श्रावणी वैदिक कालीन पर्वों में से अन्यतम है। इसका उद्देश्य प्रमाद या अज्ञानवश किए गए दुष्कर्मों को सविधि प्रायश्चित द्वारा दूर करके भविष्य में शुभ कर्म की प्रेरणा देना है। इस अवसर पर की जाने वाली क्रियाओं के मूल में यही पवित्र भावना है और यही ऊंचा आदर्श है। इसी दिन रक्षासूत्र भी हाथ में बांधा जाता है, जो शारीरिक व्याधियों के साथ-साथ शत्रु से भी अभय प्रदान करता है। श्रावणी शुक्ल पूर्णिमा को दो प्रमुख पर्व मनाए जाते हैं। श्रावणी उपाकर्म और रक्षाबन्धन। उपाकर्म शुद्ध वैदिक पर्व है। किसी नदी, जलाशय या समुद्र तट पर सामूहिक रूप से विधिपूर्वक स्नान, पूजन, हवन करके यह पर्व सम्पन्न किया जाता था। इस दिन यज्ञोपवीत का परिवर्तन किया जाता था और ऋषि पूजन आदि का विधान था।
प्राचीनकाल में इसी दिन से वेदाध्ययन आरम्भ की तिथि नियत थी। इस समय ऋषि, महर्षि, आचार्य चातुर्मास व्रत के पालन में अपने आश्रमों में उपस्थित रहते थे और शान्तिपूर्वक अध्यापन कार्य करते थे। इस दिन से आरम्भ करके साढे चार महीनों तक वेदाध्ययन होता था और पौष की अष्टमी के बाद शुक्ल पक्ष में वेद व कृष्ण पक्ष में वेदांग पढ़ाए जाते थे। नियमित वेदाध्ययन की समाप्ति को समावर्तन कहा जाता है।
श्रावण की पूर्णिमा को प्रातः ही श्रुति-स्मृति विधानानुसार स्नानादि कृत्य करें। यह आत्म शोधन का पुण्य पर्व है। सावधानी के साथ रहने वाले व्यक्तियों से भी प्रमादवश कुछ न कुछ भूल हो जाती है। इन दोषों को दूर करने और पाप से मुक्ति के लिए ही श्रावणी का संकल्प कर्मकाण्ड का सबसे बड़ा संकल्प है। उसमें ज्ञात-अज्ञात अनेक पापों का नामोल्लेख कर उनमें मुक्ति पाने की कामना की गई है।
श्रावणी पूर्णिमा पर मिट्टी, गोबर, भस्म, पंचगव्य, अपामार्ग, कुशायुक्त जल आदि द्वारा स्नान का विधान है। इससे शारीरिक शुद्धि होती है।
वेदाध्ययन करने वाले साधक ऋषिपूजन सम्पन्न करते थे। पक्ष की समाप्ति पर राजा आश्रम के अध्यक्ष की पूजा करते थे और वे आशीर्वाद के रूप में पीले रंग का सूत्र बांधते थे, जिसे रक्षासूत्र कहा जाता है।
सर्व रोगोपशमनं सर्वाशुभ विनाशनम्।
सकृत्कृतेनाब्दमेकं येन रक्षा कृतो भवेत्।
अर्थात् यह रक्षासूत्र समस्त रोगों को दूर व समस्त विघ्नों को नष्ट करने वाला है। यह रक्षा सूत्र पूरे एक वर्ष तक सभी रोगों ओर व्याधियों से सुरक्षित रखता है। इस प्रकार श्रावणी उपाकर्म और रक्षासूत्र बन्धन दोनों कार्य एक साथ सम्बद्ध हो गए।
श्रावणी को स्नान का विशेष महत्व है। स्नान सम्बन्धी विधियाँ बहुत वैज्ञानिक आधार पर निश्चित की गई है। मृत्तिका, भस्म, गोमय, कुशा, दुर्वा आदि की स्वास्थप्रद और रोग कीटाणु नाशक शक्तियों को सभी मानते हैं। वर्षाऋतु में नाना प्रकार की औषधियाँ और जड़ी-बूटियाँ उत्पन्न होती हैं। गाय आदि पशु इन्हीं औषधियों का सेवन करते हैं। इसलिए इस गोबर की विशेषता है कि यह सब प्रकार के विष और कीटाणुओं का नाशक है। दुर्गंध को दूर करता है। मिट्टी के तेल की गन्ध साबुन से कठिनाई से दूर होती है, किन्तु गोबर मलने से दूर हो जाती है। स्नान के समय विभिन्न प्रकार की औषधियों से मिश्रित जलकण मस्तिष्क को शीतलता प्रदान करते हैं। इस प्रकार श्रावणी की सारी प्रक्रिया मनुष्य की सर्वाधिक शुद्धि के लिए बहुत लाभकारी है।
इसी तरह पंचगव्य के पदार्थों की उपयोगिता तो आयुर्वेद ने भली-भांति स्वीकृत की है। इनसे शारीरिक शुद्धि और पुष्टि दोनों होती है।
श्रावणी के अवसर पर मानसिक शुद्धि के लिए सूर्योपस्थान का अनुष्ठान अमोघ साधन है। सूर्य भगवान हमारे मन और बुद्धि के प्रेरक हैं। गायत्री मन्त्र में बुद्धि को प्रेरणा देने की ही प्रार्थना की गई है। सूर्योदय होते ही लोगों के मन में नया जीवन, नई चेतना और नई स्फूर्ति आ जाती है। यह प्रत्यक्ष ही है। इसके अतिरिक्त ऋषि पूजन, स्वाध्याय आदि का सम्बन्ध सीधे हमारी आत्मा से है। अतः यह आत्मिक शुद्धि का अनुष्ठान है।
ऋषि पूजन के समय वंश परम्परा का भी पाठ होता है, जिसे सुनकर हृदय में अपने महान् पूर्वजों के प्रति गौरव के भाव जाग्रत होते हैं। इस प्रक्रिया से हमें अपनी प्राचीन परिपाटी के पालन का प्रोत्साहन मिलता है।
श्रावण की पूर्णिमा का दूसरा महत्वपूर्ण कृत्य रक्षाबन्धन है। यह भी उतनी ही प्राचीन परम्परा है। इसका संकेत पहले किया गया है। भविष्य पुराण में बताया गया है कि देव-दानव संग्राम के समय इन्द्र के हताश होने पर इन्द्र पत्नी शची ने आज के दिन वैदिक मन्त्रों से अभिषिक्त एक रक्षासूत्र उनके हाथ में बांधकर उन्हें अभय बना दिया था। इसी रक्षासूत्र के बल पर इन्द्र ने अपने शत्रुओं पर विजय प्राप्त की थी। तब से यह पर्व प्रतिवर्ष मनाया जाने लगा और लोकप्रिय होता गया। लाखों वर्षों से हिन्दू जाति इस पर्व से नई स्फूर्ति, नया विश्वास और नया बल ग्रहण कर जीवन पथ पर बढ़ती चली जा रही है। राजा बलि को भी रक्षासूत्र बांधा गया था। - प्रो. वाचस्पति उपाध्याय
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