ओ3म् उदुत्तमं वरुण पाशमस्मदवाधमं वि मध्यमं श्रथाय।
अथा वयमादित्य व्रते तवानागसो अदितये स्याम॥ ऋग्वेद 1.24.15;यजुर्वेद 12.12,अथर्व. 7.83.3॥
ऋषि: शुन:शेपो देवरात:॥ देवता वरुण:॥ छन्द:त्रिष्टुप्॥
विनय- हे पापनिवारक देव! तूने हमें तीन बन्धनों से बाँध रखा है। उत्तम बन्धन हमारे सिर में है जिससे हमारा आनन्द और बुद्धि बँधे हुए हैं, ढके हुए हैं, रुके हुए हैं। यह सत्त्वगुण का (कारणशरीर का) बन्धन कहा जा सकता है। हृदयस्थ मध्यम बन्धन से हमारा मन और सूक्ष्म प्राण बँधे हुए हैं। यह रज और सूक्ष्म शरीर का बन्धन है। नाभि से नीचे तमोगुण और स्थूल शरीर का अधम बन्धन है जिससे हमारा स्थूल प्राण और स्थूल शरीर बँधा हुआ है। हे वरुण! इनसे बँधे रहने के कारण हमसे तेरे नियमों का भङ्ग होता रहता है और हम पापी बनते रहते हैं। उत्तम बन्धन द्वारा सच्चा ज्ञान न मिलने से, मध्यम द्वारा राग-द्वेष काम-क्रोध आदि के वशीभूत होने से और अधम द्वारा शारीरिक त्रुटियुक्त कार्य करने से हम पापी बनते हैं। हे देव! तू हमारा उत्तम पाश ऊपर की ओर खोल दे जिससे कि मेरी बुद्धि का द्युलोक के साथ सम्बन्ध स्थापित हो जाए और मुझमें सत्य-ज्ञान का प्रवेश होने लगे। मध्यम पाश बीच से खोल दे, जिससे अन्तरिक्ष लोक के समुद्र में मेरे मन के प्रविष्ट हो जाने से इसके रागद्वेषादि धुल जाएं तथा मेरे मन सम हो जाए और अधम पाश को नीचे गिरा दे जिससे मेरे पार्थिव शरीर के सब कलुषित परमाणु पृथिवीतत्त्व में लीन हो जाएँ और हमारा शरीर नीरोग, स्वस्थ और निर्दोष होकर प्रभु के कार्य कर सके। हे प्रकाशमय बन्धनरहित देव! इन बन्धनों के टूट जाने पर हम तेरे व्रत में रह सकेंगे, हमसे तेरे नियमों का भङ्ग होना बन्द हो जाएगा। अन्त में मैं ‘अदिति‘ (मुक्ति) के ऐसा योग्य हो जाऊँगा कि एक दिन आयेगा जबकि मेरा आत्मा स्थूलशरीररुपी बन्धन को नीचे पृथिवी पर छोड़कर और मानसिक सूक्ष्मशरीर को अन्तरिक्ष में लीन करके अपने ऊपरी बन्धन के भी टूट जाने से ऊपर-द्युलोक-को प्राप्त हो जाएगा। बिना इन तीन बन्धनों के ढीले हुए मैं मुक्ति की ओर कैसे जा सकता हूँ? इसलिए, हे वरुण! इन बन्धनों को एक बार खोल दो, जरा ढीला कर दो जिससे कि मेरा मार्ग साफ हो जाए और मैं यत्न करता हुआ तेरे व्रत में रहनेवाला निष्पाप मोक्षाधिकारी हो जाऊँ।
शब्दार्थ- वरुण= हे पापनिवारक देव! तू अस्मत्=हमारे उत्तमं पाशं उत्= उत्तम बन्धन को ऊपर की ओर और मध्यमं वि= मध्यम बन्धन को बीच में तथा अधमं अव= अधम बन्धन को नीचे की ओर श्रथाय=ढीला कर दे अथ= जिससे इन बन्धनों के टूटने से आदित्य= हे प्रकाशमय बन्धनरहित देव! वयं तव व्रते= हम तेरे नियमों में रहते हुए अनानस:= पापरहित होकर अदितये=बन्धन-राहित्य, स्वतन्त्रता, मुक्ति के लिए योग्य स्याम= हो जाएँ। - आचार्य अभयदेव विद्यालंकार (दिव्ययुग - जुलाई 2014)