-अनुष्ठान और पूजा आदि धार्मिक कार्यों को महत्व देते थे। परस्पर मिलकर मन-मुटाव दूर करके एक-दूसरे की सफलता के लिए मंगलकामनाएँ करते थे।

विजयादशमी का पर्व क्षत्रियों की विजय का त्यौहार कहलाता है। यह शक्ति-पूजा का पर्व है। शस्त्र-पूजा का विधान शास्त्र-सम्मत रहा है। शस्त्रेण रक्षिते राष्ट्रे शास्त्रचर्चा प्रवर्त्तते- जिस राष्ट्र में शौर्य, पराक्रम और वीरता की पूजा होती है, उसी राष्ट्र में शास्त्रों एवं धर्म ग्रन्थों का पठन-पाठन निर्विघ्न रूप से चलता है, इस पर्व का वैदिक स्वरूप ऐसा ही मिलता है। कालान्तर में अनेक रूढियाँ, घटनाएँ और किंवदन्तियाँ जुड़ती गई। सत्य व यथार्थ प्रेरक रूप छूटता गया।

वर्तमान में जो इस पर्व का रूप-स्वरूप दिखाई देता है, उसमें अनेक आडम्बर, विकृतियाँ और कल्पनाएँ आदि जुड़ गई हैं, जिससे वास्तविकता का बोध होना कठिन हो गया है। आज आम धारणा प्रचलित हैं कि विजयादशमी के अवसर पर श्रीराम द्वारा रावण पर विजय प्राप्त की गयी थी। विद्वानों तथा वाल्मीकि रामायण का इस तिथि पर मतभेद है।

श्रीराम द्वारा लंका-विजय भारत का सबसे बड़ा पराक्रम माना जाता है। शायद उनकी विजय-यात्रा इसी दिन आरम्भ हुई हो, इसीलिए हम भारतीयों का यह दिन विजय मुहूर्त बन गया हो। जो भी रहा हो, किन्तु जो आज लोक-प्रचलन चल रहा है, वह बड़ा प्रबल है। इन दिनों नगरों, ग्रामों और देश-विदेश सर्वत्र रामलीलाओं, देवी-पूजन, धार्मिक अनुष्ठान आदि की धूम मची होती है। कई दिनों तक रामलीला का मंचन होता है। बाल-वृद्ध सभी नर-नारी हर्षोल्लास के साथ सम्मिलित होते हैं। श्रीराम के जीवन-चरित्र और कार्यों का गुण-कीर्तन व मंचन होता है। दशहरे के दिन सभी बड़ी धूमधाम तथा सज-धज के साथ रावण-वध में भाग लेते हैं। ऐसा हर साल होता है।

सवाल यह है कि हमने इस पर्व से जीवन, व्यवहार व संसार के लिए कुछ शिक्षा और प्रेरणा ली है या नहीं? यदि नहीं ली तो यह पर्व मात्र रस्म, रिवाज व परम्परा है, जिसका निर्वाह हो रहा है। यह आज के मानव तथा समाज की दुःखद विडम्बना है कि सभी पर्व, रामलीलाएँ, कृष्णलीलाएँ, धार्मिक कर्म, तीर्थ कथा, प्रवचन, यात्राएँ आदि मेले और मनोरंजन का रूप लेते जा रहे हैं। लोग खाने, पीने, घूमने और तमाशा देखने के भाव से इन स्थानों पर जाने लगे हैं। चरित्र-निर्माण, जीवन-सुधार और विचार प्राप्ति का भाव छूटता जा रहा है। कागज का रावण हर साल जला दिया जाता है परन्तु असली रावण सदा जिन्दा बना रहता है तथा हर साल बढता, फलता-फूलता और फैलता जा रहा है। पहले एक रावण था, आज अनेक रावण गली, मोहल्ले और कदम-कदम पर मिल जायेंगे, जो घात लगाए बैठे हैं कि कब सीता मिले और उठाकर, चुराकर, भगाकर तथा फुसलाकर ले उड़ें। इस रावणवृत्ति पर जब तक हम राम-वृत्ति द्वारा विजय प्राप्त नहीं करते, तब तक इस पर्व की महत्त्वपूर्ण सार्थकता सिद्ध नहीं हो सकेगी। श्री राम का सम्पूर्ण जीवन आदर्श, कर्त्तव्य, बुद्धि, प्रेम, त्याग और निर्माण की प्रेरणा का सन्देश देता है। इन्हीं भावों से व्यक्ति, परिवार समाज एवं राष्ट्र उन्नत बनते हैं। यही इस पर्व की मूल चेतना है।

विजयादशमी के साथ नवरात्र-व्रत, उपवास, पूजा-पाठ, अनुष्ठान आदि का सम्बन्ध जोड़ा जाता है। इन क्रियाओं का हमारे जीवन और विचारों पर गहरा प्रभाव पड़ता है। जीवन को असद् वृत्ति से सद्वृत्ति की ओर तथा भगवद्-भक्ति की ओर लाने के लिए व्रत, पूजा, सत्संग यज्ञ आदि का महत्त्वपूर्ण योगदान है। नवरात्रों के माहात्म्य व फल का पुराण शास्त्रों में विस्तार से चिन्तन है। मैं यहाँ पर मात्र शारीरिक आयुर्वेदिक दृष्टि से, जो शरीर को निरोग बनाने में सहायक है, उसकी चर्चा कर रहा हूँ। इस शरीर में आठ चक्र और नौ द्वार हैं। ऋतु-परिवर्तन के अवसर पर शरीर के नौ द्वारों की स्वच्छता व शुद्धि की प्रेरणा भी इस नवरात्र में छिपी है यह तन, मन की शुद्धि का पर्व है। प्रकृति रूपी दुर्गा माँ के साथ जुड़ने का पावन अवसर है। नियम यह है कि जहाँ भी मल रुकता है, वहीं रोग उत्पन्न हो जाते हैं। जब भी ऋतु-परिवर्तन होता है तभी रोग आ घेरते हैं। यदि शरीर के नौ द्वारों को जल, उपवास, फलाहार निराहार आदि से स्वच्छ कर लिया जाए तो आने वाली ऋतु में व्यक्ति निरोग रह सकता है। जब ऋतु बदलती है, तभी नवरात्र आते हैं। आयुर्वेद भी यही कहता है कि खान-पान, दिन-चर्या और रहन-सहन के परिवर्तन से आयुपर्यन्त जीवन सुखी रहा जा सकता है। इस नवरात्र पर्व का यह वैज्ञानिक, व्यवहारिक व उपयोगी चिन्तन छूट रहा है। मात्र बाह्य-लोकाचार तथा आडम्बरों तक ही दृष्टि सीमित होती जा रही है। जो इस पर्व का मूल चिन्तन व सन्देश था वह छूट रहा है।

विजयादशमी पर्व के साथ दुर्गा-पूजा का महोत्सव बड़ी धूम-धाम से मनाया जाता है। बंगाल-प्रान्त में दुर्गा-पूजा बड़े भव्य स्तर पर होती है। बड़े-बड़े पण्डालों में दुर्गा की प्रतिमा का दिव्य आकर्षक रूप प्रदर्शित किया जाता है। लोग श्रद्धा-भक्ति और उत्साह के साथ पूजा-अर्चना में भाग लेते हैं। दुर्गा के नौ विशेष कार्यों के कारण अनेक नाम प्रचलित हैं। उन नामों व कार्यों की चर्चा न करके मात्र इस पर्व का जीवन और जगत् के लिए जो प्रेरणा और सन्देश है, उसका संक्षेप में चिन्तन रख रहा हूँ। जब भी इस संसार में अन्याय, अत्याचार और राक्षसी वृत्तियों का दमन दैवीय शक्ति से ही होता है। उसी दैवी शक्ति का नाम दुर्गा है। दुर्गा का एक अर्थ बुद्धि भी माना गया है। संसार में बुद्धि के बल की प्रार्थना की गई है। चाणक्य कहते हैं, परमात्मा तू मेरा सब-कुछ छीन लेना, बुद्धि मत छीनना। बुद्धि होगी तो मैं संसार में सब-कुछ प्राप्त कर लूँगा। गायत्री मन्त्री की प्रेरणा भी घियो यो नः प्रचोदयात् का सन्देश देती है।

आज लोग दुर्व्यसनों, दुर्गुणों और गन्दे आचार-विचार से अच्छी-भली बुद्धि को खराब कर रहे हैं। यदि मानव अपना और संसार का कल्याण चाहता है तो उसे पाप से पुण्य की ओर, असत्य से सत्य की ओर, राक्षसवृत्ति से दैवी वृत्ति की ओर अपने जीवन को लगाना चाहिए। जो आसुरी भावों और कर्मों की ओर बढते हैं, उनका अन्ततः विनाशकारी पतन होता है। जो चराचर में व्याप्त शक्ति पर आस्था व श्रद्धा रखकर जीवन-यात्रा चलाते हैं, उनके जीवनों में सुख, शान्ति, प्रसन्नता व आनन्द की प्रापित होती है। यही इस पर्व की संगति और सन्देश है।

संक्षेप में आज का युग वैज्ञानिक, तर्क और प्रमाण का युग है। हमारे जो पर्व, व्रत, अनुष्ठान और धार्मिक सामाजिक, रीति-रिवाज हैं उनका व्यावहारिक, उपयोगी विज्ञान-सम्मत, बुद्धि अनुकूल जो उज्जवल पक्ष है, जो जीवन और जगत् के लिए उपयोगी है, उसी का पालन करना चाहिए। जो इन पर्वों के पीछे जीवन-सन्देश दिए गए हैं उनके आचरण से ही हम अपना जीवन और जगत् सुखी शान्त प्रसन्न एवं मंगलमय बना सकते हैं। - डॉ. महेश विद्यालंकार (दिव्ययुग- अक्टूबर 2018)

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