विशेष :

तुम्हारी शरण में

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ओ3म् नो लोकं अनुनेषि विद्वान स्वर्वत् ज्योतिरभयं स्वस्ति।
ऋष्वात इन्द्र स्थविरस्य बाहू उपस्थेयाम शरणा बृहन्ता॥ ऋ. 6.47.8, अथर्व. 11.15.4

ऋषि गर्गः॥ देवता इन्दः॥ छन्दः विराट् त्रिष्टुप्॥

विनय- हे परम ईश्‍वर! हे सब कुछ जानने वाले! तुम हमें ज्ञान देकर कभी अपने विस्तीर्ण खुले, अपार लोक में पहुँचा देते हो। उस लोक में जहाँ कि आनन्द ही आनन्द है और ऐसा आनन्द है कि उसकी प्रतिक्रिया में दुःख, सन्ताप का जन्म नहीं हो सकता। उस ज्योतिर्मय लोक में जहाँ प्रकाश का साम्राज्य है और जहाँ विस्तीर्ण शुभ प्रकाश-सागर में अज्ञान व अन्धकार की छाया तक नहीं पड़ सकती। उस लोक में जहाँ परिपूर्ण अखण्ड अभयता है। इन भय के भूतों का जिनसे कि हम यहाँ हरदम सताये रहते हैं, जहाँ नामोनिशान नहीं है और उस लोक में जहाँ कि कल्याण ही कल्याण बरसता है, अकल्याण की कल्पना की जहाँ कल्पना तक नहीं हो सकती है। हे इन्द्र! तुम ऐसे लोक के वासी हो। हम मनुष्यों को (जीवों को) वहाँ ले जा सकते हो! हे मेरे स्वामिन्! अपनी बाहुओं को फैला दो और अपनी महान शरण में हमें ले लो। हे महान् देव! तुम्हारे ये बाहू सब पाप-ताप का ध्वंस करने वाले हैं, क्लेश-कष्ट का नाश करने वाले हैं, विघ्न बाधाओं को हटाने वाले हैं। इनकी महान शरण का आश्रय पाये हुए को दुःख अज्ञान, भय व अकल्याण का स्पर्श भी कैसे हो सकता है? अपने बाहू फैलाओ करुणामय! हमें उठाने के लिए अपने ये वात्सल्य बाहू बढ़ाओ जिससे कि हम तुम्हारी परम शरण में आ बैठें, वह गोद जिसमें बैठकर कोई क्लेश नहीं, भ्रम नहीं, भय नहीं, रोग नहीं।

शब्दार्थ- इन्द्र=हे इन्द्र! त्वं विद्वान्=तू सर्वज्ञ नः उरं लोकं अनुनेषि=हमें उस महान् विस्तृत लोक में पहुँचा देता है जहाँ स्वर्वत्=आनन्द ज्योतिः=प्रकाश अभयम्=अभय और स्वस्ति=कल्याण ही है। हे परमेश्‍वर! ते स्थविरस्य बाहू=तुझ महान् देव के बाहू ऋष्वा=सब विघ्न-बाधाओं का नाश करने वाले हैं बृहन्ता शरण=हम उस तुम्हारी (बाहुओं की) अपार शरण में उपस्थेयाम=बैठ जाएँ। - आचार्य अभयदेव विद्यालंकार

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