यह सुखद संयोग है कि मातृभूमि और धर्म की रक्षा करने वाले वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप और रण बांकुरे छत्रसाल का जन्म एक ही तिथि ज्येष्ठ शुक्ल 3 को हुआ था। यद्यपि उनके जीवनकाल में लगभग 200 वर्षों का अन्तर था। महाराणा प्रताप का जन्म संवत 1597 में हुआ था। जब दिल्ली का बादशाह अकबर था जबिक छत्रसाल का जन्म संवत 1706 में हुआ जब दिल्ली में औरंगजेब का शासन था।
महाराणा उदयसिंह की मृत्यु के पश्चात जब प्रतापसिंह गद्दी पर बैठे, भारत के बड़े भूभाग पर मुगल बादशाह अकबर का शासन था। बड़े-बड़े राजा महाराजाओं ने अकबर की आधीनता स्वीकार कर ली थी। वीरों की भूमि राजस्थान के अनेक राजाओं ने न केवल मुगल बादशाह की दासता स्वीकार की अपनी बहू बेटियोें की डोली भी समर्पित कर दी थी। महाराणा प्रताप इसके प्रबल विरोधी थे। उन्होंने मेवाड़ की पूर्ण स्वतन्त्रता का प्रयास जारी रखा और मुगल सम्राट के सामने झुकना कभी स्वीकार नहीं किया। अनेक बार अकबर ने उनके पास सन्धि के लिए प्रस्ताव भेजे और इच्छा व्यक्त की कि महाराणा प्रताप केवल एक बार उसे बादशाह मान ले लेकिन स्वाभिमानी प्रताप ने हर प्रस्ताव को ठुकरा दिया। इसके परिणाम स्वरूप राणा प्रताप को निरन्तर युद्ध करते रहना पड़ा। वे जंगल-जंगल भटकते रहे और करीब 25 वर्षों तक अकबर की विशाल सेना हर बार मुकाबला करते रहे।
महाराणा प्रताप और अकबर के बीच दिनांक 18 जून 1576 में हुआ हल्दीघाटी का युद्ध विश्व में प्रसिद्ध हुआ। इस युद्ध में अकबर की सेना का नायक आमेर का राजा मानसिंह था जो अत्यन्त वीर और पराक्रमी था। देवयोग से वह प्रताप के वार से बच निकला। इस युद्ध में प्रताप ने अकबर की विशाल सेना को तहस नहस कर दिया। विजय किसी की नहीं हुई। इसके पश्चात् प्रताप ने छापामार युद्ध प्रणाली अपनायी और अपने जीवनकाल में ही मेवाड़ का अधिकांश भूभाग दुश्मन से मुक्त करा लिया।
महाराणा प्रताप के जीवन के कुछ प्रसंग उल्लेखनीय हैं। राणा प्रताप अपने अनुज शक्तिसिंह के साथ एक बार आखेट पर गए। शिकार किसने किया इस पर दोनों में विवाद हुआ और दोनों ने तलवार खींच ली। परिस्थिति विकट देखकर साथ गये राजपुरोहित ने कहा यदि लड़ाई बन्द नहीं हुई तो मैं आत्म हत्या कर लूंगा। चेतावनी का असर होता न देख विप्र ने कटार मारकर आत्म हत्या कर ली। परिणाम में दोनों सान्त हुवे, युद्ध टल गया। यदि ऐसा न होता तो कल्पना कीजिए क्या स्थिति होती? इन राज पुरोहित का नाम नारायणदास पालीवाल था। उनके 4 पुत्र थे उनमें से 2 ने हल्दीघाटी युद्ध में भाग लिया था और खेत रहे थे।
जब राणा प्रताप जंगलों में भटक रहे थे। खाने का भी साधन नहीं था। भूखे राजकुमारों को देखकर उनका हृदय द्रवित होगया। उन्होंने सुलह के लिये अकबर को पत्र लिखा। तब बीकानेर के राजा अनुज पृथ्वीराजसिंह बादशाह के दरबार में थे। उन्हें प्रताप पर गर्व था। प्रताप का पढ़ पढ़कर उनकी आत्मा सिहर उठी। उन्होंने एक जोशीला पत्र प्रताप को भेजा जिससे प्रताप का स्वाभिमान जाग उठा और उन्होंने युद्ध करना निश्चित किया। पृथ्वीराज के पत्र की अन्तिम कड़ी थी-
मैं आज सुनी है म्यानां में तलवार रेवेला सूनी
म्हारो हिलडो कांपे है मूंछारी मोड़ मरोड़ गई
पीथल ने राणा लिख भेजो
आ बात कठा तक गिनूं सही
राणा के पत्र की अन्तिम कड़ी थी-
थे राखो मूंछ एठयोरी, लोई री नदी बहा दूंगा
मैं तुर्क कहूंला अकबर ने
उजड्यो मेवाड़ बसा लूंगा।
म्हूं राजपूत रो जायो हूँ,
रजपूति करंज चुकाऊँगा
यो शीश गिरे पर पाग नहीं
म्हूँ दिल्ली आण झुकाउंगा
जब हल्दीघाटी के युद्ध में राणा प्रताप दुश्मनों से चारों और घिर गए और बचने की कोई आश नहीं थी। यह स्थिति देखकर झाला सरदार मानसिंह तुरन्त उनके पास पहुँचे। उनका राजचिन्ह अपने सिर पर रखा और राणाजी को घेरे से बाहर निकलने की राह बनाई। दुश्मनों ने मानसिंह को राणा समझकर घेर लिया और वे वीरगति को प्राप्त हुए। यदि समय पर झाला सरदार ऐसा न करते तो हल्दीघाटी का इतिहास ही और होता।
जब प्रताप घायल होकर घायल घोड़े चेतक पर बैठकर युद्ध क्षेत्र से बाहर निकले उन्हें देख दुश्मन के दो सवारों ने उनका पीछा किया। परिस्थिति को गम्भीरता को देखकर राणा के अनुज शक्तिसिंह ने पीछा किया और दोनों सैनिकों को मार गिराया और प्रताप से क्षमा मांगी यदि ऐसा न होता।
इसी प्रकार भामाशा ने अपनी सम्पूर्ण सम्पत्ति राणा प्रताप को अर्पित कर राष्ट्र भक्ति का अद्वितीय कार्य किया। इतिहास में उनका नाम अमर रहेगा।
महाराणा प्रताप योद्धा ही नहीं महान व्यक्तित्व के धनी भी थे। वे अपने शत्रु से भी धर्मपूर्वक व्यवहार करते थे। जब प्रताप का देहान्त हुआ शहंशाह अकबर हैरान हो गया उसकी आँखें छलक उठी। उसके मुँह से निकला ऐ प्रताप तू महान था। तूने हिन्दुस्थां की शान रखी। वास्तव में महान योद्धा, स्वाधीनता का पक्षधर, कर्मठ देशभक्त प्रताप इस देश की अस्मिता और स्वतन्त्रता के लिए जिए और अमर हो गये।
महाराज छत्रसाल- बुन्देलखण्ड के राजा चम्पतराय ने जीवनभर अपने देश की स्वतन्त्रता के लिये मुगलों से संघर्ष किया। वृद्धावस्था उनकी आकस्मिक मृत्यु के पश्चात, कर्त्तव्य का दायित्व उनके पुत्र छत्रसाल के कन्धों पर पड़ा। छत्रसाल की शिक्षा दीक्षा उनके माना के यहाँ हुई। छत्रसाल ने हिन्दू धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिए हिन्दू राजाओं को संगठित करने का प्रयास किया। परन्तु उसमें वे सफल नहीं हो सके। बुन्देलखण्ड के अनेक राजा मुगलों के साथ थे। ऐसी परिस्थिति में छत्रसाल ने विश्वस्त युवकों की एक सेना तैयार की और मुगलों से संघर्ष करते रहे।
कुछ वर्ष पश्चात छत्रसाल ने महाराष्ट्र जाकर शिवाजी महाराज से भेंट की। उन्होंसे राजनीति और रणनीति के गुर सीखे। छत्रसाल शिवाजी से बहुत प्रभावित थे। उनकी ही रणनीति से छत्रसाल ने बुन्देलखण्ड में एक शक्तिशाली राज्य की स्थापना की। यह उल्लेखनीय है कि छत्रपति शिवाजी की तरह महाराज छत्रसाल भी कभी युद्ध में नहीं हारे। छत्रसाल महान योद्धा और श्रेष्ठ कवि थे। साहित्यकारों का वे सम्मान करते थे। बुन्देलखण्ड पर कब्जा करने के लिए बादशाह औरंगजेब के शासनकाल में बहुत प्रयत्न हुए। औरंगजेब की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र फर्रुखसियर बादशाह हुआ। उस समय छत्रसाल वृद्ध हो गये थे। ऐसे समय में बादशाह ने अपार सेना महमदखां बंगश के अधीन भेजकर बुन्देलखण्ड पर आक्रमण किया।
छत्रसाल ने उसे कई बार पीछे धकेला परन्तु उसकी सेना विशाल थी और उसे बराबर सहायता मिलती जा रही थी। स्थिति संकटपूर्ण थी। तब छत्रसाल का शिवाजी को वह आश्वासन याद आया कि हिन्दूत्व की रक्षा के लिए जब आवश्यक हो महाराष्ट्र की सेना बुन्देलखण्ड सहायतार्थ आयेगी। इस समय मराठों का नेतृत्व बाजीराव के हाथ में था। छत्रसाल ने बाजीराव को सहायता के लिए मर्मस्पर्शी पत्र लिखा- उसने लिखा- जो गति गज की भई सो गति भई है आज। बाजी जात बुन्देल की राखो बाजी लाज। पत्र पढ़कर बाजीराव सहायतार्थ पहुँच गए। बंगश पर घेरा डाल दिया गया। बाजीराव के आक्रमण से उसके कई सेना नायक मारे गये। अन्त में उसने प्राणों की भीख मांगी। तब युद्ध का व्यय देने और भविष्य में कभी बुन्देलखण्ड की तरफ नजर डालने की शपथ पर उसे प्राणदान दिया गया।
इस संकट की घड़ी में सहायता करने वाले बाजीराव के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हुए छत्रसाल ने बाजीराव को अपना तीसरा पुत्र माना और बुन्देलखण्ड राज्य का एक तिहाई भाग दिया। छत्रसाल की एक मुस्लिम स्त्री से उत्पन्न कन्या को भी छत्रसाल ने बाजीराव को दी जो इतिहास में मस्तानी के नाम से प्रख्यता हुई।
छत्रसाल के राज्य में प्रजा सुखी थी बन्देलखण्ड में आज भी प्रार्थना में कहा जाता है “छत्रसाल महाबली करियो सबकी भली। वीर छत्रसाल की वीरता से महाकवि भूषण इतने प्रभावित हुए थे कि शिवाजी की प्रशंसा करते हुए उन्हें कहना पड़ा- शिवा को सराहूँ कि सराहूँ छत्रसाल को। - श्रीकृष्ण पुरोहित
Maharana Pratap | Veer Chhatrasal | Maharaja | Akbar | Bundelkhand | Shivaji | Mahapurush | Rashtra | Worship | National Freedom Agitation | Indian Nationalism