माता निर्माता भवति। माता निर्माता होती है। मनुष्य मात्र की प्रथम पाठशाला ही नहीं, अपितु महाविद्यालय और विश्वविद्यालय भी माता ही होती है। कौशल्या, यशोदा, कुन्ती जैसी माताएं मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम, भगवान श्रीकृष्ण और धर्मराज युधिष्ठिर जैसे पुत्रों का निर्माण करती हैं, तो गान्धारी जैसी माताएं दुष्ट दुर्योधनों और दुःशासनों का निर्माण करती हैं। प्रद्युम्न जैसे पुत्र को जन्म देने के लिये रुक्मिणी जैसी मातायें विवाहोपरान्त अपने पति श्रीकृष्ण सहित बारह वर्ष तक कठोर ब्रह्मचर्यव्रत का पालन करती हैं। श्रीकृष्ण योगिराज थे, राधारमण नहीं।
पतिपरायणा बनने के लिये जहाँ गांधारी ने अपने सौ पुत्रों को भगवान के भरोसे छोड़कर स्वयं पति की अनुगामिनी बनाकर अंधत्व स्वीकार किया, वहीं महाभारत के उद्योग पर्व के अन्तर्गत भगवद्यान पर्व में वीरमाता विदुला का उपाख्यान विद्यमान है। कौरवों के साथ समझौता करने में असफल होने के उपरान्त श्रीकृष्ण ने अपनी बुआ कुन्ती के दर्शन किये और पाण्डवों हेतु किसी सन्देश के लिये पूछा, तो कुन्ती ने समझौते की बातों के सन्दर्भ में श्रीकृष्ण से कहा कि शत्रुओं को संताप देने वाले कृष्ण! इस प्रसंग में विद्वान लोग वीरमाता विदुला और उसके पुत्र संजय के मध्य संवादरूप इस पुरातन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं-
विदुला नाम से प्रसिद्ध एक क्षत्रिय वीरमाता हुई है जो उत्तम कुल में उत्पन्न, यशस्विनी, मानिनी, जितेन्द्रिया, क्षत्रियधर्म परायणा और दूरदर्शिनी थी। वह अनेक शास्त्रों को जानने वाली और महापुरुषों के उपदेशों से लाभ उठाने वाली थी। एक समय उसका पुत्र सिन्धुराज से पराजित होकर अत्यन्त दीनभावों से घर आकर सो रहा था। अपने उस पुत्र को विदुला ने उसकी निन्दा करते हुए कहा कि शत्रुओं को आनन्द देने वाले और बन्धुओं को शोक में डुबोने वाले हे कायर! उठ खड़ा हो, पराजित होकर ऐसे मत सो। तू वज्र से मारा हुआ मुर्दा-सा बना क्यों सो रहा है? हे कायर! उठ खड़ा हो, शत्रु से पराजित होकर मत सो। तू भयभीत होकर समाप्त मत हो। तू अपने पराक्रम से विख्यात हो। तू निन्दनीय, नीच स्थिति और साधारण स्थिति से उबर। तू सिंहनाद करता हुआ खड़ा हो जा।
हे पुत्र! धर्म को लक्ष्य करके या तो अपनी वीरता की धाक जमा अथवा मृत्यु का वरण कर। यदि ये दोनों नहीं हैं तो जीवन निरर्थक है। संजय! तू मेरे गर्भ से उत्पन्न होकर भी शत्रुओं का ही हर्ष बढ़ाने वाला है। इसलिये मैं ऐसा समझती हूँ कि तू मेरी कोख से उत्पन्न ही नहीं हुआ है। तू नाम मात्र का पुरुष है। तेरे सभी क्रियाकलाप नपुंसकों के समान हैं। वीर पुरुष युद्ध में जाकर यथाशक्ति उत्तम पुरुषार्थ प्रकट करके धर्म के ऋण से उऋण होता है और अपनी निन्दा नहीं कराता। तेरी कायरता के कारण हम लोग इस राज्य से निर्वासित होने पर संपूर्ण मनोवांछित सुखों से हीन, स्थानभ्रष्ट और अकिंचन हो जीविका के अभाव में ही मर जायेंगे। तू वीरप्रसविनी माता का पुत्र नहीं, अपितु उसका मलमूत्र मात्र है।
माता की इस फटकार से चकित और दुखी होकर संजय ने माता से कहा कि हे मात! मेरे मरने पर मुझे देखे बिना तुझे सारी पृथिवी भी यदि प्राप्त हो जाये, तो उससे क्या लाभ होगा? तेरा सब पहनना-ओढ़ना, खाना-पीना और यहाँ तक कि जीवन भी सब निरर्थक हो जायेगा।
वीरमाता ने कहा, “जो मनुष्य अपने बाहुबल पर भरोसा करके जीता है, वह संसार में यशस्वी होता है और शरीर त्याग के बाद सद्गति का अधिकारी होता है। अनुचित बात कहकर मैं मोहवश तेरे त्रुटिपूर्ण कार्यों का भी समर्थन करूँ, तो यह मेरा वात्सल्य उसी प्रकार होगा जैसा गधी अपने बच्चे से करती है। हे संजय! क्षत्रिय इस संसार में युद्ध के लिये बना है। युद्ध में चाहे विजयी बने और चाहे वीरगति को प्राप्त हो, दोनों ही अवस्थाओं में वह स्वर्ग को प्राप्त करता है।
देख, सिन्धुराज की प्रजा उससे सन्तुष्ट नहीं है, तथापि तेरी दुर्बलता के कारण किम्कर्तव्यविमूढ हो उदासीन बैठी हुई है और सिन्धुराज पर विपत्तियों के आने की बाट जोह रही है। दूसरे राजा भी तेरा पुरुषार्थ देखकर इधर-उधर से विशेष चेष्टापूर्वक सहायक साधनों की वृद्धि करके सिन्धुराज के शत्रु हो सकते हैं। तू उन सबके साथ मैत्री करके यथासमय अपने शत्रु सिन्धुराज पर आक्रमण कर। तेरा नाम तो संजय है, पर तुझमें इस नाम के अनुसार मैं गुण नहीं देख रही हूँ। पुत्र! युद्ध में विजय प्राप्त करके अपना नाम सार्थक कर, व्यर्थ संजय नाम न धारण कर। युद्ध से हमारे पूर्वजों का अथवा मेरा कोई लाभ हो या हानि, युद्ध करना क्षत्रियों का धर्म है, ऐसा समझकर उसी में मन लगा, युद्ध से विरत न हो।
संजय! जिस समय तू मुझे और अपनी पत्नी को चिन्ता के कारण अत्यन्त दुर्बल देखेगा, उस समय तुझे जीवित रहने की इच्छा नहीं होगी। तू रूप, यौवन, विद्या और कुलीनता से सम्पन्न है, यशस्वी तथा लोक में विख्यात है। तुझ जैसा वीर पुरुष यदि पराक्रम के समय डर जाये, तो मैं इसे तेरा मरण ही समझती हूँ।’’
संजय पुनः उसी स्वर में बोला, “माँ! तेरा हृदय ऐसा जान पड़ता है, मानो लौह-पिण्ड को ठोक-पीटकर बनाया गया हो। तू मेरी माता होकर भी इतनी निर्दय है। तेरी बुद्धि वीरों के समान है और तू सदा अमर्ष से भरी रहती है। मुझे इकलौते पुत्र से तू ऐसी बात कहे, आश्चर्य है! मुझे न देखने पर यह सारी पृथ्वी भी तुझे मिल जाये तो इससे तुझे क्या सुख मिलेगा?’’
माता विदुला ने उसे पुनः समझाते हुए कहा, ’‘पुत्र! यह तेरे लिये अपना पराक्रम दिखाने का सुन्दर और मुख्य अवसर प्राप्त हुआ है। ऐसे समय में यदि तू अपने कर्त्तव्य का पालन नहीं करेगा, तो चारों और तेरा अपयश फैल जायेगा।’’
संजय फिर गिड़गिड़ाया, “माँ तुझे ऐसे विचार नहीं व्यक्त करने चाहिएं। अतः अब तू मूक की भांति होकर मुझ अपने पुत्र को विशेष रूप से करुणापूर्वक दृष्टि से देख।‘’
माता बोली, “तू मुझे मेरे कर्त्तव्य की प्रेरणा दे रहा है, इसीलिये मैं भी तुझे बार-बार तेरा कर्त्तव्य सुझा रही हूँ। जब तू सिन्धुराज पर विजय प्राप्त कर लौटेगा उस समय मैं तेरा स्वागत करूंगी। जो मनुष्य अपने बाहुबल का आश्रय लेकर उत्कृष्ट जीवन जीता है, वही इस लोक में उत्तम कीर्ति और परलोक में शुभ गति पाता है। संजय! यदि तू इस दशा में पुरुषों को छोड़ने की इच्छा करता है तो शीघ्र ही नीच पुरषों के मार्ग पर जा पहुँचेगा। कायर ! उठ खड़ा हो। इस प्रकार शत्रु से पराजित होकर उद्योगशून्य न हो। ऐसा करके तू शत्रु को ही आनन्द दे रहा है। यदि प्राण जाने का सन्देह हो तो भी शत्रु के साथ युद्ध में पराक्रम ही प्रकट कर। तू दीन न होकर अस्त न हो जा। अपने शौर्यपूर्ण कर्म से प्रसिद्धि प्राप्त कर।
पुत्र! धर्म को आगे रखकर या तो पराक्रम प्रकट कर अथवा उस गति को प्राप्त हो जा, जो समस्त प्राणियों के लिये निश्चित है। तू धैर्य और स्वाभिमान का अवलम्बन कर अपने पुरुषार्थ को जान और तेरे कारण डूबे हुए इस वंश का तू स्वयं ही उद्धार कर। हे संजय! तू अपने स्वरूप को प्रभावशाली बनाकर विजय प्राप्त करने के लिए खड़ा हो जा।’’
संजय बोला, “माँ! मेरे पास न तो खजाना है और न सहायता करने वाले क्षत्रिय ही हैं। फिर मुझे विजयरूप अभीष्ट की सिद्धि कैसे प्राप्त होगी?’’
माँ बोली, “सफलता होगी ही, ऐसा मन में दृढ़ विश्वास लेकर विवादरहित होकर तुझे उठना, सजग होना और ऐश्वर्य की प्राप्ति करने वाले कर्मों में लग जाना चाहिये। कैसी भी आपत्ति क्यों न आ जाये, राजा को कभी भयभीत होना या घबराना नहीं चाहिये। यदि वह डरा हुआ हो तो भी डरे हुए के समान बर्ताव न करे। वीर संजय! अभी भी तेरे सैकड़ों सुहृद् हैं। वे सभी सुख-दुःख को सहन करने वाले तथा युद्ध से पीछे न हटने वाले हैं।’’
माता के इस प्रकार के वचनों को सुनकर संजय का तमोगुण जनित भय और विषाद भाग गया तथा वह अपनी माता से बोला, “माँ! मेरा यह राज्य शत्रुरूपी जल में डूब गया है। अब मुझे इसका उद्धार करना है, नहीं तो युद्ध में शत्रुओं का सामना करते हुए प्राणों का विसर्जन कर देना है। जब मुझे भावी वैभव का दर्शन कराने वाली तुझ जैसी संचालिका प्राप्त है, तब मुझमें ऐसा साहस होना ही चाहिये। यह देखो, अब मैं शत्रुओं का दमन और विजय की प्राप्ति के लिये बन्धु-बान्धवों के साथ उद्योग कर रहा हूँ।’’
यह उपाख्यान सुनाकर कुन्ती ने कृष्ण से कहा, “कृष्ण! माता के वाग्वाणों से विन्धकर और तिरस्कृत होकर चाबुक की मार खाये हुये अच्छे घोड़े के समान उपदेश का विदुला के पुत्र संजय ने यथावत् रूप से पालन किया और युद्ध में विजय प्राप्त कर अपना खोया हुआ साम्राज्य पुनः प्राप्त कर लिया।’’
बड़े भिन्न मन से श्रीकृष्ण को विदा करते हुए कन्ती ने पाण्डवों के लिये सन्देश देते हुए कहा, “शत्रुओं का आनन्द बढ़ाने वाले पाण्डवों! इससे बढ़कर दुःख की बात और क्या हो सकती है कि मैं तुम्हें जन्म देकर भी बन्धु-बान्धवों से हीन नारी की भाँति जीविका के लिये दूसरों के दिये हुए अन्न वस्त्र की आशा लगाये ऊपर देखती रहती हूँ। अब तुम युद्ध करो। बाप-दादाओं का नाम मत डुबाओ। पापमयी गति को न प्राप्त होओ।’’
राज्य नहीं तो पाँच गांव पर ही सन्तुष्ट होने वाले अपने पुत्रों के लिये वीरमाता कुन्ती का यह सन्देश मृत शरीर में प्राण का संचार करने वाला था और पाण्डवों ने उनके आदेश का पालन कर अपना खोया हुआ साम्राज्य उसी प्रकार प्राप्त किया, जिस प्रकार वीर माता विदुला के पुत्र संजय ने किया था।
सन्तति के उत्थान-पतन में माता की भूमिका कितनी मुख्य होती है, कुन्ती और गांधारी के उत्कृष्ट उदाहरण से यह अच्छी प्रकार स्पष्ट हो जाता है। - अशोक कौशिक
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