श्रावण मास का पौर्णमासी का दिन ‘श्रावणी- उपाकर्म’ अथवा प्राचीन ‘ऋषि-तर्पण’ के नाम से प्रतिवर्ष परम्परागत पद्धति से समस्त भारत देश में बड़ी धूम-धाम से मनाया जाता है। वर्तमान काल में इस पर्व का नाम ‘रक्षा-बन्धन’ भी प्रसिद्ध हो गया है। किन्तु यह नाम बहुत ही परवर्ती है। रक्षा बन्धन की परम्परा मुस्लिम युग में प्रचलित हुई है। स्त्रियां अपनी रक्षा के लिए अपने भाइयों अथवा जिन वीर पुरुषों के हाथों में रक्षा-सूत्र बांधती थीं, वे प्राण पण से अपनी बहनों की रक्षा करना अपना परम धर्म मानते थे। भारत के इतिहास में ऐसी भी घटनाएं घटी हैं कि यदि बहनों ने विधर्मियों को भी भाई मानकर रक्षासूत्र बांध दिया या किसी के हाथ भिजवा दिया, तो उन्होंने भी रक्षासूत्र की प्रतिष्ठा को गिरने नहीं दिया। राजस्थान के गौरव चित्तौड़ की महारानी कर्मवती ने गुजरात के बादशाह बहादुरशाह से अपनी रक्षा के लिए हुमायूं के पास राखियाँ भेजी थें। और वीर हुमायूं ने मुसलमान होते हुए भी तुरन्त चित्तौड़ पहुंचकर कर्मवती महारानी की रक्षा की थी। इतिहास की ऐसी घटनाओं के आश्रय से ही बहनें भाइयों के हाथों में राखी सूत्र बांधने लगी हैं, इसलिए यह पर्व भाई-बहनों के मधुर सम्बन्धों का प्रतीक बन गया है।
परन्तु इस पर्व का प्राचीन नाम श्रावणी-उपाकर्म या ऋषितर्पण ही है, जिसके महत्व को तथा उसकी पद्धति को हम भूलते ही जा रहे हैं। सृष्टि के आदि में धर्मशास्त्र के प्रणेता महर्षि मनु इस पर्व के विषय में लिखते हैं-
श्रावण्यां प्रौष्ठपद्यां वाऽप्युपाकृत्य यथाविधि। युक्तछन्दांस्यधीयीत मासान् विप्रोऽर्वपञ्चमान्॥ (मनुस्मृति)
अर्थात् द्विजन्मा ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य लोग श्रावण मास की अथवा भाद्रपद मास को पौर्णमासी को विधिपूर्वक वेदों का स्वाध्याय प्रारम्भ करके साढ़े चार मास तक वेदाध्ययन करें और पारस्कर गृह्य सूत्र में भी ऐसा विधान मिलता है-
अथातोऽध्यायोपाकर्म, ओषधीनां प्रादुर्भावे श्रवणेन। श्रावण्यां पौर्णमास्यां श्रावणस्य पञ्चमी हस्ते वा॥
अर्थात् श्रावणमास की पौर्णमास से औषधियों की उत्पत्ति होने पर उपाकर्म अर्थात् वेदों के स्वाध्याय कर्म का प्रारम्भ करना चाहिए। इसी पर्व का वेदों का स्वाध्याय करने के कारण ‘ऋषितर्पण’ के नाम से भी उल्लेख मिलता है। ‘स्वाध्यायेनार्चयेद् ऋषीन्’ (मनु.) अर्थात् वेदों के स्वाध्याय करने से ऋषियों की पूजा होती है। धर्म के साक्षात् द्रष्टा तथा वेद मन्त्रों के गूढ़ ज्ञान को समझने वाले जिन ऋषियों ने वेद तक पहुंचने के लिए वेदांगों, उपांगों (दर्शन विद्या के शास्त्रों) उपवेदों एवं उपनिषदों का ज्ञान मानव को दिया है, उनको जानकर वेदमन्त्रों को समझना ही ऋषियों की पूजा है।
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