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अति आत्म विश्‍वास के आगे हार है

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Overconfidence

मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और मिजोरम के चुनाव परिणाम, जिन्हें लोकसभा चुनाव 2019 से पहले ‘सत्ता का सेमीफाइनल’ भी कहा जा रहा है, इन चुनावों में खासकर हिन्दी भाषी तीनों ही राज्यों में भाजपा की हार ने संकेत दे दिए हैं कि आगामी लोकसभा चुनाव में भगवा पार्टी की राह बिलकुल भी आसान नहीं है। इन तीनों राज्यों की बात करें तो इनमें लोकसभा की 65 सीटें हैं और यह भी तय है कि भाजपा इन राज्यों में 2014 के लोकसभा चुनाव वाला प्रदर्शन नहीं दोहरा पाएगी। यदि ध्यान से सुनें तो 2018 के इन चुनाव परिणामों में 2019 के लोकसभा चुनावों की आहट भी सुनाई दे रही है।

इससे पहले भी भाजपा उत्तर प्रदेश में गोरखपुर, फूलपुर और कैराना तथा राजस्थान में अलवर और अजमेर सीटों समेत लोकसभा की 10 सीटों पर उपचुनाव में पराजय झेल चुकी है। ऐसा लगता है कि इन पराजयों से भाजपा ने कोई सबक ही नहीं लिया, अन्यथा ऐसा कोई कारण ही नहीं था कि भाजपा तीनों ही हिन्दी भाषी राज्यों में हार जाए। राजस्थान में तो फिर भी अनुमान था कि यह राज्य भाजपा के हाथ से निकल जाएगा, लेकिन मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में किसी को हार का अन्दाजा नहीं था और छत्तीसगढ़ में जैसी हार हुई है, उसका तो बिलकुल भी अनुमान नहीं था।

विधानसभा चुनाव में हार के पीछे नोटबन्दी, जीएसटी, एट्रोसिटी एक्ट को भी माना जा रहा है। हो सकता है कि इनको लागू करने के पीछे केन्द्र की श्री नरेन्द्र मोदी सरकार की नीयत अच्छी रही हो, लेकिन इन्हें लागू करने के तरीके को बिलकुल भी सही नहीं कहा जा सकता।

नोटबन्दी के आंकड़े इस पर सवाल उठा रहे हैं, वहीं जीएसटी ने व्यापारी वर्ग को बुरी तरह नाराज किया। व्यापारी जीएसटी को स्वीकार करने के लिए राजी हैं, लेकिन टैक्स भरने में आने वाली समस्याओं ने उनकी नाराजगी को ही बढ़ाया है। यह ऐसा वर्ग है जो भाजपा का परम्परागत वोट माना जाता है। दूसरी ओर एट्रोसिटी एक्ट के जरिए दलितों को खुश करने की कोशिश में भाजपा सरकार ने सवर्ण और ओबीसी वोटों के बड़े हिस्से को अपने से दूर कर दिया। यही वोट यदि भाजपा के पक्ष में पड़ जाते तो कम से कम मध्यप्रदेश में तो सरकार बन ही सकती थी।

राम मन्दिर के मुद्दे पर भी अब भाजपा को लेकर हिन्दू मतदाताओं का विश्‍वास डगमगाने लगा है। क्योंकि केन्द्र सरकार जहाँ राम मन्दिर के मुद्दे पर यह कहकर पल्ला झाड़ने की कोशिश कर रही है कि यह मामला कोर्ट में है। अत: कोर्ट के फैसले के बाद ही मन्दिर निर्माण सम्भव है। लेकिन यही सरकार एट्रोसिटी एक्ट के मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को अंगूठा दिखाते हुए संसद में विधेयक लेकर आई और अदालत के फैसले को पलट दिया।

दूसरी ओर कांग्रेस ‘सॉफ्ट हिन्दुत्व’ की डगर पर चल पड़ी है और कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी खुद को शिवभक्त और जनेऊधारी हिन्दू के रूप में पेश कर रहे हैं। ऐसे में थोड़े बहुत हिन्दू वोटरों का कांग्रेस के पक्ष में टूटना भी निश्‍चित है। अब यदि भाजपा को लोकसभा चुनाव में अच्छा प्रदर्शन करना है तो उसे राम जी की शरण में ही जाना होगा और इस बार सिर्फ राम के नाम से काम नहीं चलेगा, बल्कि अयोध्या में मन्दिर बनाने की दिशा में कुछ ठोस कदम उठाना होगा। यदि ऐसा नहीं हुआ तो इस बार राम भी भाजपा की सहायता नहीं करेंगे। ...और यदि केन्द्रीय भाजपा सरकार को लगता है कि वह सही दिशा में आगे बढ़ रही है, तो यह उसका अति आत्मविश्‍वास ही है और यह अति आत्मविश्‍वास उसे 2019 के लोकसभा चुनाव में हार की ओर ही ले जाएगा।

एक शीतल पेय के विज्ञापन की पंचलाइन है- ‘डर के आगे जीत है’, लेकिन वर्ष 2018 के चुनाव परिणामों पर नजर डालें तो यही साबित होता है कि अति आत्मविश्‍वास के आगे हार है। तीन राज्यों में भाजपा की हार, 2018 में 2019 की आहट, पदचाप, राम मन्दिर, अयोध्या, लोकसभा सीटें घटीं, उपचुनाव अजमेर, अलवर, गोरखपुर, फूलपुर, कैराना, नोटबंदी, जीएसटी, एससी एसटी एक्ट, कांग्रेस द्वारा हिन्दुत्व के मुद्दे का अपहरण, शिवभक्त जनेऊधारी राहुल गांधी, मन्दिर गए, लेकिन प्रधानमन्त्री बनने के बाद श्री नरेन्द्र मोदी एक बार भी अयोध्या नहीं गए, सन्तों की मांग के बावजूद। - सम्पादकीय (दिव्ययुग- अप्रैल 2019)

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