विशेष :

आर्य संस्कृति

User Rating: 0 / 5

Star InactiveStar InactiveStar InactiveStar InactiveStar Inactive
 

Worlds Best Great Culture

संसार की सर्वोत्तम महान संस्कृति आर्य संस्कृति ही है, क्योंकि वेदों में परमात्मा ने 'कृण्वन्तो विश्‍वमार्यम्' कहकर इसका उद्घोष किया है। मानवमात्र को श्रेष्ठ (आर्य) बनाओ, जिसे हम आर्य संस्कृति कहते हैं। ‘आर्य‘ शब्द अपने आप सुसंस्कृत शब्द है। ईश्‍वर का नाम अर्य है। अर्य का जो पुत्र है, उसे आर्य (श्रेष्ठ) कहते हैं। अब हम लोगों को विचार करना चाहिए कि ईश्‍वर के पुत्र कौन हो सकते हैं। जिसका गुण-कर्म व स्वभाव ईश्‍वर के अनुरूप आंशिक रूप से भी मिलता है उसे ही आर्य या ईश्‍वर का पुत्र कहा जा सकता है। परमात्मा में न्याय, दया, सर्वकल्याण की भावना सन्निहित हैं। हम लोगों में भी उक्त भावना होनी चाहिए। केवल शाब्दिक रूप में नहीं अपितु आर्यत्व प्राप्ति के लिए व्यवहारिक रूप होना अनिवार्य होता है।

आर्यों की सम्यक् कृति ही आर्य संस्कृति कहलाती है। यथा आर्यश्रेष्ठ मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम व योगेश्‍वर श्रीकृष्ण द्वारा प्रदर्शित मार्ग आर्य मार्ग है। उत्तम कृति ही आर्य संस्कृति की पहचान है। महर्षि दयानन्द जी के शब्दों में ‘‘सबसे प्रीतिपूर्वक धर्मानुसार यथायोग्य बर्तना चाहिए‘‘ आर्य संस्कृति कही जाती है। अल्पशब्दों में कहें तो शास्त्र व शस्त्र का समन्वय ही आर्य संस्कृति है। विस्तृत रूप में वेदानुयायी, सभ्य, मननशील, कुटिल भावनाओं से अलग मर्यादित-जीवन, सभी प्रकार की मलीन वासनाओं से रहित, पारदर्शी जीवनशैली वाले लोगों को ही आर्य या आर्य संस्कृति के पोषक कहते हैं। सर्वकल्याण की भावना ही इस संस्कृति का मूल है। कल्याण चाहने वालों को ही मित्र कहा जा सकता है। इस दृष्टि से प्राणी मात्र का कल्याण चाहने वाले ईश्‍वर को सभी प्राणियों का परममित्र समझा जाता है। किसी न किसी रूप में लोग ईश्‍वर को मानते ही हैं। उसकी सत्ता को स्वीकार करने के लिए हमें बाध्य होना पड़ता है। क्योंकि उसकी अद्भुत सृष्टि को देखकर अज्ञानी व्यक्ति भी सोचने के लिए बाध्य होता है। बिना व्यवस्थापक के इतनी सुन्दर व्यवस्था सम्भव नहीं हो सकती है। यह अस्तिकता का स्वरूप है। पूर्ण आस्तिक व्यक्ति ही आर्य नाम से जाना जाता है। आर्य मनुष्य परमात्मा को केन्द्र मानकर अपना व्यवहार व पूरी दिनचर्या सम्पादित किया करते हैं। ऐसे ही पूर्ण ईश्‍वर भक्त व्यक्तियों के समूह को ‘आर्य समाज‘ कहते हैं।

मनुष्यों के समूह ही समाज हैं। अन्यथा समज होता है जो पशुओं के समूह को कहा जाता है। महर्षि ने आर्यसमाज के नियम में इस बात का उल्लेख किया है कि सबकी उन्नति में अपनी उन्नति समझनी चाहिए। इस सिद्धान्त पर चलने वालें मनुष्यों को ही आर्य कहा जा सकता है। वेद में ईश्‍वर ने कहा ‘मित्रस्य चक्षुषा प्रतीक्षे‘ अर्थात् समस्त प्राणियों को मित्र की दृष्टि से देखें। इस वाक्य को समझने का प्रयास किया जाये। शत्रुओं के प्रति भी मित्र की भावना रखनी चाहिए। कारण, शत्रु वेद विरुद्ध आचरण से अन्यों की हानि करता है। तो उसे अधर्ममार्ग से हटाने के लिए सबसे प्रीतिपूर्वक धर्मानुसार यथायोग्य व्यवहार का बर्ताव करना ही शत्रुओं के प्रति मैत्रीपूर्ण व्यवहार होता है। क्योंकि इसी में उसका कल्याण सन्निहित है। यथा राम, कृष्ण व दयानन्द का शत्रुओं के प्रति मैत्री व्यवहार अनुकरणीय हैं।

यदि हम ईश्‍वरीय व्यवस्था को ध्यान में रखें, तो आसानी से आर्य सभ्यता या संस्कृति को समझ सकते हैं। जैसे ईश्‍वर पापियों का भी कल्याण करता है। समस्त प्राणी अपने कर्मानुसार व ईश्‍वरीय न्याय व्यवस्था के अनुरूप कर्मफल को प्राप्त हो रहे हैं। इसी में प्राणी मात्र का कल्याण सन्निहित है। सृष्टि की रचना से ही समस्त आत्माओं का कल्याण माना जाता है। इसी व्यवस्था को ध्यान में रखकर महर्षि ने श्रेष्ठों के संगठन आर्यसमाज की स्थापना की, ताकि लोग इससे जुड़कर अपना व अन्यों का कल्याण (धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष प्राप्ति) कर सकें। ईश्‍वर भक्त मानव ही समाज, राष्ट्र व परिवार के अत्यधिक रूप में सहयोगी बन सकते हैं। अन्यथा काम, क्रोध, लोभ, मोह व अहंकार के कारण या लोकैषणा, वित्तैषणा व पुत्रैषणाओं के आधार पर अन्योपकार के स्थान पर हानि कर देते हैं। एक वाक्य में कहें तो यही कहा जाएगा कि पूर्ण ईश्‍वरभक्त मानव ही लोकोपकारक, समाज व राष्ट्र उद्धारक एवं सच्चे अर्थों में आर्य होते हैं। कठोर शब्दों में कहें तो जो पूर्ण ईश्‍वरभक्त, उपासक व योगी नहीं हैं, वे महर्षि दयानन्द के विचारों को नहीं समझ पायें हैं। ऐसे में वे मानवता की उन्नति में साधक नहीं अपितु बाधक ही होते हैं। जो व्यक्ति किसी आर्य संगठन या संस्था में हैं या नहीं हैं किन्तु ईश्‍वरोपासना के साथ लोककल्याण में संलग्न हैं, वे महर्षि दयानन्द के शिष्य वा ईश्‍वर पुत्र आर्य हो सकते हैं। यह शाश्‍वत सत्य है।• - आचार्य प्रभामित्र (दिव्ययुग- नवम्बर 2015)

Aryan Culture | World's Best Great Culture | Virtue and Nature | Sense of Well Being | Nature of Existence | Friend Spirit | Divine Arrangement | Nation and Family | Advancement of Humanity | Society and Nation Savior | Engage in Public Welfare | Eternal Truth | News Portal - Divyayug News Paper, Current Articles & Magazine Marwar Junction - Udhampur - Srinagar Uttranchal | दिव्ययुग | दिव्य युग |