इस विषय पर सोचते सोचते दीन दुनिया की सारी तकलीफों से निजात दिलाने वाली निद्रा भी बेगानी से हो गई। वास्तव में इस विषय को लेकर ढेरों अंतर्द्वंद मन में उठने लगे और महिला सशक्तिकरण का तात्पर्य ही विचारों की ऊहापोह में कुछ धुँधला सा हो गया जिसका स्पष्ट अर्थ समझने में दिमाग के सारे तार खिंच गए।
महिला सशक्तिकरण का तात्पर्य या केवल शाब्दिक अर्थ महिलाओं को सशक्त बनाना है या इससे इतर, इस से बढ़कर कुछ और। आज के समाज में महिला सशक्तिकरण का तात्पर्य सिर्फ पुरुषों की बराबरी प्राप्त करना तथा उससे भी बढ़कर पद प्राप्ति, उससे भी बढ़कर भौतिक सम्पन्नता अथवा उससे भी अधिक स्वतंत्रता आदि है।
लेकिन क्या यही वास्तव में महिला सशक्तिकरण है? मेरी दृष्टि में महिला सशक्तिकरण का अर्थ केवल शारीरिक शक्ति संपन्नता नहीं है, बल्कि वह इससे बढ़कर, इससे इतर एक बढी हुई अंतश्चेतना है। क्या आज भारतीय सामाजिक जीवन में नारी को सशक्त होने की वास्तव में आवश्यकता है? क्या वह वर्तमान में सशक्त नहीं है? क्या वह अतीत में सशक्त नहीं रही है?
अरे यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता।
यत्रैतास्तु न पूज्यंते सर्वास्तत्राफला क्रिया।। को मानने वाले देश में क्या कभी नारी की स्थिति निम्न रही है?
भारतीय समाज को दिशा और आदर्श प्रदान करने वाले रामचरितमानस में प्रारंभिक वंदना में तुलसीदास जी नारी को उद्भवस्थिति संहारकारिणी क्लेश हारिणी बताते हैं। क्या समाज में ऐसी स्थिति प्राप्त नारी को किसी सशक्तिकरण की आवश्यकता रही है।
नारी तुम केवल श्रद्धा हो, विश्वास रजत नग पग तल में।
पीयूष स्रोत सी बहा करो, जीवन के सुंदर समतल में।।
जहां एक ओर नारी को श्रद्धा रूपिणी तथा अमृत स्रोत को संसार में बहाने वाली बताया गया है। क्या उस समाज में नारी को और सशक्त होने की आवश्यकता है?
दया माया ममता लो आज मधुरिमा लो अगाध विश्वास।
हमारा हृदय रत्न निधि स्वच्छ तुम्हारे लिए खुला है पास।।
जहां स्त्री को दया, माया, ममता से युक्त तथा नारी हृदय को स्वच्छ रत्नों की निधि बताया जा कर पूजा की जा रही है। क्या उस समाज में नारी को सशक्तिकरण की आवश्यकता पड़ गई? जहां देवता भी अपने परिचय में स्त्रियों को साक्षी मानकर अपना संबोधन देते हैं। जहाँ देवों को हवि देने से पहले उनके आह्वान में उनकी पत्नियों के नाम पुकारे जाते हैं। ओम पार्वतीपतये नमः, हे रमापति, हे लक्ष्मीपति, भवानी शंकरौ वंदे, सीताराम, राधाकृष्ण, जहां देव गणों को भी अपना परिचय देने के लिए स्त्रियों को सामने रखना पड़ा उनका परिचय देना पडे। जहां नारी सहधर्मचारिणी कहलाये।
उन आदर्शों के उपासक समाज में क्या कभी नारी को सशक्तिकरण की आवश्यकता है? जहां की वैदिक परंपरा में विश्ववरा जैसी नारियों को अपौरुषेय और ईश्वरकृत वेदों का दर्शन कराया गया, जहां मैत्रेयी, गार्गी, विदुला जैसी नारियां अपने पांडित्य का प्रदर्शन पुरुषों के सम्मुख करें तथा उनसे अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाएँ। क्या उस संस्कृति में भी नारियों को सशक्तिकरण की आवश्यकता है? आखिर सशक्तिकरण की आवश्यकता क्यों पड़ी? सोचने की बात यह है कि वास्तव में उस स्थान से नारी के पतन का कारण क्या रहा?
इस विषय में मैं दो तरह का कारण देख पाता हूँ। एक तो वह जिसकी उत्तरदाई नारी स्वयं हैं और जिसका निराकरण व्यक्तिगत स्तर पर उनके द्वारा आसानी से किया जा सकता है। दूसरा कारण समाज की तात्कालिक परिस्थितियां रही हैं जिनके कारण ऐसी व्यवस्था अपनानी पड़ गई जिसके कारण हमारे समाज में ना चाहते हुए भी स्त्री को निम्न का दर्जा प्रदान कर दिया गया। यह सच है कि विगत कुछ शताब्दियों में स्त्री अपने पद से बहुत नीचे चली गई है लेकिन क्या हमें नहीं लगता कि इसका एक कारण हमारी सोच में परिवर्तन का आना रहा है? आज सशक्तिकरण की आवाज के साथ नारी स्वतंत्रता की पुरजोर वकालत कर रही है। क्या यह सिर्फ स्वतंत्रता है या इसकी आड़ में कुछ और? पुरुष द्वारा किये जा रहे समस्त कार्यों को करने की होड़ चाहे वह उचित हो अथवा अनुचित। क्या यह सही है? आज महिलाएं पब जाना, किटी पार्टीज का आयोजन, आधुनिकता के नाम पर अमर्यादित फैशन और मादक पदार्थों का सेवन करना, चाहे जिस समय चाहे जहां जाएं, सब कुछ अपने मन का करना क्या यही सशक्तिकरण का तात्पर्य है?
मेरी नजर में आज का महिला सशक्तिकरण वास्तव में पाश्चात्य भौतिकतावाद के सानिध्य में पल बढ़ रहे उन विचारों का प्रतिफल है जहां नारी की स्वच्छंदता, उसका चकाचौंध से युक्त जीवन जीना तथा स्वेच्छाचारिणी हो जाना ही सशक्तिकरण का पर्याय बन गया है। वास्तव में आज भारतीय नारी अपने मूल गुणों को छोड़कर उसका अंधानुकरण कर रही है तथा उसके जैसी जीवन शैली को अपनाने को ही महिला सशक्तिकरण समझ रही है। आज भौतिकता की चकाचौंध में नारी अपने नैसर्गिक गुणों को निरंतर खोती जा रही है। सामाजिक व पारिवारिक कार्यों की अपेक्षा आज जिम जाना उसे अधिक भाता है।
एक नई परंपरा अभी कुछ दिनों में देखने को मिली है। जिसे कहते हैं 'ब्रेस्टफीडिंग डे' मनाना। इसमें माताएँ अपने शिशुओं को स्तन्य पान कराकर अन्य महिलाओं को इसके लिये जागरुक करती हैं कि शिशुओं को स्तन्यपान अवश्य करायें। अरे यह कहां की संस्कृति है? अरे आज हमारी माताएं बहने अपने शिशुओं को पाल कर भी स्तनपान नहीं कराती, सोच यह है कि फिगर खराब हो जाती है। क्या यह सशक्तीकरण है? हमारे यहां तो मां अपना शरीर तो क्या आत्मा तक बच्चों की खातिर निछावर कर देती है। वहां यह संस्कृति क्यों कर? जब भी कोई ललकारता है तो यही कहावत मुख से निकलती है कि माँ का दूध पिया है तो बाहर निकल। और बच्चा चाहे जो हो यह चुनौती सहन नहीं कर पाता, बाहर आता है। उस देश में 'बेस्टफीडिंग डे' मानना, क्या हमें आपनी स्थिति को निम्न स्तर तक पहुंचाने का आईना नहीं है? बच्चों को किसी भी समय, कहीं भी जाने देने की स्वतंत्रता देने वाली शिक्षित, संस्कारित तथा सभ्य कहलाने वाली सशक्त माँ की अपेक्षा मेरी नजर में तो गाँव की वह अनपढ़ तथा असभ्य कहलाने वाली अथवा समझी जाने वाली माता अधिक सशक्त लगती है जो घर से बाहर जा रहे बेटा या बेटी को यह हिदायत जरूर देती है कि बेटा घर जल्दी लौटना। आज की शिक्षा पद्धति जिसमें अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त कर अंग्रेजी मानसिकता से संपृक्त होकर ही हमें ऐसा लगता है कि हम तो कमजोर हैं, हमें सशक्त होना चाहिए। अरे जो यह अवधारणा को जन्म देने वाले हैं वास्तव में उन्हें इसकी आवश्यकता है। क्योंकि इस तथाकथित सभ्यता की हिमायती वे नारियाँ आज नारीत्व के मूल गुणों से शून्य हो चुकी हैं।
नारी तो दया, क्षमा, ममता, सहिष्णुता, करुणा, सहानुभूति की प्रतिमूर्ति है, जो कि ईश्वर प्रदत्त गुण हैं। ये सभी गुण देवोचित गुण हैं। जिन गुणों की प्राप्ति के लिए पुरुष युगों-युगों से घर-बार, राज-पाट छोड़कर तपस्या करता हुआ वन-वन भटकता है। वह सारे दैवीय गुण तो नारी में जन्मजात हैं।
अब सशक्तिकरण के विषय में वास्तविकता यह है कि जो गुण नारी को ईश्वर द्वारा प्रदान किए गए हैं उन गुणों को ही उत्कृष्ट रूप में यदि साधने का प्रयत्न किया जाए तो किसी भी सशक्तिकरण या शक्तिकरण की आवश्यकता ही नहीं है। गोदान उपन्यास को लिखते हुए प्रेमचंद कहते हैं कि जब पुरुष नारी के गुणों को धारण कर लेता है तो वह देवत्व को प्राप्त कर लेता है तो फिर नारी इन गुणों को हीन क्यों समझती है?
खैर जो भी स्थिति है तो वर्तमान परिप्रेक्ष्य में भी नारी किसी भी रूप में अक्षम नहीं है। आज हर क्षेत्र में चाहे राजनीति हो, आर्थिक हो, सामाजिक हो, विज्ञान हो अथवा धार्मिक। प्रत्येक क्षेत्र में नारी शक्ति अपना पुरजोर प्रतिनिधित्व कर रही है। उसके योगदान से कोई क्षेत्र अछूता नहीं है। चलो आज समाज में नारी को कम माना जा रहा है तो सरकारों के द्वारा इनके उत्थान के लिए अनेक प्रावधान भी किए गए हैं। सब सभी क्षेत्रों में महिलाओं के सशक्तिकरण हेतु विशेष प्रधानता दी जा रही है। नौकरियां हो या अन्य क्षेत्र सब में आरक्षण का प्रावधान है यहां तक कि पंचायती राज में भी उनका प्रतिनिधित्व तय किया गया है जिससे उनके उन्नयन का कोई भी मौका रह ना सके।
अब एक सबसे बड़ी बात - आज के समय में कोई महिला अशक्त नहीं है अपितु आज तो नारी के सामने तो पुरुष ही अपने को अशक्त महसूस करते हैं और उन बेचारों को ही पुरुष सशक्तिकरण की ज्यादा आवश्यकता रहती है। यह उचित नहीं है। आज की किसी भी महानगरीय शिक्षित सभाओं की स्थिति तो ऐसी है कि कुछ सशक्त महिलाएं ही सामने बैठी हुई अनेकों सशक्त महिलाओं से कहती हैं कि हमें सशक्त होना चाहिए।
अरे वास्तव में इन कार्यक्रमों का आयोजन तो गांव देहात के क्षेत्रों में, झुग्गी झोपड़ियों में, गाँव-ढाणियों की उन झोंपड़ियों में किया जाना चाहिए जहां की नारी यह जानती ही नहीं कि सशक्तिकरण होता क्या है जिनका जीवन आज भी अत्यंत कष्टप्रद स्थिति में जिया जा रहा है। शिक्षा तथा सुधार जैसी बातों से जो पूर्णतया अनभिज्ञ हैं। अरे हम तो किसी शुभ कार्य से पहले कन्याओं का पूजन तथा भोजन देवी के प्रतीक रूप करते-करवाते हैं। गांव देहात में अनपढ़ महिलाओं के सामने इन कार्यक्रमों को करने से उनमें एक चेतना जागृत होगी उनमें कुछ सुधार होंगे, वे भी जागरूक होंगी और उनका सामाजिक जीवन और सभी क्षेत्रों में जीवन बेहतर हो सकेगा।।
निष्कर्ष : आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी बाणभट्ट की आत्मकथा में लिखते हैं कि नारी की सार्थकता पुरुष को बांधने में है किंतु नारी जीवन की सार्थकता उसे मुक्ति देने में है।
महिला सशक्तिकरण के विषय में वास्तविकता यह है कि जो गुण नारी को नैसर्गिक रूप से प्राप्त हैं उन्हीं शक्तियों को, उन्हीं गुणों को उच्चता के शिखर पर पहुंचाकर जीवन जीना ही सबसे बड़ा सशक्तिकरण है। - अक्षांश भारद्वाज 'अक्षर' (दिव्ययुग- जून 2015)
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