26 फरवरी हिन्दू हृदय सम्राट वीर विनायक दामोदर सावरकर की पावन स्मृति में नमन का दिवस है। इसी दिवस साढे चार दशक पूर्व 1966 में वह महामानव अपनी नश्वर काया को स्वेच्छया विश्वात्मा के चरणों में समर्पित कर सदैव के लिये अमर हो गया था। उस युगपुरुष के प्रेरक चरित्र का वर्णन करते समय शब्दों का अभाव अनुभूत होता है। उसका समग्र जीवन त्याग, तपस्या, सिद्धान्तनिष्ठा का एक ऐसा महाकाव्य है कि जिसे अपने शब्दों की परिधि में बान्धने में व्यास अथवा वाल्मीकि सरीखा कोई महाकवि ही समर्थ हो सकता है। सावरकर का चरित्र एक ‘महाभारत’ है। महाभारत युद्ध तो मात्र उठारह दिन चला था, किन्तु सावरकर का जीवन संग्राम उनके जीवन के तेइसवें वर्ष से प्रारम्भ होकर 83 वर्ष अर्थात् साठ वर्षों के कालखण्ड तक अविराम चला। स्वदेश की स्वतन्त्रता की कामना को अपने मानस मन्दिर में संजोकर उन्होंने जो प्राण यज्ञ प्रारम्भ किया, उसमें उन्होंने कौन-कौन सी आहुति अर्पित नहीं की? अपना यौवन, अपना परिवार, अपना घर-द्वार, अपना शरीर, अपना सुख सर्वस्व सभी तो इस इस स्वातन्त्र्य यज्ञ में उन्होंने समर्पित किया। देश के स्वातन्त्र्य हेतु अपनी सम्पूर्ण आयु को समिधा बनाकर अर्पित करना ही उसका अटल संकल्प बना। स्वदेश के प्रति प्रेम की भावना से प्रेरित होकर सक्रिय रहे देशभक्त तो विश्व में अनेक हुए हैं।किन्तु उस देश प्रेम हेतु इतनी अगणित यातना भोगने, हौतात्म्य की पराकाष्ठा का दर्शन कराने वाले सावरकर से भारत रत्न की कोटि का कोई प्रेरणा पुञ्ज विश्व इतिहास में खोज पाना अति दुर्लभ होगा।
वीर सावरकर के जीवन की प्रत्येक घटना ही किसी उपन्यास के तुल्य अद्भुत है, शोकान्त नाटक की अपेक्षा अधिक भयानक और रोमांचक है। आपत्तियों के अनेक पर्वत त्याग और तपस्या में नागराज हिमालय से भी उच्च इस विराट पर अनेकवार टूटे और उससे टकराकर खण्ड-खण्डित हो गए। मृत्यु जीवन भर उसका पीछा करती रही परन्तु प्रतीत होता है कि उस कालजयी के मस्तक पर परम पिता ने ही अपना वरदहस्त रखा हुआ था। स्वदेश की स्वतन्त्रता के लिए अपने बाल्यकाल में ही संघर्षरत रहने का संकल्प ग्रहण करने वाले सावरकर ने स्वातन्त्र्य सम्पदा से स्वदेश को मण्डित होते हुए अपने नेत्रों से निहारने का सुख निश्चय ही पाया था। सन् 1930 में ‘सम्पूर्ण स्वातन्त्र्य’ की घोषणा का श्रेय आज सामान्यतः पण्डित जवाहर लाल नेहरू को दिया जाता है, परन्तु उनकी इस घोषणा से अनेक वर्ष पूर्व जब ‘स्वराज्य’ शब्द के उच्चार मात्र से ही कालापानी के क्रूर कारागार की राह हमवार हो जाती थी, उस समय सम्पूर्ण राजकीय स्वातन्त्र्य का प्रकट उद्घोष करने का अनुपम धैर्य तो सावरकर ने ही दर्शाया था। भारतीय राजनीति को अन्तरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा प्रदान कराने के लिए श्री नेहरू की प्रशंसा की जाती है। किन्तु भारतीय स्वातन्त्र्य हेतु अन्तरराष्ट्रीय क्रान्तिकारी संगठन की स्थापना कर दिखाने का चमत्कार 23 वर्ष की युवा अवस्था में कर दिखाने वाले नायक ही नहीं अपितु ‘विनायक’ तो सावरकर ही थे। स्याही और लेखनी हाथ में नहीं होते हुए भी हजारों पंक्तियों की काव्य रचना करना और उसे सामान्य जन तक पहुंचाने का कार्य बीसवीं शताब्दी में वह समग्र चमत्कार सावरकर ने ही तो कर दिखाया था।
भारत भूमि में प्रभावी वक्ताओं और लेखकों की इस शताब्दी में एक लम्बी तालिका और मालिका रही है। क्रान्तिकारियों की भी एक अखण्ड सी परम्परा इतिहास ने भारत को प्रदान की है। किन्तु सावरकर के समान दूसरा ऐसा कोई क्रान्तिकारी विश्व इतिहास में भी दृष्टिगोचर नहीं होता, जिसने दस हजार पृष्ठों का अमर वाङ्मय भी लिखा हो। जिन्होंने भारतीय क्रान्ति इतिहास पर शोध या अध्ययन करना हो उन्हें तो वीर सावरकर के इस साहित्य सागर का अवगाहन करना ही होगा। क्रान्ति रस का संचरण अपनी वाणी और लेखनी दोनों से ही करने वाला सशरीर चमत्कार था नरपुंगव सावरकर।
राजनीति के क्षेत्र में क्रान्ति के द्रष्टा और स्रष्टा सावरकर सामाजिक क्षेत्र में हिन्दू समाज में समता, ममता और सामर्थ्य को प्रस्थापित करने हेतु जीवन भर प्रयासरत रहे। हिन्दू धर्म सम्बन्धी आचार-विचारों की तत्कालीन अंग्रेज सत्ताधीशों के क्रीतदासों और मिशनरियों ने इतने विद्रूप रूप में व्याख्याएं की और कराईं थीं कि पाश्चात्यों द्वारा प्रदत्त शिक्षा में शिक्षित जन स्वयं को हिन्दू कहने में सकुचाने लगे थे। उसी परम्परा का निर्वहन करते हुए पश्चिमी सभ्यता और दर्शन से अभिभूत, राजनीतिक क्षेत्र में सुप्रतिष्ठित भारत के अनेक सपूतों ने हिन्दुत्व के प्रति गौरव बोध को संकीर्णता और जातीयता का पर्याय बताते हुए उसे राजनीति से बहिष्कृत करने को अपने बुद्धिजीवी होने का पर्याय मान लिया था। सावरकर का हिन्दुत्व निष्ठ राजनीति अथवा राजनीति के हिन्दुकरण का आह्वान उस अभियान पर तीव्र प्रतिक्रिया का भी सोपान है। वीर सावरकर ने जिस हिन्दुत्व का आग्रह किया वह राष्ट्रीयता का परिचायक है। देश की राजनीति में मजहब को महत्व प्रदान करने वाले सन्तों की अपेक्षा वीर सावकर मत, मजहब, पन्थ और सम्प्रदाय को राजनीति से मुक्त रखने के आग्रही रहे। भारतीय राजनीति की यह त्रासदी ही है कि जाति, पन्थ, वंश अथवा मत एवं सम्प्रदाय का विचार नहीं कर सभी नागरिकों के अधिकार और कर्त्तव्य की दृष्टि से सभी को समान स्तर पर रखने के पक्षधर सावरकर को ‘घोर साम्प्रदायिक’ ठहराकर स्वयं को बुद्धिजीवी जताते हैं और मत, मजहब, सम्प्रदाय और जाति के आधार पर राजनीति करने वालों को ‘धर्मनिरपेक्षता’ का ध्वज वाहक जताते हैं। वीर सावरकर पन्थ निरपेक्ष राष्ट्र के नागरिकों को बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक की परिधि में बान्धने के विरोधी थे। उनकी राष्ट्रनिष्ठा प्रेरक राजनीति में एक व्यक्ति एक मत ही आदर्श स्थिति है।
वीर सावरकर ने केवल क्रान्ति की ही आरती नहीं उतारी, अपितु देश की विधायक राजनीति के सम्बन्ध में भी उन्होंने नितान्त आधुनिक दृष्टिकोण से विचार किया था। वह जितने बड़े स्वप्नदृष्टा थे उतने ही महान कर्मयोगी, द्रष्टा, योद्धा और क्रान्तिकारी तथा वास्तविकतावादी भी थे। उनके श्वांसों में भारत के प्रति प्रेम बसा था तो निश्वासों में भारत की चिन्ता। देश की सुरक्षा और संरक्षण के प्रति सावरकर का चिन्तन बेजोड़ था। सैन्य बल और आधुनिकतम शस्त्रास्त्रों से सन्नद्ध भारत की उन्होंने कल्पना की थी। क्योंकि उनकी यह अडिग आस्था थी कि समृद्ध और सैन्य बल से सन्नद्ध भारत ही विश्व को विघ्न सन्तोषी शक्तियों का विध्वंस कर शान्ति का अमृतपान और वसुधैव कुटुम्बकम् के आदर्श का अनुगमन करने को प्रेरित कर सकता है। परिस्थितियों ने कल्पना लोक में विचरण करने वाले स्वदेश के कर्णधारों को सावरकर प्रणीत सैनिकीकरण का महत्व समझाया है। आज राष्ट्र में, जाति, पन्थ, मत, मजहब के नाम पर पनप रही विषम परिस्थितियाँ उन्हें राजनीति के ‘हिन्दुकरण’ के उस आदर्श का वरण करने पर भी विवश करेंगी, यह सोच कोरी कल्पना नहीं है। क्योंकि सावरकर प्रणीत हिन्दुत्व का सारतत्व यही है कि देश में जो विभक्तियाँ, मत, मजहब और सम्प्रदाय के आधार पर प्रचारित हैं, वे कृत्रिम हैं और देश को विघटित करने के लिए ऊपर से थोपी हुई हैं। देश की अविभक्त संस्कृति का मूल वस्तुतः एक ही है। राष्ट्र के इसी राजनीतिक व्यक्तित्व को अपनी श्रद्धा से प्रतिष्ठित कर उन्होंने देशभक्ति के अपने जो सिद्धान्त निर्धारित किए और जिन पर वे आजीवन सिंह-शार्दूल की तरह निःशंक निर्भीक आचरण करते रहे, वे ही मेरा भारत महान की कामना को साकार कर सकेंगे।
उनके स्मरण के साथ ही आर्यावर्त्त-भारतवर्ष के उन ऋषि-मुनीषियों के तपः पूत एवं तेजस्वी व्यक्त्वि सहसा मन पर चित्रित हो उठते हैं जिन्होंने इस राष्ट्र के शरीर और प्राणात्मा को अपने मानस मन्दिर में भक्तिपूर्वक पूजा था।
इस देश की कालात्मा ने भारत माता की आरती के पल में अमर प्राण दीपक संजो रखे हैं, उनमें वीर सावरकर की स्थिति जाज्वल्यमान नक्षत्र के तुल्य है। हम राष्ट्रात्मा के उस ज्योति प्रेरणा पुञ्ज को उसकी पुण्यतिथि पर अपनी श्रद्धांजलि समर्पित करते हैं।
देशभक्ति की स्फूर्ति में अतुल साहस और अप्रतिम शौर्य को अनुप्राणित करने वाले वीरव्रती नायक वीर विनायक के उस व्रत को यह कृतज्ञ राष्ट्र सश्रद्धा अपनी कर्मचेष्टा में उतारने का संकल्प ग्रहण कर रहा है। - पण्ड़िता राकेश रानी (सम्पादक- जनज्ञान)
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