विशेष :

अमरत्व की घोषणा

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Declaration of Immortality

ओ3म् मृत्योः पदं योपयन्तो द्राघीय आयुः प्रतरं दधानाः।
आप्यायमानाः प्रजया धनेन शुद्धाः पूता भवत यज्ञियासः॥ ऋग्वेद 10.18.2 अथर्व. 12.2.30॥
ऋषिः सङ्कुसको यामायनः ॥ देवता मृत्युः॥ छन्दः त्रिष्टुप्॥

विनय- संसार के हरेक प्राणी पर मृत्यु ने पांव रखा हुआ है। जिस दिन उसकी इच्छा होती है उस दिन वह उस पांव को दबाकर प्राणी को कुचल डालती है, समाप्त कर देती है। पर हे नरतनधारी मनुष्या ! तुममें वह शक्ति है जिससे कि तुम मृत्यु के उस पैर को ढकेलकर अमर बन सकते हो। इस संसार में तुम मरे हुओं की तरह न रहकर, न सड़कर, अमर पुत्रों की तरह दृढ़ता से चलो। शुद्ध, पूत और यज्ञशील बन जाओ। ऐसे बनने से तुममें वह आत्मशक्ति जग जाएगी कि तुम उस मृत्यु के पैर को ढकेल फेंकोगे। ठीक आहार, व्यायाम, तप आदि द्वारा शरीर को शुद्ध रखो और अपने अन्दर सत्त्वशुद्धि, सौमनस्य आदि लाकर अन्तःकरण को पवित्र रखो। फिर इस शरीर और मन से यज्ञीय कर्म ही करते जाओ। इससे तुम निःसन्देह अमर हो आओगे। यह सच है कि यज्ञिय जीवन से मृत्यु मारी जाती है, तब मनुष्य की आयु सौ वर्ष तक चलने वाला यज्ञ हो जाता है। तब वह मनुष्य पूर्ण सौ वर्ष की दीर्घ विस्तृत आयु को यज्ञरुप में धारण करता है। हम मरे हुए मनुष्य तो आयु को ‘धारण’ नहीं कर रहे हैं, किन्तु आयु के एक बोझ को जैसे-तैसे ढो रहे हैं। जब शरीर को आत्मा धारे हुए होता है तो आत्मा शरीर को पूर्ण सौ वर्ष तक स्वस्थ चलने की, जीवन यज्ञ को सौ वर्ष तक अखण्डित चलने की आज्ञा देता है और इस जीवन में प्रज्ञा के सृजन द्वारा तथा धन की वृद्धि द्वारा अपनी विकास की इच्छा को परितृप्त करके यज्ञ को पूर्ण करता है।

आत्मशक्ति का प्रकाश करने के लिए ही आत्मा शरीर को धारण करता है। अतः शरीर पाकर इस जगत् में कुछ न कुछ उपयोगी वस्तु का प्रजनन करना, सृजन करना तथा जगत् के सच्चे ऐश्‍वर्य को (धन को) बढ़ा जाना आवश्यक है। संसार में आई सब महान् आत्माएँ इस संसार में कुछ न कुछ जगत् हितकारी वस्तु का सृजन करके तथा जगत् में किसी उच्च से उच्च ऐश्‍वर्य को बढ़ाकर जाती हैं। हे मनुष्यो! उठो, मृत्युमय जीवन छोडो, शुद्ध पूत और यज्ञिय बनो और मृत्यु के पैर को परे हटाकर अपने अमरत्व की घोषणा कर दो।

शब्दार्थ- हे मनुष्यो! यदा=जब तुम मृत्योः पदं योपयन्तः=मृत्यु के पैर को ढकेलते हुए एत=चलोगे तो द्राघीय आयुः प्रतरं दधानाः=तुम दीर्घ विस्तृत आयु को धारण करने वाले तथा प्रजया धनेन आप्यायमानाः=प्रजा और धन से परितृप्त होओगे। इसके लिए शुद्धाः=बाहर से शुद्ध पूताः=अन्दर से पवित्र और यज्ञियासः=यज्ञिय जीवन वाले भवत=हो जाओ। - आचार्य अभयदेव विद्यालंकार (दिव्ययुग- अक्टूबर 2012)

Declaration of Immortality | Vedic Vinay | His Will | Body and Mind | Hold in Sacrifice | Growth of Funds | Development Desire | Soul Light | Creation of Beneficial Goods | Vedic Motivational Speech & Vedas Explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) for Mohpa - Kachhla - Kalanaur | दिव्ययुग | दिव्य युग |