किसी भी राष्ट्र के लिये स्वतन्त्रता दिवस राष्ट्रीय उल्लास एवं उत्सव का अवसर हुआ करता है। यह अवसर राष्ट्र की विजय के लिये किये गये वीरों के पराक्रमों पर गौरव प्रकट करने का दिन तथा राष्ट्र की उपलब्धियों पर आनन्द मनाने का समय होता है और भविष्य की उपलब्धियों के लिये संकल्प का दिवस होता है।
संसार का प्राचीन राष्ट्र भारत जिसकी कीर्ति पताका कभी चीन, जापान, कम्बोडिया, इण्डोनेशिया के सुविशाल मन्दिरों में आज भी फहरा रही है, वहाँ की साहित्य सम्पदा आज भी जिसका बखान कर रही है, जिस भारत की सांस्कृतिक धरोहर को बल्ख, बुखारा, ताशकन्द, समरकन्द और खोतान के खण्डहरों में यूरोप, अमेरीका और जापान के विद्वान पिछले लगभग सौ-सवा सौ वर्षों से ढूंढकर प्रकाशित कर रहे हैं, जिस भारत के आचार्य अफगानिस्तान, तुर्किस्तान, तिब्बत, मंगोलिया आदि देशों में पूजी जाने वाली देववाणी संस्कृत का प्रचार कर धर्म विजय से भारत को ‘जगद्गुरु‘ का महानीय पद दिलाते रहे, वह भारत सैकड़ों वर्ष की दासता से मुक्त होकर भी राष्ट्रीय गौरवशून्य दिखाई पड़ता है और संकल्पहीन सा बना है।
15 अगस्त 1947 को स्वतन्त्रता प्राप्त हुई, किन्तु वह भारत की विजय थी या अंग्रेजों की विवशता? क्या हमने पराक्रमपूर्वक अंग्रेज शत्रु को पराजित कर देश को स्वतन्त्र किया था या अंग्रेजों ने अपनी दुर्बलता के कारण जैसे चाहा भारत को खण्डित करके अपनी पसन्द के नेताओं के हाथ में भारत की सत्ता को सौंपा था?
स्वतन्त्रता के लिये भारत की तड़प का खोखलापन तो इसी बात से उजागर हो जाता है कि स्वतन्त्र होकर भी हमने उसी अंग्रेज शासक लार्ड माउंट बैटन को भारत का गवर्नर जनरल बनाया जो भारत को अंग्रेजी दासता के चंगुल में जकड़े हुए था। स्वतन्त्र होकर भी हमने अंग्रेज के ही आधीन रहना क्यों पसन्द किया, जबकि पाकिस्तान ने अंग्रेज को नहीं बल्कि अपने नेता मुहम्मद अली जिन्ना को पाकिस्तान का गवर्नर जनरल बनाया। इतना ही नहीं, स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् भी भारत की थल सेना, नौ सेना और वायु सेना के प्रमुख सेनापति अंग्रेज ही रहे। कई वर्षों तक हमारी वायु सेना और नौ सेना के प्रमुख अंग्रेज बनाये रखे गये। किसी देशाभिमानी के लिये यह लज्जाजनक बात है कि जिन शत्रुओं ने हमारी मातृभूमि को गुलाम बनाकर रखा, जिन्होंने भारत के स्वतन्त्रता सेनानियों को फांसी पर लटकाया, जिन्होंने भारत के महान राष्ट्रभक्त नेताओं लाला लाजपतराय, बाल गंगाधर तिलक को वर्षों जेल की काल कोठरी में बन्द रखा, जिन्होंने भारत माँ के श्रेष्ठ सपूतों वीर सावरकर, भाई परमानन्द को काले पानी की नारकीय जेलों में बैंलों के स्थान पर कोल्हू में जोता, स्वतन्त्र होने के उपरान्त भी उन दुष्ट शत्रुओं को हमने न केवल आदरणीय स्थान दिया बल्कि राष्ट्र और अपनी सेनाओं तक को उनके अधीन रखना पसन्द किया।
स्वतन्त्रता संग्राम के कालखण्ड में अंग्रेजों ने भारत की राजनीति में कई ऐसे नेताओं को प्रविष्ट किया, जो ऊपर से भारत की स्वतन्त्रता के पक्षधर थे, किन्तु अन्दर से अंग्रेजों के हित साधने में लगे रहते थे, जो शत्रुओं को मार भगाने के राष्ट्रीय संकल्प को कमजोर करने और भ्रमित करने में लगे रहते थे तथा देशभक्तों को क्रान्तिकारियों के आन्दोलन में सम्मिलित होने से हटाते रहे। इसी कारण अंग्रेजों ने जब देखा कि अब भारत को और अधिक गुलाम नहीं रख सकते तो ऐसे हाथों में सत्ता सौंपने का सफल प्रयत्न किया जो उनकी पसन्द के लोग थे।
यदि स्वतन्त्र होने पर भारत की सत्ता वीर सावरकर या सुभाषचन्द्र बोस जैसे तेजस्वी राष्ट्रभक्तों के हाथ में होती तो क्या 1947 में पाकिस्तान कश्मीर पर आक्रमण करने का दुस्साहस करता? क्या कश्मीर में पाकिस्तानी आक्रमणकारियों को जब भारत की वीर सेनाएं खदेड़कर बाहर कर रही थीं तो जवाहरलाल नेहरू की भान्ति युद्धविराम की घोषणा करके कश्मीर के एक बड़े भूभाग को पाकिस्तानी दरिन्दों के हाथों में रहने दिया जाता? स्वतन्त्र भारत की बागडोर ऐसे नेताओं के हाथों में आ गयी जिन्होंने स्वतन्त्रता और परतन्त्रता के भेद को ही धूमिल कर दिया, जो अपनी भान्ति पूरे देश को अंग्रेजियत के रंग में रंगने का उपक्रम करते रहे। भारत में राष्ट्रभाषा का चलन समाप्त करने के लिए प्रयास किये गये। स्वतन्त्रता आन्दोलन में जिस राष्ट्रगान को गा-गाकर नवयुवक राष्ट्रदेवता की बलिवेदी पर चढने की प्रेरणा लिया करते थे, उस वन्देमातरम् गीत को राष्ट्रगान की पदवी से हटाकर अंग्रेजों की पसन्द का गीत ‘जन गण मन अधिनायक‘ जो अंग्रेज सम्राट् की स्तुति में 1911 के कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में श्री रवीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा जॉर्ज पंचम के स्वागत में गाया गया था, भारत का राष्ट्रगान मान लिया गया। हमारे नेताओं के राष्ट्राभिमान का अनुमान इस बात से ही लग सकता है कि हमारी नौ सेना का ध्वज वही सेंट जोर्ज का क्रॉस है जो ब्रिटिश नौ सेना का ध्वज है। हमें विचार करना चाहिये कि भारत की नौ सेना का ध्वज ऐसा क्यों हो कि जिसका अर्थ यह निकले कि भारत अंग्रेजी साम्राज्य का ही भाग है। क्रास तो ईसाई चिह्न है। वह भारत का ध्वज कैसे हो सकता है? किन्तु देशवासियों को मूर्ख बनाया जा रहा है और राष्ट्र-सम्मान पर आघात किया जा रहा है।
भारत की राजधानी में इंडिया गेट पर ‘वीर जवान ज्योति‘ रखी गयी है, जहाँ वीरगति को प्राप्त हुए वीरों की स्मृति में अभिवादन करते हैं। प्रश्न उठता है किन वीरों की स्मृति में? इंडिया गेट की दीवार पर प्रथम विश्व युद्ध में अंग्रेजी साम्राज्य के पक्ष में जो भारतीय जवान मारे गये उनके नाम लिखे हुए हैं। अंग्रेजों ने प्रथम विश्वयुद्ध की विजय के स्मारक के रूप में ही इंडिया गेट बनाया। स्वतन्त्र देश के सेनापति यदि अंग्रेजी सेना के शहीदों को प्रणाम करें तो क्या यह सम्मान के अनुकूल है? वास्तव में शहीदी स्मारक ऐसे स्थान पर बनाया जाना चाहिये था जहाँ विदेशी सत्ता से लड़ते हुए भारत के वीरों ने अपने प्राणों की आहुति दी। जहाँ चन्द्रशेखर आजाद शहीद हुए या जहाँ भगतसिंह, राजगुरु को फांसी दी गई या जहाँ बन्दा वैरागी और श्री गुरु तेग बहादुर शहीद हुए, ऐसे चांदनी चौक में शहीदी स्मारक होना चाहिये था। किन्तु कांग्रेस का तो जन्म ही अंग्रेजों के हित के लिये अंग्रेज अधिकारी ए.ओ.ह्यूम ने किया था। अपने जन्मदाता की भावना के अनुरूप ही कांग्रेसी नेताओं ने इण्डिया गेट को शहीदी स्मारक बनाया।
राष्ट्रपति भवन की वाटिका को मुगल गार्डन नाम देना, नई दिल्ली की प्रमुख मार्गों के नाम औरंगजेब रोड़, बाबर रोड़, तुगलक रोड़, विलिंगडन क्रिसेंट रोड़ रखना इसी बात का द्योतक है कि भारत के स्वतन्त्र होने के उपरान्त भी भारतीयों को मानसिक गुलामी में इतना डुबो दिया जाये कि भारत की आत्मा कभी स्वतन्त्र न हो सके, भारत अपनी अस्मिता ही भुला बैठे। आवश्यकता है कि हम भारतमाता के प्रबुद्ध पुत्र विशुद्ध राष्ट्रवाद पर आधारित शासन-तन्त्र का निर्माण करके अपने राष्ट्र को अजेय शक्तिसम्पन्न और वैभव सम्पन्न बनाकर विश्व में गौरवास्पद पद प्राप्त कराने की चेष्टा करें। संसार के अनेक देश भारत की ओर आशाभरी दृष्टि से निहार रहे हैं। मोरीशस, गुयाना, सूरीनाम, त्रिनिदाद, फिजी ही नहीं, थाई देश कम्बोडिया, लाओस से लेकर मंगोलिया, कोरिया आदि देशों की करोड़ों बौद्ध जनता, जो शताब्दियों से भारत की पुण्यभूमि और पुण्यभाषा संस्कृत के प्रति श्रद्धा रखते हएु भारत की तीर्थ-यात्रा के लिये लालायित रहते हैं, वे सब भारत की कीर्ति में ही आनन्दित होते हैं।
विधि ने भारत को विशेष दायित्व दिया है। संसार सदा से भारत को अध्यात्म एवं ज्ञान के भण्डार के रूप में जानता रहा है। आओ ! स्वाधीनता दिवस पर हम फिर भारत को इतना समर्थ बनाने का संकल्प लें कि भारतीय संस्कृति के आलोक से संसार को भी आलोकित कर दें, तभी हम भारत शब्द को भी सार्थक करेंगे। क्योंकि भारत का अर्थ है भा (प्रकाश) में रत। यही भारत का सन्देश रहा है। तमसो मा ज्योतिर्गमय। - डॉ. कैलाशचन्द्र (दिव्ययुग- अगस्त 2015)
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