कहाँ है वह चरित्र, जिसकी शिक्षा हमें ऋषियों ने दी थी? कहाँ है वह चरित्र जिसकी अपेक्षा कृष्ण ने, चाणक्य ने, समर्थ रामदास ने, महर्षि दयानन्द और स्वामी विवेकानन्द आदि ने की थी? कहाँ है वह चरित्र जिसके दर्शन हमें दशरथ के पुत्रों, अर्जुन, सम्राट चन्द्रगुप्त, छत्रपति शिवाजी आदि में होते हैं? कहाँ है वह महान् नारी चरित्र जो हमारे गौरवशाली इतिहास की निधि है? इसके विपरीत जो चरित्र वर्तमान में हमारे सामने हैं, चिन्तनीय हैं। राष्ट्रीय उत्तरदायित्वों के प्रति उदासीन, अपने छोटे-छोटे तुच्छ स्वार्थ की पूर्ति के लिए राष्ट्र के रक्षा-हितों को बेच देने वाले भ्रष्ट चरित्र, मानवीय हितों के विरुद्ध जीवनरक्षक दवाइयों तक में मिलावट कर तड़पते बीमारों की जीवन लीला समाप्त करने वाले हत्यारे, छोटे-छोटे साम्प्रदायिक व जातीय हितों के लिए अपने ही देशवासियों से घृणा करने वाले अदूरदर्शी तथा घमण्डी, अपने वैभव पर इतराने वाले, विलासिता के अन्धे गर्त में डूबे हुए आत्मगौरव को भूले-बिसरे तथाकथित युवक, नारी-स्वातन्त्र्य के नाम पर उच्छृंखलता को अपनाकर विदेशी संगीत की धुन पर अश्लील नृत्य करती हुई युवतियाँ जिनके जीवन का अन्त, हतभाग्य कहाँ और कैसे होता है कुछ नहीं कहा जा सकता। इस दुश्चरित्रता का ही परिणाम है कि हमने अपने आपको, अपने देश को और अपनी महान् संस्कृति को उस मुकाम पर पहुँचा दिया है, जहाँ मौत की काली छाया मण्डरा रही है। हम विनाश के कगार पर पहुँच गए हैं।
पाप की मदिरा का स्वाद बड़ा मीठा और जायकेदार होता है। इसका उत्पादन विदेशों में, खासकर अमेरिका में हुआ है। वहीं से आयात होकर यह पाप की मदिरा आयी है। अब तो इसका उत्पादन भारत में ही होने लगा है। इसका नशा रग-रग में समाता जा रहा है। इसके परिणामस्वरूप हम अपनी विश्ववरेण्य संस्कृति से दूर होते जा रहे हैं, बिखर रहे हैं, टूट रहे हैं, स्वतन्त्रता का भाव मिटता जा रहा है, आत्मगौरव के स्थान पर आत्महीनता पनप रहीं है। इस नशे में मदहोश चरित्र की यह विशेषता है कि व्यक्ति सांस्कृतिक महत्ता को भूल जाता है और देश के खण्ड-खण्ड बिखरते जाने पर भी उसे कोई सन्ताप नहीं होता। विदेशी शक्तियाँ जो भारत को सुगठित तथा सुसम्पन्न राष्ट्र के रूप में देखना नहीं चाहतीं, इसी दिन का इन्तजार कर रही हैं। हम उसी ओर धकेले जा रहे हैं। नशा चढ रहा है। संस्कृति के दुश्मन अट्टहास कर रहे हैं। इस लत से हमें कौन मुक्त करेगा? कौन बचा सकता है? उत्तर है, अन्य कोई नहीं। इसका उत्तर कहीं नहीं है। जिस दिन जब हममें अपने देश, अपनी संस्कृति, अपनी परम्परा पर मण्डराते खतरों की गहरी समझ उत्पन्न होगी, तभी से आप स्वयं उत्तर की खोज में लग जाएँगे। स्वयं को ही उत्तर पाना होगा, स्वयं को ही खतरों से टकराना होगा और संकटों से उबरना होगा। भ्रष्ट आचरणों से बचने का यही उपाय है। तब तक इस ओर अग्रसर होने के प्रथम सोपान के रूप में इतना मान लेना आवश्यक है कि हम आर्य हैं। किसी भी सिद्धान्त को चरित्र का अंग बनाने के तीन क्रम होते हैं- प्रथम मानना, दूसरा जानना और तीसरा अपनाना। सर्वप्रथम यह मान लीजिए कि हम आर्य हैं। अब इसके बाद इसे जानने का प्रयास कीजिए। इसके पश्चात ही इसे अपने जीवन का अंग बनाने की साधना का प्रारम्भ होता है। ज्ञान ही कर्म में परिवर्तित होकर चरित्र का निर्माण करता है।
हम आर्य हैं, तो आर्यत्व क्या है? ऐसा ही एक प्रश्न एक बार सम्राट चन्द्रगुप्त ने अपने मार्गदर्शक आचार्य चाणक्य से किया था कि ‘‘महाप्रभु ! आर्यत्व किसे कहते हैं? आर्य के प्रमुख लक्षण क्या हैं?‘‘ अत्तर देते हुए चाणक्य ने कहा था- ‘‘महामति चन्द्र ! मानवीय गुणों की सम्पन्नता ही आर्यत्व है और देवत्व की प्राप्ति उसका लक्ष्य। आर्य, श्रुति और ब्रह्म में निष्ठावान होता है। उसमें दासत्व की भावना का अभाव होता है। इस भाव के रहते वह अजेय है।‘‘ इस मान्यता से कौन इनकार कर सकता है? जैन आर्य हैं, बौद्ध भी आर्य हैं, सिख, सनातनी, आर्यसमाजी सभी आर्य ही तो हैं, उत्तर-दक्षिण, पूर्व-पश्चिम सभी दूर फैले हुए सभी आर्य हैं। बस, आवश्यकता है आर्यत्व को जानने की तथा उसे अपनाने की। अब समय आ गया है, जब हमें इस सत्य को स्वीकार करना होगा। यही हमारी ढाल है, यही हमारी शक्ति है। इसकी आराधना करें। (दिव्ययुग- दिसंबर 2015)
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