विशेष :

बाजीराव मस्तानीयम-7

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Bajirao Mastaniyam 7

अतृप्तनेत्रोऽपि स तृप्तदृष्टि: जित्वापि कामं स जितश्‍च तेन।
कामसय पुष्पैर्जितशस्त्रवीर: स निर्निमेषं सुमुखीं ददर्श ॥61॥

स्वभावरम्ये नयने विनीते, मदं विनापि प्रमदोचितेऽस्या:।
रम्यौ कपालौ घनकुन्तलाग्रै: रावो विलुप्तोऽत्र नवोपकण्ठे ॥62॥

श्रुत्वापि सम्वादमिमं मनोज्ञम्, सा गोपयन्ती निजगूढभावम्।
प्रियाकपोलारुणता तु दृष्टा सा लज्जयान्त:पुरमेव याता॥63॥

पृष्टं सखीभि: ‘स्मितकारणम् किं ?’ तया श्रुतं चाप्यश्रुतं वचस्तत्।
दृष्टा मुखेऽस्या नवपाटलाभा,स विभ्रम:किं भ्रमकारक: स्यात् ? ॥64॥

नीलाभियुग्मेऽपि तदीय-राग: सौम्यारुणत्वेन नवत्वमाप।
स्मितं न निन्होतुमियं शशाक स्मितानुमेय: प्रथमानुराग: ॥65॥

लास्यं च तस्या मुखपाटलाभं प्रियानुरागारुणतामवाप।
यश्‍चित्रकारोऽप्युषसेऽरुणत्वम् स एव चास्यै प्रददौ हि रागम् ॥66॥

पुरा स्मितं किं न शकुन्तलाया दुष्यन्तचित्ते सहजं प्रविष्टम्?
दुर्वासशापान्तनवोदितं किम्? स्मितं तदाद्यं तु विलुप्तमन्ते ॥67॥

स्वभावजं वीक्षितहास्यमस्या: शशाक गोप्तुं तु रतिं हृदिस्थाम्।
तदोष्ठभागोदितसुस्मितात् तु ज्ञात: सखीभि: प्रथमानुराग:॥68॥

मनोगतं प्रस्फुटितं कदाचित् नियम्यमानं न नियम्यते यत्।
स्मितं सखी-विस्मितकारकं तत् किञ्चित् स्मितं किं प्रमदा-प्रमाद: ॥69॥

अकारणाविष्कृत-संयतं तत् किञ्चित् स्मितं विप्लवमातनोति।
तां प्रेरणाशक्तिमयीमवाप्य हिमालयादौषधिवत् स मेने ॥70॥

हिन्दी भावार्थ

बाजीराव के नेत्र उसे देखकर तृप्त नहीं हुए थे, किन्तु उनकी दृष्टि सन्तुष्ट थी। अपने सौन्दर्य से मदन को उन्होंने जीत लिया था, फिर भी वे अब मदन से जीत लिये गये । वे शस्त्रों के धुरंधर वीर थे, किन्तु कामदेव के पुष्पबाणों से आहत हो गए । वे बाजीराव उस सुन्दरी को एकटक होकर देखते रहे ॥61॥

स्वभावत: मस्तानी के नेत्र विनीत थे और मद के बिना ही उनमें प्रमदाओं का मद भी था । उसके दोनों गालों पर छाए बालों की लटाएं रम्य दिखाई देतीं थीं । इस नये उपवन में बाजीराव खो गए ॥62॥

उन दोनों के उसे प्रिय लगने वाले संभाषण को सुनकर मस्तानी अपने गूढ प्रेमभाव को छिपाने की कोशिश कर रही थी, लेकिन उसके प्रेम के कारण आरक्त गाल उस भाव को प्रकट कर रहे थे । अत: लज्जा के कारण वह अन्त:पुर में चली गई ॥63॥

जब हँसकर सहेलियों ने मस्तानी से स्मित का कारण पूछा तो सुनकर भी अनसुना उसने किया । फिर भी उसके मुख पर नवोदित गुलाबपुष्प की कान्ति दिखाई दी । वह विभ्रम सहेलियों के लिए भ्रम पैदा कर रहा था क्या ॥64॥

मस्तानी की नीली आँखों में (नवोदित प्रेमभाव के कारण) नई रक्तिमा प्रकट हुई । उसका स्मित प्रेमभाव को छुपा नहीं सका । प्रथम प्रेम का तो स्मित से अनुमान हो जाता है ॥65॥

इस मस्तानी के मुखमण्डल पर जो गुलाबी छटा थी, उसने प्रिय बाजीराव के प्रेम की गुलाबी आभा प्राप्त कर ली । जिस महान् चित्रकार विधाता ने उषा को अरुणराग प्रदान किया है, उसी ने इस मस्तानी को भी गुलाबी कान्ति प्रदान की । (मूलत: उसके अंग का रंग गुलाबी था, जो प्रेम के कारण और बढ गया) ॥66॥

प्राचीन समय में (महाकति कालिदास के नाटक शाकुन्तलम् के अनुसार) शकुन्तला का वह प्रथम दर्शनी स्मित यकायक दुष्यन्त के हृदय में प्रविष्ट हो गया था । दुर्वासा ऋषि के शाप के अन्त में वह स्मित पुन: दिखाई नहीं दिया । वह जो प्रथम दर्शन में उदित हुआ था, वह स्मित बाद में नहीं दिखाई दिया ॥67॥

मस्तानी का स्वाभाविक हास्य तो पूर्व में (लोग) हमेशा देखते थे । किन्तु उसके होठों में जो स्मितहास्य अब दिखाई दे रहा था, उससे सखियों ने उसके हृदय में स्मिथ प्रथम प्रेम को जान लिया । (खग ही जाने खग की भाषा) ॥68॥

जो स्मित छुपाने का प्रयास करने पर भी प्रेमभाव को प्रकट करता है, मस्तानी के उस स्मित ने सहेलियों को विस्मित किया । क्या युवतियों का किंचित् स्मित भी उनका प्रमाद होता है ॥69॥

अकारण अकस्मात् प्रकट हुए तथा पश्‍चात् नियंत्रित किये हुए मस्तानी के किञ्चित् स्मित ने तूफान का रूप धारण कर लिया । उस मस्तानी को बाजीराव ने हिमालय से प्राप्त दिव्य औषधि के समान प्रेरणादायक शक्ति माना ॥70॥• - डॉ. प्रभाकरनारायण कवठेकर (दिव्ययुग - नवम्बर 2007)


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