एक ताजा सर्वेक्षण से पता चला है कि भारत के कुछ नगरों के 45 प्रतिशत नौजवानों को शराब की लत पड़ गई है। दिल्ली सहित देश के ग्यारह शहरों के 2000 नौजवानों के सर्वेक्षण से ये आंकड़े मिले हैं। इन नौजवानों की उम्र 15 से 19 वर्ष है। पिछले 10 साल में इस लत का असर दुगुना हो गया है। कोई आश्चर्य नहीं कि अगले दस साल में देश के लगभग शत प्रतिशत नौजवान शराबखोर बन जाएं। जरा सोचें कि अगर हालत यही हो गई तो 21वीं सदी के भारत का क्या होगा? हम गर्व करते हैं कि आज नौजवानों की जितनी संख्या भारत में है, दुनिया के किसी भी देश में नहीं है। भारत अगर विश्व शक्ति बनेगा तो इस युवा शक्ति के दम पर, लेकिन अगर हमारी युवा शक्ति इन पश्चिमी लतों की शिकार बन गई तो भारत आज जिस बिन्दु पर पहुँचा है, उससे भी नीचे खिसक जाएगा। यह मामला सिर्फ शराब का ही नहीं है, शराब जैसी अन्य दर्जनों लतों का है, जो भारत के भद्रलोक की नसों में मीठे जहर की तरह फैलती जा रही है।
शराब के बढते चलन के पीछे जो तर्क दिख रहे हैं, वे सतही हैं। उनके पीछे छिपे रहस्यों को हम अगर जान पायेंगे तो दूसरी आधुनिक बीमारियों के मूल तक पहुँचने में भी हमें आसानी होगी और उनका इलाज करना भी कठिन नहीं होगा। हमारे नौजवान शराब इसलिए पी रहे हैं कि उनके हाथ में पैसे ज्यादा आ रहे हैं वे अपना तनाव मिटाना चाहते हैं और माता-पिता उन पर समुचित ध्यान नहीं दे पाते हैं। ये तीनों तर्क अपनी जगह ठीक हैं, लेकिन ये ऊपरी हैं। असली सवाल यही है कि हमारा नौजवान शराब को ही अपना एकमात्र त्राणदाता क्यों मान रहा है। और इस गम्भीर भूल का पता चलने पर भी माता-पिता और समाज की तरफ से कोई उचित कार्यवाई क्यों नहीं होती? इसका कारण यह है कि भौतिक विकास की दौड़ में पागल हुआ हमारा समाज बिल्कुल नकलची बनता चला जा रहा है। वह कहता है कि हर मामले में पश्चिम की नकल करो। अपना दिमाग गिरवी रख दो। अपने मूल्यमानों, आदर्श, अपनी परम्पराओं को दरी के नीचे सरका दो। यदि शराब पीना, मांस खाना, व्यभिचार करना, हिंसक बनना, कर्ज लेकर ऐश करना आदि को पश्चिमी समाज में बुरा नहीं माता जाता तो हम उसे बुरा क्यों मानें? आधुनिक दिखने, प्रगतिशील होने, सेकुलर बनने, भद्र लगने के लिए जो भी टोटके करने पड़ें, वे हम करें। चूके क्यों? जरा गौर करें कि सर्वेक्षण क्या कहता है?
उसके अनुसार हमारे नौजवान ज्यादा शराब कब पीते हैं? क्रिसमस या वेलेंटाइन डे के दिन ये दोनों त्योहार क्या भत्तरतीय हैं? हमारे ईसाई भाई क्रिसमस मनाएं, यह तो समझ तो आता है, लेकिन जो शराबखोरी करते हैं, उन आम नौजवानों का ईसा मसीह या क्रिसमस से क्या लेना-देना है? शराब पीना ही उनका क्रिसमस है और वह इसलिए है कि क्रिसमस पश्चिमी समाज का त्योहार है। होली और दीपावली पर उन्हें खुमारी नहीं चढती, लेकिन क्रिसमस पर चढती है, यह किस सत्य का प्रमाण है?
दिमागी गुलामी की यही गुलामी वेलेंटाइन डे पर प्रकट होती है। जिन भारतीय नौजवानों को महात्मा वेलेंटाइन की दंतकथा का भी सही-सही पता नहीं है, वे आखिर वेलेंटाइन डे से भी सौगुना अधिक मादक वसंतोत्सव हैं, लेकिन वे उससे अपरिचित हैं? क्यों हैं? इसीलिए कि वेलेंटाइन डे पश्चिमी है, आयातित है और आधुनिक है। शराब भी वे प्रायः विदेशी ही पीते हैं। ठर्रा पी लें तो उन्हें दारुकुट्टा या पियक्कड़ कहने लगेंगे। यह कड़वी बात उन्हें कोई कहता नहीं है, लेकिन सच्चाई यही है कि इन नौजवानों को अपने भारतीय होने पर गर्व नहीं है। वे नकलची बने रहने में गर्व महसूस करते हैं।
अगर ऐसा नहीं है तो मैं पूछता हूँ कि आज भारत के 90 प्रतिशत से अधिक शहरी नौजवान पेण्ट-शर्ट क्यों पहनते हैं? टाई क्यों लगाते हैं? उन्हें कुर्ता-पायजामा पहनने में शर्म क्यों आती है? स्कूल-कॉलेजों में कोई भी अध्यापक और छात्र धोती पहने क्यों नहीं दिखता? कोई वेश-भूषा कैसी भी पहने, उसमें कोई बुराई नहीं है, लेकिन कोई अपनी स्वाभाविक वेश-भूषा, पारम्परिक वेश-भूषा को तो हीन भाव से देखे और अपने पुराने मालिकों की वेश-भूषा को गुलामों की तरह दैवीय दर्जा देने लगे तो उसे आप क्या कहेंगे? ठण्डे देशों में शराब का प्रचलन है और टाई समेत थ्री पीस सूट पहने जाते हैं, लेकिन भारत जैसे गर्म देश में भी इन चीजों से चिपके रहना कौन सी आधुनिकता है? खुद को असुविधा में डालकर नकलची बने रहना तो काफी निचले दर्जे की गुलामी है। यदि ऐसी गुलामी भारत में बढती चली जाए तो उसके सम्पन्न होने पर लानत है।
यहाँ मामला शराब और वेश-भूषा का ही नहीं है, सबसे गम्भीर मामला तो भाषा का है। आजादी के 71 साल बाद भी अंग्रेजी इस देश की पटरानी बनी हुई है और हिन्दी नौकरानी। किसी को गुस्सा तक नहीं आता। बुरा तक नहीं लगता। राष्ट्रपति और प्रधानमन्त्री से लेकर बाबुओं और चपरासियों ने भी अंग्रेजी की गुलामी का व्रत धारण कर रखा है।
शराब की गुलामी से भी ज्यादा खतरनाक अंग्रेजी की गुलामी है। विदेशी भाषाओं और ज्ञान-विज्ञान से फायदा उठाने का मैं जबर्दस्त समर्थक हूँ, लेकिन अपनी माँ पर हम थूकें और दूसरे की माँ के मस्तक पर तिलक लगाएं, इससे बढकर दुष्टता क्या हो सकती है? यह दुष्टता भारत में शिष्टता कहलाती है। यदि आप अंग्रेजी नहीं बोल पाएं तो इस देश में आपको कोई शिष्ट और सभ्य ही नहीं मानेगा। देखा आपने, कैसा सूक्ष्म सूत्र जोड़ रहा है शराब, पेण्ट-शर्ट और अंग्रेजी को। हम यह भूल जाते हैं कि शराब ने रोमन और गुलाम जैसे साम्राज्यों की जड़ों में मट्ठा डाल दिया और विदेशी भाषा के जरिए आज तक दुनिया का कोई भी राष्ट्र महाशक्ति नहीं बना, लेकिन इन मिथ्या विश्वासों को हम बंदरिया के बच्चे की तरह छाती से चिपकाएं हैं। दुनिया में हमारे जैसा गुलाम देश कौन सा है?
इस गुलामी को बढाने में कॉमनवेल्थ का योगदान अप्रतिम है। कॉमनवेल्थ को क्या हमने कभी कॉमन बनाने की आवाज उठाई? उसका स्थायी स्वामी ब्रिटेन ही क्यों है? हर दूसरे-तीसरे साल उसका अध्यक्ष क्यों नहीं बदलता गुट निरपेक्ष आंदोलन की तरह या सुरक्षा परिषद् की तरह? उसकी भाषा अंग्रेजी क्यों है, हिन्दी क्यों नहीं? कॉमनवेल्थ के दर्जनों देश मिलकर भी भारत के बराबर नहीं है। हिन्दी दुनिया की सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है। दुर्भाग्य तो यह है कि आज देश में हमारे राजनीतिक दल और यहाँ तक कि साधु-महात्मा भी शक्ति संधान और पैसा महान में उलझ गए हैं। दयानन्द, गान्धी और लोहिया की तरह कोई ऐसा आन्दोलन नहीं चला रहे, जो भारत के भोजन, भजन, भाषा, भूषा और भेषज को सही पटरी पर लाए। इस पंचभकार का आह्वान अगर भारत नहीं करेगा तो पंचमकार, मद्य, मांस, मीन, मुद्रा, मैथुन का मार्ग तो पश्चिम ने हमें दिखा ही रखा है पश्चिम तो अब उठकर गिर रहा है, हम उठे बिना ही गिर जायेंगे।
शराब के बढते चलन के पीछे जो तर्क दिख रहे हैं, वे सतही हैं। उनके पीछे छिपे रहस्यों को हम अगर जान पायेंगे तो दूसरी आधुनिक बीमारियों के मूल तक पहुंचने में भी हमें आसानी होगी और उनका इलाज करना भी कठिन नहीं होगा। हमारे नौजवान शराब इसलिए पी रहे हैं कि उनके हाथ में पैसे ज्यादा आ रहे हैं वे अपना तनाव मिटाना चाहते हैं और माता-पिता उन पर समुचित ध्यान नहीं दे पाते हैं। ये तीनों तर्क अपनी जगह ठीक हैं, लेकिन ये ऊपरी हैं। असली सवाल यही है कि हमारा नौजवान शराब को ही अपना एकमात्र त्राणदाता क्यों मान रहा है। और इस गम्भीर भूल का पता चलने पर भी माता-पिता और समाज की तरफ से कोई उचित कार्यवाई क्यों नहीं होती? इसका कारण यह है कि भौतिक विकास की दौड़ में पागल हुआ हमारा समाज बिल्कुल नकलची बनता चला जा रहा है। वह कहता है कि हर मामले में पश्चिम की नकल करो। अपना दिमाग गिरवी रख दो। अपने मूल्यवानों, आदर्श, अपनी परम्पराओं को दरी के नीचे सरका दो। यदि शराब पीना, मांस खाना, व्यभिचार करना, हिंसक बनना, कर्ज लेकर ऐश करना आदि को पश्चिमी समाज में बुरा नहीं माना जाता तो हम उसे बुरा क्यों मानें? - डॉ. वेदप्रताप वैदिक (दिव्ययुग- अक्टूबर 2018)
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