ओ3म् इन्द्रो अङ्ग महद् भयमभीषदप चुच्यवत्॥
स हि स्थिरो विचर्षणिः॥ ऋग्वेद 2.41.10॥
ऋषिः गृत्समदः॥ देवता इन्द्र ॥ छन्दः गायत्री॥
विनय- हे प्यारे! तू क्यों घबराता है? तेरे सामने जो भय उपस्थित है उससे बहुत बड़े भय और बहुत भारी विपत्तियाँ मनुष्य पर आ सकती हैं और आती हैं। परन्तु हमारे परमेश्वर पर सबको क्षण में टाल सकते हैं और टाल देते हैं। उसके सामने, उसके मुकाबिले में आये हुए महान् से महान् भय पलभर भी नहीं ठहर सकते। हे प्यारे! तू देख कि इस संसार में एक वह इन्द्र ही स्थिर वस्तु है। वही सत्य है, सनातन, अटल, अच्युत है, कभी नष्ट न होने वाला है। शेष सब कुछ क्षणभंगुर है, विनश्वर है, अशाश्वत है और चला जाने वाला है। यही एक महासत्य है जिसे सिखाने के लिए संसार में चौबीसों घण्टों की घटनाएँ हो रही हैं। हे मनुष्य ! तू इस महासत्य पर विश्वास कर और निर्भय हो जा। वास्तव में संसार के सब दुःख, क्लेश, भय, समट टल जाने वाले हैं, नश्वर हैं, क्योंकि ये नश्वर वस्तुओं द्वारा और अज्ञान द्वारा बने हैं। संसार में जो अनश्वर है, अटल है वह तो परमेश्वर ही है। इस समय चाहे तुझे यह भय-ही-भय चारों तरफ नजर आता हो, पर उस अटल इन्द्र की शरण पकड़ने पर यह सब ऐसे जाता रहेगा जैसे कि सदा रहने वाले अटल सूर्य इन्द्र के सामने से नष्ट हो जाने वाले बादलों का भारी से भारी समूह जाता रहता है, छिन्न-भिन्न हो जाता है, वह सदा सूर्य को घेरे नहीं रह सकता। अतः हे प्यारे! तू अब उस परमेश्वर की ही शरण पकड़ जो कि स्थिर है और ‘विचर्षणि’ है, जो सदा रहने वाला है और इस सब जगत् को ठीक-ठीक देखने वाला सर्वज्ञ है। यह समझते ही तेरे सब भय मिट जाएंगे। इन्द्र को स्थिर और विचर्षणि जाने लेना ही उसकी शरण में आ जाना है। जिसने सचमुच उसे एकमात्र नित्य और सर्वज्ञ वस्तु करके देख लिया है वह उसे छोड़कर और कहाँ अपना आश्रय टिका सकता है और जिसने उसके इस रूप को देख लिया उसके सामने कौन सा भय ठहर सकता है? इसलिए प्यारे! तू घबरा मत, तू उसकी शरण पकड़। यह सामने आये हुए इस छोटे से भय को ही नहीं मिटा देगा, अपितु एक दिन आएगा जबकि यह जगदीश्वर तुझसे संसार के सबसे भारी भय को, बार-बार जीने-मरने के महाभय को भी छुड़ाकर तुझे सदा के लिए अजर-अमर और अभय कर देगा।
शब्दार्थ- अङ्ग=हे प्यारे! इन्द्रः=इन्द्र परमेश्वर तो अभीषत्=सामने आये हुए महद् भयम्=बड़े भय को भी अप चुच्यवत्=विनष्ट कर देता है। सः हि=वह ही निश्चयपूर्वक स्थिरः=स्थिर है, अचल है, शाश्वत है और विचर्षणि=सब जगत् को ठीक-ठीक देखने वाला है। - आचार्य अभयदेव विद्यालंकार
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