व्यवहार में आर्य शब्द का प्रयोग
यहाँ विचार्य ‘आर्य‘ शब्द व्यवहार में जहाँ विविध विभक्तियों में प्रयुक्त होता है, हुआ है, वहाँ वह गुणवाचक होने से अधिकतर विशेषण रूप में भी है। अतः प्रथम यहाँ भाषा की प्रयोग प्रक्रिया की ओर ध्यान आकर्षित किया है।
भाषा की अपेक्षा- मानव समाज में भाषा का एक प्रतिष्ठित स्थान है। मनुष्य अपने भावों को प्रकट करने के लिए भाषा का प्रयोग करता है। इससे उस का जीवन व्यवहार सरल-सरस-स्पष्ट-सक्षम हो जाता है। भाषा-शब्द प्रमुख रूप से बोलने के अर्थ को अभिव्यक्त करता है। इसका लिखित रूप में भी प्रयोग होता है, जो कि स्थायी तथा प्रभावपूर्ण बन जाता है। वह साहित्य संज्ञा से पुकारा जाता है।
स्वरूप- भाषा वाक्य रूप में बोली जाती है। वाक्य पदों (शब्दों) का समूह होता है। तभी तो कहा जाता है- पद समुच्चयो वाक्यम्। वहाँ एकतिङ् आवश्यक है। सुप्तिङन्तं पदम् चाहे अतिप्रसिद्ध है, फिर भी नाम (सुप्), क्रिया (आख्यात, तिङ्), उपसर्ग, निपात भेद से पद चार प्रकार के हैं। नाम-कर्त्ता-कर्म-करण आदि के भेद से वाक्य में पद अपेक्षा अनुसार प्रयुक्त होता है। इनको कारक शब्द से भी स्मरण करते हैं, जो आठ विभक्तियों में विभाजित हैं। नाम विशेष्य, विशेषण, सर्वनाम आदि के साथ संलग्न होकर भावसम्प्रेषण को अनूठा रूप दे देता है। ऐसे ही क्रिया काल तथा तत्सम्बद्ध लकार के साथ प्रयुक्त होती है।
शब्दार्थ- व्यवहार संचालन के लिए अपेक्षा के अनुरूप हम जिन शब्दों का प्रयोग करते हैं, वे धातु (पूर्वभाग) और प्रत्यय (उत्तरभाग) के मेल से बनते हैं। इसी के आधार पर ही शब्दों का अर्थ भी सामने आता है। इनमें से आख्यात का प्रभाव प्रमुख रहता है। इन दोनों के योग से ही शब्द यौगिक, योगरूढ कहलाते हैं। प्रकरण अनेक बार शब्द का अर्थ सुनिश्चित करा देता है।
आज हम भाषा का जैसा व्यवहार करते हैं, वह संस्कृत भाषा से प्रचलित हुआ है। सभी भाषाओं की प्रचलित भाषा प्रक्रिया संस्कृत भाषा को प्राचीनतम भाषा सिद्ध करती है। संस्कृत भाषा की प्रथम पुस्तक वेद हैं।
आर्य शब्द- वेद अपने मानने वालों को आर्य शब्द से अभिहित करता है। तभी तो इतिहास की पुस्तकों में प्राचीन भारतीय आर्य कहलाते हैं और उनके देश को आर्यावर्त कहा जाता है। आर्य शब्द चारों वेदों में 51 वार आया है, जो कि अनेक विभक्तियों में प्रयुक्त हुआ है। वेद की व्याख्या के रूप में विकसित हुए वैदिक वाङ्मय में भी आर्य शब्द शतशः प्राप्त होता है। रामायण-महाभारत के साथ पुराणों, स्मृति ग्रन्थों तथा लौकिक संस्कृत भाषा के काव्य, नाटक आदि में भी आर्य शब्द का भरपूर प्रयोग हुआ है। वेद के पश्चात पारसियों का धर्मग्रन्थ जेन्दावस्था में भी आर्य शब्द प्रयुक्त हुआ है। पर्शिया (ईरान-आर्यान) में राजा के लिए आर्य मेहर शब्द प्रयुक्त हुआ। बौद्ध और जैन साहित्य में भी ‘आर्य‘ शब्द प्रयुक्त हुआ है। जर्मनी वासी भी अपने आप को आर्यवंशी अनुभव करते हैं।
सामूहिक नाम आर्य- व्यवहार में सुविधा की दृष्टि से प्रत्येक वस्तु का एक नाम होता है। अन्यथा प्रत्येक का पृथक-पृथक नाम न होने पर परस्पर स्पष्ट भेद नहीं किया जा सकता। स्पष्टता के बिना सरलता नहीं होती और तब गूंगों की तरह केवल संकेत से उलझन ही सामने आती है। जैसे प्रत्येक व्यक्ति का अपना-अपना वैयक्तिक नाम होता है, वैसे ही सामूहिक दृष्टि से भी प्रत्येक समूह का एक नाम होता है। मानव समाज में कुछ समुदाय उपासना अथवा पूजा-पद्धति की दृष्टि से किसी एक जैसे सम्प्रदाय या मत को मानते हैं, उन सबका उस एकता के कारण एक सांझा धार्मिक नाम प्रचलित हो जाता है। ऐसे ही कुछ व्यक्तियों में परस्पर कारोबार, आजीविका की दृष्टि से कार्य की समानता होती है। कुछ राजनीतिक विचारों की दृष्टि से एक दल से सम्बन्धित होते हैं। कुछ एक ही देश के नागरिक होने से एक सांझे दैशिक नाम से पुकारे जाते हैं।
जैसे हमारे यहाँ वर्ण (कारोबार, यूनियन) के आधार पर ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि नाम हैं, वैसे ही इन सभी वर्ण वालों का कोई न कोई सामूहिक नाम अवश्य होना चाहिए। इस सम्बन्ध में महर्षि दयानन्द सरस्वती का सिद्धान्त है कि हमारा सामूहिक नाम आर्य है । क्योंकि हमारा जितना भी मान्य साहित्य है, उसमें हमारे लिए आर्य शब्द का ही प्रयोग मिलता है। केवल वेद, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद, वेदांग, दर्शन आदि वैदिक वाङ्मय में ही नहीं अपितु रामायण, महाभारत आदि ऐतिहासिक महाकाव्यात्मक ग्रन्थों और उन पर आधारित काव्य, नाटक आदि में भी आर्य शब्द का भरपूर प्रयोग मिलता है। इससे सिद्ध होता है कि हमारा सामूहिक नाम आर्य ही है।
‘आर्य‘ शब्द का प्रयोग इतना अधिक प्रभावपूर्ण और सार्वभौमिक, सार्वकालिक तथा सार्वजनिक है कि किसी भी देश का नागरिक या वर्ग एवं धर्म का सदस्य सहर्ष जहाँ-कहीं, जब-कभी इसका प्रयोग करना चाहे, तो किसी भी दृष्टि से किसी काल-स्थान पर वह प्रतिकूल नहीं बैठता। प्रयोग करने वाले के जीवन की प्रत्येक प्रगति और आकांक्षा एवं भावना को आर्य शब्द पूरी तरह से अभिव्यक्त करता है।
आर्य शब्द ऋ (गतौ) धातु से तथा अर्य शब्द से तद्धित में बनता है। गति से क्रियाशील अर्थ आर्य का सिद्ध होता है। गतेस्त्रयोऽर्थाः ज्ञानं गमनं प्राप्तिश्च अर्थात जो तत्सम्बद्ध ज्ञान के अनुरूप कर्म करके फल प्राप्त करता है। अतः क्रियाशील रहना आर्य की पहली पहचान है।
अर्य आर्य, ‘अर्यस्वामिवैश्ययोः‘ (पाणिनि अष्टाध्यायी 3.1.103) के आधार पर इसका अर्थ ईश्वरपुत्र (आर्य ईश्वरपुत्रः, निरुक्त), स्वामिपन=अर्थात् किसी अनुशासन से युक्त आर्य कहलाता है। क्योंकि पुत्र आज्ञाकारी होकर प्रशंसा को प्राप्त करता है। तभी तो संस्कृत-हिन्दी भाषा के सभी कोशों में आर्य शब्द का श्रेष्ठ, पूज्य अर्थ दर्शाया गया है। अतएव अपने पूज्यों, बड़ों को आर्य शब्द से पुकारा जाता है। कर्त्तव्यमाचरन् कार्यम् आर्य इत्यभि धीयते (वशिष्ठ स्मृति), तिष्ठति प्रकृताचारे- अतः जो कर्त्तव्यकर्म को करता है, प्रकृति के नियमों को पालता है, व्रती है वह आर्य है। न वैरमुद्दीपयति- इत्यादि शब्दों द्वारा महाभारत में आर्य का विस्तृत वर्णन आता है। आर्य शब्द का यह विवेचन विशेष प्रेरणाप्रद है। इसके साथ आर्य शब्द उच्चारण में सरल, श्रवण में सरल, मधुर, आकर्षक और स्पष्ट अर्थ वाला है। जब कोई नाम, शब्द अर्थ की दृष्टि से सार्थक, प्रेरणाप्रद, उच्चारण में सरल और श्रवण में सरल हो, तो वह ‘सोने में सुहागे‘ वाली बात होती है।
इन्हीं भावनाओं को सामने रखकर योगी अरविन्द ने भी लिखा है, कि आर्य शब्द से एक सामाजिक तथा नैतिक आदर्श का, एक मर्यादित जीवन आदि गुणों का बोध होता है। मानवीय भाषा में अन्य कोई शब्द नहीं, जिसका इतिहास इससे उच्च हो। इस अत्यन्त स्फूर्तिदायक महत्त्वपूर्ण शब्द को अपने देश के लिए पुनः प्रचलित करना सर्वथा उचित है, जिसमें किसी को आपत्ति नहीं।
आर्य और दस्यु- वेद मानव मात्र की सम्पत्ति है। इसलिए वेद में जाति विशेष का इतिहास वा किसी के प्रति पक्षपात की भावना के निर्देश का प्रश्न नहीं उठता। आज तक इस सम्बन्ध में जितनी कल्पनायें की गई हैं, वे सब अपूर्ण, दोषयुक्त तथा वेद के वर्णन से असंगत हैं। इस प्रसंग ने विशेष रूप से आर्य और दस्यु का वर्णन प्रस्तुत किया जाता है। वेदों को आर्य जाति का इतिहास और उनका पक्षपोषक ग्रन्थ माना जाता है। बिना किसी पूर्वाग्रह के निष्पक्षपातपूर्वक वेदों का अध्ययन करने से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि आर्य और दस्यु परस्पर विरोधी अर्थवाचक शब्द हैं। इनका वेद में दो प्रकार का वर्णन उपलब्ध होता है। एक तो विशेषणों सहित और दूसरा विशेषण रहित। विशेष्य के साथ प्रयुक्त विशेषण ही विशेष्य के स्वरूप के प्रतिपादक होते हैं तथा तथ्यपूर्ण स्वरूप के निर्णय में सहायक होते हैं। इन विशेषणयुक्त स्थलों से ही विशेषण रहित स्थलों का निर्णय हो सकता है।
ऋग्वेद में एक स्थल पर दस्यु को अकर्मा अमन्तु, अन्यव्रत और अमानुष विशेषणों से सम्बोधित किया गया है अकर्मा दस्यु अभि नो अमन्तु अन्यव्रतो अमानुषः। (ऋग्वेद 10.22.8), न+कर्मा=अकर्मा, निकम्मा, जो कर्मशील नहीं, आलसी है, अपने कर्त्तव्य कर्म का पालन नहीं करता या उलटे कर्म करता है, न+मन्तु,अमन्तु= जो विचारशून्य, अज्ञानी, मूर्ख, विचारने में असमर्थ, अविवेकी अर्थात् जो बिना विचारे कर्म करता है या विपरीत ज्ञान वाला है। अन्यव्रत= सामाजिक व्रतों (नियमों) से विपरीत जिसका व्यवहार है या जिसके व्रत हैं अर्थात् समाज के नियमों का पालन न करने वाला बे-असूला। अमानुष, न + मानुष = मानव के सहानुभूति, सहिष्णुता, सच्चरित्रता, उदारता, विवेकशीलता, आत्मीयता, प्रेम, सहयोग, न्याय, सत्य, अहिंसा आदि गुणों से जो रहित है, वह अमानुष ही दस्यु कहलाता है। इससे विपरीत जो कर्मशील, सत्पथगामी, मननशील, सामाजिक नियम पालक, संस्कृत, सभ्य और सच्चा मानव है, वही आर्य कहलाता है। अतः ये आर्य और दस्यु शब्द जाति-वाचक नहीं हैं, अपितु गुण-दोष वाचक हैं। अन्यथा विशेषण देकर इस प्रकार इनके वर्णन की अपेक्षा नहीं होती।
आर्य और दस्यु शब्द के प्रकृति-प्रत्यय निर्दिष्ट अर्थ से भी ऊपर कहे गए अर्थ की पुष्टि होती है। दस्यु शब्द दसु (उपक्षये) से बनता है, जिसका अर्थ है, जो दूसरों, समाज के नियमों, स्वकर्त्तव्य और धर्म का क्षय= हिंसन, उल्लंघन करे। आज भी सामाजिक और राष्ट्रीय नियमों के उल्लंघन करने वालों को दस्यु=डाकू, चोर कहा जाता है। दस्यु से विपरीत आर्य है, जो कि अर्य और ऋ (गतौ) से बनता है। अर्य का अर्थ है- अर्यः स्वामिवैश्ययोः (अष्टाध्यायी 3.1.103) स्वामी तथा स्वामी का भाव जो अपनी भावनाओं, इच्छाओं, इन्द्रियों और मन का स्वामी है, इनका दास नहीं। इनका दास ही इनके वश में होकर स्वार्थ वश सामाजिक व्यवस्थाओं, नियमों को तोड़ता है। अर्थात् नियम और कर्त्तव्य का पालक आर्य कहलाता है और नियम तथा कर्त्तव्य का उल्लंघन करने वाला दस्यु या दास है। वस्तुतः सबका स्वामी ईश्वर है और अर्य का अपत्य, प्रकाशक, प्रसारक आर्य है। तभी तो निरुक्तकार ने कहा है- आर्य ईश्वरपुत्रः। पुत्र पिता की सम्पत्ति, परम्परा, बात, कार्य, आज्ञा का पालक होता है। अतः सरलता से यह कहा जा सकता है कि आर्य और दस्यु शब्द जातिवाचक नहीं हैं, अपितु गुण, कर्म के आधार पर हैं। तभी तो वेद ने आदेश दिया है कि-
इन्द्रं वर्धन्तो अप्तुरः कुण्वन्तो विश्वमार्यम्। अपघ्नन्तो अराव्णः॥ ऋग्वेद 9,63,5॥
हे कर्मशीलो ! इन्द्र = ईश्वर, ऐश्वर्य, अच्छाई, शक्ति को बढाते हुए सबको आर्य = श्रेष्ठ करते हुए और अराव्ण = अदान भावना, कंजूसी, स्वार्थीपन, सहानुभूति रहितता को नष्ट करते हुए‘ जीवन के लक्ष्य को प्राप्त करो। यहाँ स्पष्ट शब्दों में कहा है- सबको आर्य करते हुए अर्थात् जो आर्य नहीं, उस-उसको आर्य करो। यदि वेद की दृष्टि में आर्य और दस्यु जातिवाचक शब्द होते, तो जाति, वर्ण=रंग किसी भी स्थिति में बदल नहीं सकते। आज भी अनेक लोगरंग तथा शरीर की आकृति विशेष से इनका भेद मानते हैं, परन्तु ऐसी स्थिति में आर्य बनाने का विधान व्यर्थ सिद्ध होता है। अतः गुणवाचक मानने पर ही इस मन्त्र के अर्थ की संगति लग सकती है अर्थात् सभी मानव एक से हैं, उनमें जो दूषित स्वभाव, व्यवहारयुक्त हैं, उन्हीं को श्रेष्ठ बनाने का विधान है। अतएव महर्षि यास्क ने निरुक्त में आर्य का अर्थ ईश्वरपुत्र किया है। पिता की परम्परा, विरासत, आज्ञा को सम्भालने वाला ही पुत्र कहलाता है।
इस प्रकार जहाँ-जहाँ विशेषण सहित आर्य और दस्यु का वर्णन है, उन-उन स्थलों की भावना के अनुसार ही अन्य स्थलों पर जहाँ-जहाँ विशेषणों के बिना आर्य और दस्यु शब्द का वर्णन हुआ है, वहाँ-वहाँ पूर्व भावना के अनुरूप ही अर्थ की संगति लगानी चाहिए। जैसे कि इन्द्र या अग्नि दस्युओं को मारता है, आर्यों की रक्षा करता है और उनको विशेष ज्योति देता है आदि पक्षपात रूप में दृश्यमान भावनाओं की संगति लगानी चाहिए। यह एक स्वाभाविक बात है कि प्रत्येक उत्तम राजा अपनी प्रजा में से संविधान के पालकों का ही उत्साहवर्धन करता है और नियमों का उल्लंघन करने वाले सदा दण्ड के ही अधिकारी होते हैं। इसी अच्छे-बुरेपन की भावना के अनुसार ही रामायण में रावण को अनार्य और उसके भाई विभीषण को आर्य कहा है। महाभारत (उद्योग पर्व 31) में सद्गुणयुक्त व्यक्ति की ही आर्य संज्ञा दी गई है। सारे संस्कृत नाटकों में नायक, सूत्रधार, बड़े भाई, पति और श्रेष्ठ व्यक्ति को आर्य शब्द से पुकारा गया है। यह वर्णन भी आर्य शब्द को गुणवाचक सिद्ध करता है। - प्रा.भद्रसेन वेदाचार्य (दिव्ययुग- नवम्बर 2015)
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