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आर्य संस्कृति के प्रतीक श्रीराम

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lord ramआर्य संस्कृति के प्रतीक के रूप में मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम से बढ़कर अन्य कोई प्रतीक दृष्टिगोचर नहीं होता। राम आर्यावर्त अर्थात् भारतीय इतिहास के प्रतिनिधि के रूप में प्रेरणा के अजस्र स्रोत रहे हैं। मानव जीवन के विभिन्न पहलुओं के जो आदर्श हो सकते हैं, वे सब सर्वोत्तम रूप से श्रीराम में ही घटित होते हैं। राम आदर्श राजा हैं, आदर्श पुत्र हैं, आदर्श पति हैं, आदर्श भाई हैं और आदर्श स्वामी हैं। ऋषियों द्वारा निर्धारित मर्यादाओं का जितनी सुन्दर रीति से राम ने पालन किया है, वह उतनी सुन्दर रीति से राम से किसी अन्य ने कदाचित ही किया हो। इसीलिये राम को ‘रामो विग्रहवान् धर्मः’ अर्थात् राम धर्म की साक्षात् प्रतिमा हैं, कहा गया है।

वेद कहता है- अनुव्रतः पितुः पुत्रो, मात्रा भवतु सम्माना। पुत्र पिता के व्रत का पालन करने वाला हो और माता के मन की इच्छायें पूर्ण करने वाला हो। अथवा मा भ्राता भ्रातरं द्विक्षन् मा स्वसारमुतस्वसा। भाई, भाई से द्वेष न करे और बहिन, बहिन से द्वेष न करे। इस प्रकार परिवार में सुख और शान्ति के लिये नैतिक आदर्शों की स्थापना करने वाले जितने भी आदेश वेद में हैं, उन सबका भली प्रकार पालन करने वाले महापुरुष यदि कोई हैं तो वे श्रीराम ही हैं।

इसीलिये तो उत्तर में हिमालय की कन्दराओं से लेकर विन्ध्य और सह्याद्रि की अधित्यकाओं तक और भागीरथी गंगा से लेकर दक्षिण के रामेश्‍वरम् समुद्र तट तक सर्वत्र राम नाम की गूंज है। अविभाजित भारत का वह कौन-सा भाग है जहाँ राम की स्मृति बिखरी न पड़ी हो। भले ही तक्षशिला, लवपुर (लाहौर), कुशपुर (कसूर) आज पाकिस्तान के अंग हैं, किन्तु वे स्मारक तो मर्यादा पुरुषोत्तम राम और उनके वंशजों के ही हैं। कवियों तथा सन्तों ने राम की कथा को सम्प्रदायातीत बना दिया है। बौद्ध और जैन कथाओं में रामकथा का समावेश है । गौंड़-भील आदि शिक्षित-अशिक्षित सभी वर्गों में रामकथा की धूम है।

स्याम, अनाम, जावा, सुमात्रा, इण्डोनेशिया, कम्बोडिया, मलेशिया आदि देशों और द्वीपों में रामकथा का विस्तार है। मैक्सिको में राम-सीता के नाम से उत्सव मनाया जाता है और राम के ही नाम से मिस्र के राजाओं के नाम रखे जाते थे। बैंकाक में रामायण सम्मेलन होता है और मारिशस में रामचरित मानस का गुटका लाखों की संख्या में भारत से मंगाकर घर-घर पहुंचाया जाता है। इस प्रकार सारे संसार के इतिहास में अन्य शायद ही कोई ऐसा महापुरुष हो जो इतने व्यापक रूप से चर्चित हो।

श्रीराम केवल हिन्दुओं के ही आराध्य नहीं रहे। ईसाई और मुसलमानों ने भी उनका पर्याप्त गुणगान किया है। सर्वात्मना स्वयं को कट्टर कैथोलिक कहलाने वाले फादर कामिल बुल्के की तो अभी कल की बात है, किन्तु उनसे पूर्व भी अनेक ईसाई मतावलम्बियों ने राम का गुणगान किया है तथा रामचरित मानस का अपनी-अपनी भाषाओं में अनुवाद भी किया है। योरोप की अनेक भाषाओं में इसका अनुवाद हो चुका है और ये अनुवादक सभी ईसाई ही थे। यही स्थिति इस्लाम के अनुयायियों की भी है। उसमें तो राम के गुणगायक अगणित हैं। यहाँ कुछ नाम दे देना समीचीन होगा। यथा- अब्दुल रहमान खानखाना, रसखान, मलिक मोहम्मद जायसी, अमीर खुसरो, ज़फर रजा जैदी, जहीर नियाजी, मोहम्मद हयात, मिर्जा हसन नासिर, जरीना रहमत, नूरजहाँ बेगम, आयशा खातून, रजिया बेगम, ताज़ बीबी, दीन मोहम्मद दीन, इकबाल बिस्वानी, अव्दल रशीद खां रशीद, मोहम्मद फैयाजुद्दीन, सैयद महफूज रिजवी, फिदा वादवी, नाजिश प्रतापगढ़ी, तकी रामपुरी, इकबाल कादरी के अतिरिक्त पाकिस्तान के प्रवर्तक सर अल्लामा इकबाल जिन्होंने कभी लिखा था-
है राम के वजूद पर हिन्दोस्तां को नाज, अहले नजर समझते हैं उसको इमामे हिन्द।
ऐजाज इस चिरागे हिमायत से है यही, रोशनतर अजू सहर है जमाने में शमे हिन्द।
तलवार का धनी और शुजाआत में फर्द था, पाकीजगी में, जोशे मोहब्बत में मर्द था।
स्वयं पाकिस्तानी शायर जफर अली खां ने लिखा है-
नक्शे तहजीबे हनूद अपनी नुमाया है अगर, तो वो सीता से है, लक्ष्मण से है, राम से है।
मैं तेरे साजये तसलीम पै सर धुनता हूँ, कि यह इक दूर की निस्वत तुझे इस्लाम से है।
इसी प्रकार पाकिस्तान के एक अन्य शायर ने कभी लिखा था-
हिन्दियों के दिल में बाकी है मोहब्बत राम की, मिट नहीं सकती कयामत तक हुकूमत राम की।
मुस्लिम कवियों में ही बंगला कवि काजी नजरुल इस्लाम ने तो राम, कृष्ण, काली, दुर्गा, चण्डी आदि के गुणगान में ही अपनी कविता को धन्य माना था। आधुनिक रसखान कहे जाने वाले अब्दुल रशीद ने भी श्रीराम पर बहुत लिखा है। इसी प्रकार अमीर खुसरो की एक उलट बांसी है-
तन-मन-धन का है वो मालिक, वा ने दिया मेरे गोद में बालक।
वा से निकला जी को काम, ऐ सखि साजन ? ना सखि राम॥
बखत बेवखत मोया वा की आस, रात-दिना वह रहवत पास।
मेरे मन को सब करत है काम, ऐ सखि साजन ? ना सखि राम॥
ऐसे एक नहीं कितने ही उदाहरण गद्य और पद्य के संसार में बिखरे पड़े हैं।

श्रीराम के जीवन में उस क्षण की कल्पना कीजिये जब राजप्रसाद में राम के राज्याभिषेक की तैयारियाँ चल रही हों, राज्याभिषेक का मुहूर्त तक निश्‍चय कर दिया गया हो और तब अकस्मात् राज्याभिषेक की अपेक्षा वनवास की आज्ञा हो जाये तो साधारण मनुष्य पर क्या बीत सकती है, इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। किन्तु राम तो साधारण मनुष्य नहीं थे। आदि कवि वाल्मीकि ने उस अवस्था का वर्णन करते हुए लिखा- “राज्याभिषेक की सुखद आज्ञा से न तो उनके मुख पर विशेष प्रसन्नता के चिह्न दिखाई दिये और राज्य के बदले वनवास की आज्ञा मिलने पर न ही उनके मुख पर विषाद के लक्षण दिखाई दिये।’’

एक अन्य अवसर था, रावण के मारे जाने का। उस अवसर पर विभीषण ने अपनी प्रसन्नता का अतिरेक व्यक्त किया। यहाँ तक कि वह रावण का भाई होने के नाते उसकी अन्त्येष्टि तक करने के लिये उद्यत नहीं हो रहा था। उस समय राम ने जिस प्रकार विभीषण को समझाया वह कोई राम सदृश धीर-वीर-गम्भीर और विवेकी ही कर सकता था। राम ने विभीषण से कहा, “मरण के उपरान्त सारा वैर-विरोध समाप्त हो जाता है। हमारा प्रयोजन भी पूर्ण हो गया है । अब तुम इसका संस्कार करो। यही हम दोनों का कर्त्तव्य है।’’

राम को गुणों की परख और गुणी के लिये उनके मन में प्रतिष्ठा थी। राम चाहते थे मानवता की भलाई के लिये उस विद्या का संचय किया जाये जो रावण के पास थी। अतः जब रावण युद्ध में धराशायी हो गया तो उस समय राम ने रावण के पास उस विद्या को सीखने के लिये लक्ष्मण को भेजा था। उस समय उन्होंने कहा कि- “जिससे शिक्षा की याचना करनी हो ऐसे गुरु के चरणतल के समीप बैठकर याचना करनी होती है।’’ लक्ष्मण के विनय से प्रभावित हो रावण ने लक्ष्मण को युद्ध विद्या और राजनीति की शिक्षा प्रदान की।

राम सभी प्रकार से आर्य संस्कृति के प्रतीक हैं। आदर्श पुत्र के रूप में वे कौशल्या के आनन्दवर्धक और दशरथ के आज्ञाकारी हैं। अनुजों, सखाओं और पुरवासियों के परम प्रिय हैं। मुनि यज्ञ में बाधक राक्षसों के संहारक एवं अहिल्या के उद्धारक हैं। अपने स्वभावशील से वे मनुष्यों को ही नहीं अपितु पशु-पक्षियों को भी सुख देने वाले हैं। निम्न जाति के कहे जाने वाले निषादराज को अपना मित्र मानते हैं। शबरी के जूठे बेरों की प्रशंसा करते हैं। वनवासियों की सहायता से रावण का विनाश कर लंका में सुशासन स्थापित करते हैं। जननी और जन्मभूमि के प्रति समर्पित हैं। वे लोकसत्ता और लोकमत में गहन आस्थावान हैं। सन्त तुलसी के शब्दों में- “समुद्र का पार पाना सम्भव है, किन्तु राम के गुणो का पार किसी ने नहीं पाया।’’• - अशोक कौशिक

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