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कैसा हो आदर्श राष्ट्र

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How is the Ideal Nation

ओ3म् यत्र ब्रह्म च क्षत्रं च सम्यञ्चौ चरतः सह।
तँल्लोकं पुण्यं प्रज्ञेषं यत्र देवाः सहाग्निना॥ यजुर्वेद 20.25॥

शब्दार्थ- यत्र = जहाँ, जिस राष्ट्र में, ब्रह्म = वेद, विद्या, अध्यात्म, क्षत्रम् = क्षतात् त्रायते, क्षत्रिय, सम्यञ्चौ = सामञ्जस्य से चरतःसह=साथ-साथ चलते हैं, तम् = उस, लोकम् = राष्ट्र को, पुण्यम् = पुण्य लोक, प्रज्ञेषम् = समझते हैं विद्वान्, यत्र = जिस राष्ट्र में राजा, शासन, सह = साथ, अग्निना = संकल्प, ओज, विज्ञान, भावार्थ- जिस राष्ट्र में विद्वान् और अध्यात्म के साथ राज्य एवं शासक सामञ्जस्य पूर्वक रहते हैं, वह राष्ट्र पुण्यराष्ट्र होता है, यदि नागरिकों में देव भाव, संकल्प, विज्ञान विद्यमान हो।
विचार विन्दु-
1. पुण्य राष्ट्र की शर्त है- विद्या, अध्यात्म और सुराज्य।
2. विद्वानों और शासकों में सहयोग सामञ्जस्य हो।
3. राष्ट्रीयता की भावना, स्वदेश प्रेम, इतिहास प्रेम से देवत्व की प्राप्ति होती है।
4. संकल्प, ओजस्विता, विज्ञान, शिल्प, तकनीक, सब अग्नि का रूप है।
5. संसार ऐसे राष्ट्र को पुण्य राष्ट्र समझता है।

व्याख्या- मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। वह परिवार, समाज और राष्ट्र तीनों की आवश्यकता समझता है। परिवार पुण्यवान हो, समाज भी पुण्यवान हो और राष्ट्र भी पुण्यवान हो। प्रस्तुत मन्त्र में यह बताया गया है कि कैसा राष्ट्र पुण्य राष्ट्र होता है। पुण्य राष्ट्र की शर्त है कि वहाँ ब्राह्मण और क्षत्रिय दोनों ही आपस में सामजस्य, सहयोग से रहें। पुण्य राष्ट्र वही होगा जिसमें आत्मनिर्भरता हो और चरित्र की उच्चता एवं आर्थिक सम्पन्नता हो। मन्त्र कहता है कि राष्ट्र के चार वर्ग हैं- ब्राह्मण जो विद्या पढते हैं, विद्या पढाते हैं और विद्या का ही काम करते हैं। आज की भाषा में वे चाहे मसिजीवी कहलावें या कलम के सिपाही कहलावें अथवा प्रथम श्रेणी के बौद्धिक कार्य करनेवाले लोग हों, सब ब्राह्मणों की कोटि में हैं। वैदिक-संस्कृति में ब्राह्मण जन्म से नहीं, अपितु अपनी वृत्ति अथवा काम से होता है। कोई भी ब्राह्मण हो या क्षत्रिय उसमें उस वर्ग के गुण-कर्म-स्वभाव होने ही चाहिएं।

मन्त्र कहता है कि ब्राह्मण में उसकी विद्या का तेज हो। ध्यान रखना चाहिए कि ब्राह्मणत्व किसी के जन्म का अधिकार नहीं है। सभी को ब्राह्मण बनने का सुयोग मिलना चाहिए।
(1) विद्या निःशुल्क होनी चाहिए।
(2) सबको विद्या प्राप्त करने का समान अधिकार होना चाहिए।
(3) भोजन, पुस्तक, आवास सबको समान रूप से मिलना चाहिए।
वेदों की व्यवस्था में न क्रीमीलेयर-मखनिया वर्ग और न सर्वहारा वर्ग ही है। वहाँ राष्ट्र का सम्पूर्ण धन सम्पूर्ण राष्ट्र का है और सबको शिक्षा प्राप्त करने का काम करने का समान अधिकार है।
क्षत्रिय राष्ट्र के शासक और रक्षक होते हैं। चाहे विधि-कानून बनावें (विधानसभा या संसद) कार्यपालिका-मन्त्रीमण्डल और न्यायपालिका, न्यायाधीश, पुलिस, सेना सभी क्षत्रिय वर्ग के हैं। जो उत्पादन के क्षेत्र में हैं वे वैश्य हैं और जो सेवक वर्ग के हैं, चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी वे सब सेवक हैं। सामञ्जस्य तो सबमें रहना चाहिए, किन्तु शासक और विद्वान में समन्वय का बहुत महत्व है।
स्वेच्छाचारी शासक विद्वानों से डरते हैं। विद्वान यदि असावधान होवें और उचित और सत्य बोलने से कतराने लग जायें तो राष्ट्र का विनाश ही होता है। किसी कवि ने ठीक ही कहा है-
कलम के सिपाही अगर सो गये तो, वतन के मसीहा वतन बेच देंगे।

अतः ब्राह्मण को, बुद्धिजीवियों को, कलम के सिपाहियों को सदा सावधान ही रहना चाहिए।

अपने देश में जब आपातकाल की घोषणा हुई थी तो सरकार के जितने भी समालोचक, पत्रकार, विद्वान-वक्ता थे, सब जेलों में ठूंस दिये गये थे। कोई भी निष्पक्ष चिन्तक बाहर न रह गया था। इसलिए प्रस्तुत मन्त्र में कहा गया है कि वही राष्ट्र पुण्य-राष्ट्र होता हैं जहाँ राजा और ब्राह्मण, शासक और बुद्धिजीवी आपस में समन्वय-सामञ्जस्य से काम करें।

विद्वानों का काम है- निष्पक्ष भाव से शासन का मार्गदर्शन करें और शासन का काम है कि वह निष्पक्ष राष्ट्र के हितैषी विद्वानों के परामर्श से राष्ट्र का सर्वमुखी विकास करे। शासन के मुख्य कार्य हैं- (1) शान्ति और सुव्यवस्था (2) सर्वहितकारी, बिना किसी दल, वर्ग, प्रान्त, अंचल का विचार किये, सम्पूर्ण देश को समान रूप से लाभ पहुँचाया जाये। (3) शासन में न्याय सुलभ, शीघ्र और सस्ता हो। प्रायः निर्धनों को न्याय नहीं मिल पाता और धनी-समर्थ को किसी भी अन्याय का दण्ड नहीं मिलता। लोग कहने लगते हैं कि समरथ को नहिं दोष गोसाईं, रवि सुरसरि पावक की नाईं। यह राष्ट्रीय अन्याय है, पाप है।

मन्त्र में बड़े महत्व की बात यह कही गई है कि राष्ट्र में देवबुद्धि हो और सबमें समान रूप से ओज, तेज, विज्ञान भरा हुआ हो। वस्तुतः जहाँ राष्ट्रीयता की भावना है, स्वदेश-प्रेम है, अपने देश के गौरव से प्रेम है, वह राष्ट्र पुण्य-राष्ट्र होता है। अग्नि है सुसंकल्प, सो नागरिकों में सुसंकल्प हो, ओजस्विता हो, विज्ञान, शिल्प, तकनीक हो तो वह राष्ट्र अग्नि का उपासक होगा। हमें स्मरण रखना चाहिए-
संसार पूजता जिन्हें तिलक, रोली, फूलों के हारों से,
मैं उन्हें पूजता आया हूँ, बन्धु सदा अंगारों से।

राष्ट्र में अग्नि क्या और कैसे? इस मन्त्र में किसी भी पुण्य राष्ट्र के लिए दो शर्तें दी गई हैं- एक ब्राह्मशक्ति अर्थात् ज्ञान, विद्या, विद्वान् और दूसरी क्षात्र शक्ति सेना, पुलिस, शासन-तन्त्र कार्यपालिका, विधिपालिका, इन सबमें सामञ्जस्य हों, दूसरे जहाँ देवबुद्धि अग्नि के साथ हो। यत्र देवाः सहाग्निना। जहाँ
देवबुद्धि भी हो और अग्नि तत्व की भरपूर उपासना हो। देवतत्व है देने की भावना। राष्ट्र में देव हों अर्थात् देश के लिए त्याग, बलिदान की भावना हो, साथ ही देश में अग्नि तत्व की भी उपासना हो। अग्नितत्व में संकल्पाग्नि की बड़ी महत्ता है। सम्पूर्ण देश कोई संकल्प ले लेता है तो देश में बड़ी भारी शक्ति खड़ी हो जाती है। किसान कृषि-उत्पादन का संकल्प लें, उद्योगपति अपने उद्योग में उत्पादन बढाने का संकल्प लें, शासकवर्ग ईमानदार शासन का व्रत लें, विद्यार्थी अध्ययन का व्रत लें। अभिप्राय यह है कि सम्पूर्ण राष्ट्र व्रत में दीक्षित हो जाये।

अग्निना सह का अर्थ और भाव है कि देश में विज्ञान, वायुयान, अणुशक्ति, परमाणु शक्ति इन सबका पूर्ण विकास हो। साथ ही विज्ञान कृषि के उत्पादन और उद्योग को सहयोग करे। विज्ञान का प्रयोग केवल परमाणु अस्त्रों के लिए ही न हों बल्कि कृषि उत्पादन, स्वास्थ्य, संचार आदि समाज के उपयोगी लाभकारी कार्यों के लिए भी हो। देश में राष्ट्रीयता का भाव भी भरपूर विद्यमान रहे।

और भी-
जिसमें न निज भाषा तथा निज देश का अभिमान है।
वह नर नहीं नर-पशु, निरा है और मृतक समान है॥

जिस राष्ट्र में विद्वान् ब्राह्मण राष्ट्रीय नीतियों का निर्धारण करते हैं, शासक शान्ति, सुव्यवस्था, न्याय से शासन करते हैं, जहाँ राष्ट्र का तेजस्वी संकल्प होता है, जहाँ उच्चकोटि के वैज्ञानिक आविष्कार होते रहते हैं। विभिन्न वर्गों में समन्वय सामञ्जस्य से राष्ट्रीय कार्य होते रहते हैं, वह पुण्य राष्ट्र होता है। - प्रो. उमाकान्त उपाध्याय (दिव्ययुग- जनवरी 2016)

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