विशेष :

नैतिक पर्यावरण

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Ethical Environment

शतपथ ब्राह्मण में उल्लेख है कि मनुष्य का जैसा आचरण होता है, वैसा ही वह बन जाता है-
यथाकारी यथाचारी तथा भवति साधुकारी साधुर्भवति पापकारी पापी भवति पुण्यः पुण्येन कर्मणा भवति पापः पापेनेति॥176
अर्थात् मनुष्य जैसा करता है वैसा ही हो जाता है। अच्छा करे तो अच्छा, बुरा करे तो बुरा होता है। पुण्य करने से पुण्यात्मा होता है तथा पाप करने से पापी। अतः मनुष्य को अच्छे आचरण से युक्त होना चाहिए।

निम्न स्थलों में कामना की गई है कि मैं आँखों से सदा भद्र देखूँ तथा कानों से भद्र सुनूँ-
भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा
भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः।177
सुचक्षा अहमक्षीभ्यां भूयासं
सुवर्चा मुखेन सुश्रुत्कर्णाभ्यां भूयासम्॥178
मनुष्य मात्र की यह कामना हो-
घृतं मे चक्षुरमृतं म आसन्॥179
मेरी आँखों में स्नेह, प्रेम, माधुर्य हो तथा मेरे मुख में अमृत हो।
होतरसि भद्रवाच्याय प्रेषितो मानुषः सूक्तवाकाय सूक्ता ब्रूहि॥180
हे होता मनुष्य! तुम कल्याणकारी वाणी के प्रयोग के लिए भेजे गए हो। तुम मननशील बनकर उत्तम भद्र वाक्यों का प्रयोग करो।

कल्याण की भावना से रहना, व्यवहार करना और परस्पर कल्याण के चिन्तन में निरत रहने का वेद मन्त्रों द्वारा उपदेश दिया गया है। यदि मानव समाज में प्रत्येक व्यक्ति यह व्यवहार अपना ले तो व्यक्ति निर्माण, समाज निर्माण एवं राष्ट्र निर्माण भी होता रहे और सर्वमंगल का प्रसार भी होता रहे। सर्वभूतहित की भावना प्रचारित और स्वीकृत होकर राष्ट्र की समृद्धि होती रहे। किसी भी राष्ट्र या समाज की अभिवृद्धि में नैतिकता का सर्वाधिक महत्त्व है।

ईर्ष्या की जगह स्नेह, द्वेष की जगह प्रेम, असहयोग की जगह सहयोग और निराशा की जगह उत्साह भी भरा जा सकता है जब नैतिकता का परस्पर व्यवहार होने लगे।

निम्न मन्त्र में शुभ कर्मों का अनुष्ठान द्वेषरहित होकर किए जाने का उल्लेख है-
स बोधि सूरिर्मघवा वसुपते वसुदावन्।
युयोध्यस्मद् द्वेषां सि विश्‍वकर्मणे स्वाहा॥181
अर्थात हे धनों के पालक, सुपात्रों के लिए धन देने वाले ! जो प्रशंसित विद्या से युक्त बुद्धिमान आप सत्य को जानने वाले हैं, सो आप सम्पूर्ण शुभ कर्मों के अनुष्ठान के लिए सत्यवाणी का उपदेश करते हुए हमसे द्वेषयुक्त कर्मों को पृथक् कीजिए।

इस रहस्य को जानकर वैदिक भक्त कहता है-
यवयास्मद् द्वेषो यवयारातीः॥182
हे प्रभो ! हमारे जीवनों से घृणा और द्वेष के भावों को दूर कर दो।
अव प्रिया अधूषत॥183
हम प्रेममय होकर सबके दुःख दूर करें।

घृणा और द्वेष के भावों की समाप्ति होने पर ही प्रेम के भाव का उदय हो सकेगा। वैदिक ऋषि एक तरफ घृणा एवं द्वेष की भावना के समाप्त हो जाने की बात करता है तो दूसरी ओर प्रेम से पूर्ण व्यवहार की भी बात करता है।

मनुष्य पर संगति का बहुत प्रभाव पड़ता है। जो व्यक्ति जैसे व्यक्तियों के सम्पर्क में रहता है, वह वैसा ही बन जाता है। सज्जनों की संगति से सज्जनता तथा दुर्जनों की संगति से दुर्जनता आती है। अतएव कहा गया है- संसर्गजा दोषगुणा भवन्ति। संगति से दोष और गुण आते हैं। मनुष्य के विनाश का एक कारण कुसंगति भी है। तब वह नैतिकता को छोड़कर अनैतिक हो जाता है।

यजुर्वेद में कामना की गई है कि हम विद्वानों की सख्यता को प्राप्त हों अर्थात् विद्वानों के संग बैठें-
देवानां सख्यमुपसेदिमा वयम्॥184
विद्वानों का संग सुख प्राप्त कराता है-
यज्ञो देवानां प्रत्येति सुम्नम् ॥185
विद्वानों का संग पवित्रता प्रदान करता है-
पुनन्तु मा देवजनाः ॥186

नैतिकता के लिए मनुष्य के विचारों का शुभ होना भी आवश्यक है। निम्न मन्त्र में सब ओर से शुभ विचार आने की कामना की गई है-
आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्‍वतोऽदब्धासो अपरीतास उद्भिदः।
देवा नो यथा सदमिद्वृधे असन्नप्रायुवो रक्षितारो दिवे दिवे॥187

अर्थात कल्याणकारी, विघ्नरहित, अप्रतिहत, शुभफलप्रद विचार हमें सभी ओर से प्राप्त हों, जिससे आलस्यरहित और रक्षा करने वाले देवता प्रतिदिन सदा ही हमारी समृद्धि के लिए होवें।

मानव विचारों का पुंज है, विचारों का मूर्तरूप है तथा विचारों की समष्टि है। जैसे विचार होते हैं वैसा ही मनुष्य बन जाता है। शतपथ ब्राह्मण में उल्लेख है-
काममय एवायं पुरुष इति स यथाकामो भवति तथाक्रतुः भवति,
यथाक्रतुर्भवति तत्कर्म कुरुते यत्कर्म कुरुते तदभिसम्पद्यतऽइति॥188

अर्थात मनुष्य कामना वाला होता है। मन में जैसी इच्छा करता है वैसा ही आचरण करता है। जैसा आचरण करता है वैसा ही कर्म करता है। जैसा कर्म करता है वैसी गति को प्राप्त होता है।

इसलिए विचारों की शुद्धि पर बल दिया गया है सद्विचार सब ओर से आने चाहिएं। यही कल्याण का मार्ग है। - आचार्य डॉ. संजयदेव (दिव्ययुग - अप्रैल 2016)

सन्दर्भ सूची
176. शतपथ ब्राह्मण- 14.7.2.7
177. यजुर्वेद संहिता- 25.21
178. पारस्कर गृह्य सूत्र- 2.6.19
179. यजुर्वेद संहिता- 18.66
180. यजुर्वेद संहिता- 21.61
181. यजुर्वेद संहिता- 12.43
182. यजुर्वेद संहिता- 5.26
183. यजुर्वेद संहिता- 3.51
184. यजुर्वेद संहिता- 25.15
185. यजुर्वेद संहिता- 8.4
186. यजुर्वेद संहिता- 19.39
187. यजुर्वेद संहिता- 25.14
188. शतपथ ब्राह्मण- 14.7.2.7


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