अन्वय- अप्रचेता: मोघम् अन्नम् विन्दते। स तस्य वध: इत्। स अर्यमणम् न पुष्यति। नो स सखायम् पुष्यति। केवल आदी केवल अघ: भवति। इति अहम् सत्यम् ब्रवीमि॥
अर्थ- (अप्रचेता:) बुद्धि-शून्य अर्थात् मूर्ख आदमी (मोघम् अन्नम्) मुफ्त का भोजन, बिना कमाया हुआ भोजन (विन्दते) पाने का यत्न करता है अर्थात् अपने भोजन के लिए कुछ करना नहीं चाहता। (न अर्यमणम् पुष्यति) जो अपने किसी हितैषी का पोषण नहीं करता (न सखायम् पुष्यति) और न अपने साथी का पोषण करता है (स:) उसका ऐसा व्यापार (तस्य) उसके (वध: इत्) नाश का ही कारण है। (केवलादी) जो अकेला खानेवाला है वह (केवलाघ:) केवल पाप का भागी (भवति) होता है (सत्यम् ब्रवीमि) मैं सत्य कहता हूँ अर्थात् इस कथन के सच होने में किंचित्मात्र भी सन्देह नहीं है।
व्याख्या- मनुष्य-जीवन के दो बड़े विभाग हैं- एक भोग और दूसरा कर्म। प्रश्न यह है कि इन दोनों का महत्त्व समान है अथवा एक गौण है और दूसरा मुख्य? यदि ऐसा है तो मुख्य कौन है और गौण कौन? तुलसीदास का कहना है कि-
कर्म प्रधान विश्व करि राखा।
जो जस करै सो तस फल चाखा॥
अर्थात् कर्म प्रधान है और भोग गौण। अब तनिक अपनी प्रवृत्तियों पर भी विचार कीजिए। आपका मन क्या गवाही देता है? आपने एक घोड़ा मोल लिया। उससे कुछ काम लेंगे और कुछ उसे भोजन देंगे। उसे कुछ करना है और कुछ भोगना है। आपको सवारी देना उसका कर्म है, दाना-घास खाना उसका भोग हैं। इन दोनों में से मुख्य कौन है और गौण कौन? आप चूँकि भोजन देते हैं इसलिए काम लेते हैं अथवा काम लेते हैं इसलिए भोजन देते हैं। आपकी प्रथम भावना क्या थी और दूसरी भावना क्या हुई? आप कहेंगे कि हमको घोड़े से काम लेना था, इसलिए हमें उसके खरीदने की इच्छा हुई और चूँकि बिना भोजन दिये काम लेना असम्भव है अत: उसको भोजन भी देते हैं। यदि बिना भोजन दिये आप काम ले सकते तो केवल उसके काम की ही परवाह करते, उसके खाने की नहीं। जो बेगार में काम कराते हैं वे जानते हैं कि बेगारवाला बिना भोजन के भी काम करने पर मजबूर होगा, इसलिए वे उसके भोजन की परवाह नहीं करते। अत: सिद्ध हुआ कि कर्म मुख्य है और भोग गौण। आवश्यक होते हुए भी उसकी आवश्यकता को प्राथमिकता नहीं दी जा सकती।
इस सिद्धान्त के विरुद्ध एक बात कहीं जा सकती है। प्राय: संसार में लोग भोग के लिए ही कर्म करते हैं। यदि भोग की आशा न होती तो कर्म नहीं करते। एक चिकित्सक इसलिए चिकित्सा नहीं करता कि उसे चिकित्सा का ज्ञान या सामर्थ्य है, अपितु इसलिए कि उससे आर्थिक लाभ होगा। एक वकील इसलिए वकालत नहीं करता कि वह वकालत के काम में दक्ष है, अपितु इसलिए कि उसे पैसा मिलता है। इसीलिए लोगों ने अर्थ को ही सर्वोपरि माना है। सर्वे गुणा: काञ्चनमाश्रयन्ति। कांचन का अर्थ है भोग।
यूनान के प्रसिद्ध दार्शनिक प्लैटो (अफलातून) ने अपने ग्रन्थ रिपब्लिक (शासन-तन्त्र) में इस प्रश्न पर अच्छा प्रकाश डाला है। वह कहता है कि क्या एक अध्यापक इसलिए अध्यापक कहलाता है कि वह अध्यापन का कार्य करता है अथवा इसलिए कि वह अमुक वेतन पाता है? एक डाक्टर को आप इसलिए डाक्टर कहते हैं कि वह डाक्टरी करता है अथवा इसलिए कि वह इतना धन कमाता है? एक सैनिक का सैनिक नाम उसके कर्म के कारण हुआ अथवा उसके वेतन के कारण? यह तो ठीक है कि अध्यापक, वकील, सैनिक या डाक्टर सब जीविका-उपार्जन करते हैं और जीविका के लिए ही काम करते हैं। परन्तु यह बात तो सभी में सामान्य है और यदि जीविका-उपार्जन को ही मुख्य माना जाए तो सब एक-से होंगे, विशेषता न होगी तथा प्रत्येक का सम्मान उसकी आर्थिक मात्रा के अनुसार होना चाहिए, परन्तु समाज का ऐसा नियम तो नहीं है। एक रोगी मनुष्य डाक्टर की खोज करता है तो उसकी धनाढ्यता को न देखकर उसकी डाक्टरी की योग्यता को देखता है कि ऐसे डाक्टर को बुलाऊँ जो डाक्टरी अच्छी कर सके। यह प्रवृत्ति तुलसीदास के पूर्वोक्त कथन को पुष्ट करती है कि न केवल ‘विश्व‘ नामक परमात्मा ने ही अपितु विश्व-मानवसमाज ने कर्म को भोग पर प्रधानता दी है।
जब इतना निश्चित हो गया तो भोग को कर्म के अधीन रखना होगा, कर्म को भोग के अधीन नहीं। कर्म आधार है, भोग आधेय है। आधेय बिना आधार के ठहर नहीं सकता। इसलिए वेदमन्त्र कहता है- मोघं अन्नं विन्दते अप्रचेता:। अर्थात् मुफ्त का खाने की इच्छा करने वाला मूर्ख है। वह भोग को प्राथमिकता देता है। यह बात सृष्टि-नियम के विरूद्ध है। जिस अन्धेरनगरी में टका सेर भाजी और टका सेर खाजा बिकता था वह नगरी पूरी अन्धेरनगरी न थी। कुछ तो उजाला भी था। पूरी अन्धेरनगरी तो वह होती जहाँ खाजा और भाजी मुफ्त मिला करती और टका कमाने की भी आवश्यकता न पड़ती। डाक्टर डाक्टरी सीखता भी इसीलिए है कि उसे पूर्ण विश्वास है कि जिस भोग की उसे आकांक्षा है सृष्टि-क्रम उसको कर्म पर प्रधानता नहीं देता। मूल्य तो उसी चीज का दिया जाता है जो मूल्यवान हो। कपड़ा अपने मूल्य से बड़ा है। मूल्य का मूल्य भी कपड़े की अपेक्षा से है न कि मूल्य की अपेक्षा से। इसलिए कर्म की प्रधानता है और कर्म की अवहेलना अथवा बिना कर्म के भोजन की इच्छा करना परले दर्जे की मूर्खता है। जिस पुरुष को थोड़ी-सी भी बुद्धि है, वह ऐसी मूर्खता कभी नहीं करेगा। संसार को काम प्यारा है चाम नहीं।
वेदमन्त्र कहता है- सत्यं ब्रवीमि। इसका तात्पर्य यह है कि यह कोई छोटी बात नहीं है, जिसको सुनी-अनसुनी कर दिया जाए। मानव-जीवन के विकास के लिए यह एक अत्यन्त गम्भीर वात है। मुफ्त भोजन खाने की इच्छा विश्वव्यापी और सांक्रामिक रोग है जिसने मानवजाति को सबसे अधिक पीड़ित किया है। हर नर-नारी को इससे सतर्क रहने की आवश्यकता है। यह मीठा विष है जिसकी हानि को बुद्धिमान् मनुष्य ही सोच सकते हैं। ‘वध इत् स तस्य‘ जो इस रोग में फँस गया उसकी मृत्यु अवश्यम्भावी है। वह किसी प्रकार बच नहीं सकता।
इस कथन की तथ्यता पर थोड़ा-सा विचार कीजिए। मुफ्त खाकर अपने ऊपर परीक्षण कर लीजिए अथवा दूसरे मुफ्तखोरों के जीवन का निरीक्षण कीजिए। कुदरत को यह अभीष्ट नहीं कि मुफ्तखोरों को रहने दे। थोड़ी देर के लिए सहन अवश्य करती है, वह भी उतना ही जितना हर पाप को। वह मनुष्य को अवसर देती है कि यदि वह स्वयं ही अपनी भूल का अनुभव करे और सुधर जाए तो अच्छा है अन्यथा इसमें दण्डविधान तो काम करता ही है। माता-पिता अपनी सन्तान की निर्बलताओं को यथाशक्ति तथा अत्यन्त सहिष्णुता के साथ सहन करते हैं और बड़ी-से-बड़ी भूलों की उपेक्षा करते हैं। परन्तु निठल्ली सन्तान से वे भी तंग आ जाते हैं और उनका स्वाभाविक प्रेम-तन्तु भी टूट जाता है। इसलिए मुफ्तखोरी से बड़ा कोई पाप नहीं और सर्वथा नाश ही उस पाप का एकमात्र दण्ड या प्रायश्चित्त है। इसीलिए वेदमन्त्र ने कहा- वध इत् स तस्य। यहाँ ‘इत्‘ का विशेष अर्थ है। मनुष्य की स्वार्थसिद्धि भी तभी होती है जब वह दूसरों के हित की बात सोचता है। व्यवसाय-जगत् पर दृष्टि डालिए। कोई व्यवसाय चल नहीं पाता जब तक उसका आधार परार्थ न हो। कपड़े का व्यापारी दूसरों के हित को दृष्टि में रखकर कपड़े बनाता है। हलवाई दूसरों की रुचि को देखकर मिठाइयाँ बनाता है। आप जितना परहित को दृष्टि में रखकर व्यापार करेंगे, उसमें उतनी ही अधिक सफलता होगी। हर व्यवसाय के लिए प्रश्न रहता है कि उसके साफल्य के लिए बाजार चाहिए। ‘बाजार‘ का क्या अर्थ? यही न कि जिस वस्तु को आप अपने स्वार्थ का साधन बनाना चाहते हैं उसमें दूसरे मनुष्यों का कितना हित निहित है। इससे विदित होता है कि परोपकार आपका पहला कर्तव्य और ध्येय होना चाहिए।
परोपकार के दो रूप हैं। एक विनिमय अर्थात् जो तुम्हारे साथ जितनी भलाई करे उसका कम-से-कम उतना बदला तो तुम दे ही दो। दस रूपये की चीज पाकर उसको दस अवश्य दो अर्थात्ं ‘मोघम् अन्न‘ की प्राप्ति मत करो। मत समझो कि चार रुपये में दस का माल मिल गया तो तुम लाभ में हो। ये मुफ्त के छह रुपये जिसको तुम लाभ समझते हो अन्त में तुम्हारे नाश का कारण सिद्ध होंगे। व्यवसाय में जिसको चालाकी और धोखाधड़ी कहा जाता है, वह व्यवसाय की अवनति का कारण होता है। जब सत्य के आधार पर समस्त जगत् की स्थिति है (सत्येनोत्तभिता भूमि:- ऋग्वेद 10.85.1), तब व्यवसाय जो जगत् का ही एक छोटा-सा अंश है, असत्य पर कैसे टिक सकता है? कहते हैं कि व्यापार की सफलता के लिए साख चाहिए। साख का अर्थ ही यह है कि लोगों को विश्वास हो कि तुम दस रुपये में पूरे दस का माल देते हो। भारतवर्ष के प्राचीन ग्रन्थों में तथा ऐतिहासिक और अर्ध-ऐतिहासिक उदाहरणों में सत्य की बड़ी महिमा गाई गई है। परन्तु दुर्भाग्यवश वह महिमा धर्म-ग्रन्थों और धर्म-उपदेशों तक ही सीमित है । व्यावहारिक-जीवन में उसका प्रयोग बहुत कम है। मैं यहाँ एक ही उदाहरण दूँगा। डर्बन में मुझे एक सुन्दर कम्बल दिया गया। उसमें फैक्टरी की ओर से एक चिट लगी थी, जिसमें लिखा था कि इस कम्बल में साठ प्रतिशत ऊन है, शेष रुई है। यदि भारतीय फैक्टरी होती तो यह लिखा होता कि इसमें शत-प्रतिशत ऊन है। प्रसिद्धि है कि लन्दन का कुंजड़ा आपको स्पष्ट कह देगा कि अमुक सेव खट्टा है। क्या प्रयाग और काशी में भी ऐसे कुंजड़े मिलेंगे? सुना है कि इंग्लैण्ड आदि देशों में पानी में दूध मिलाकर बेचते हैं और स्पष्ट कहते हैं कि इतना दूध है और इतना पानी। क्योंकि पानी मिला दूध पचाने के लिए हलका समझा जाता है। क्या भारत में कोई हलवाई ऐसा करेगा? क्या भारत के व्यवसाइयों को यह बताने की आवश्यकता नहीं कि मोघमन्नं विन्दते अप्रचेता:?
परोपकार का दूसरा रूप है दान। जब आप मूल्य का विनिमय करते हैं तो पूरा बदला नहीं दे पाते। पूरे दाम चुकाने पर भी कुछ-न-कुछ रह ही जाता है। मनुष्य स्थूलरूप से तो दूसरों के परोपकार पर जीवित रहता ही है परन्तु बहुत-से परोक्ष, अदृष्ट और सूक्ष्म रूप हैं, जिनका परिगणन कठिन होता है। जैसे आप किसी अन्धेरी सड़क पर जा रहे हैं। किसी पास के मकान से विद्युत-दीपक की किरणें आ रही हैं। आप इसका मूल्य तो नहीं चुकाते, न मकान वाला आपसे विनिमय मांगता है, परन्तु आपको उससे लाभ अवश्य हुआ है। यहाँ दान का प्रश्न उठता है। यह परोक्ष लाभ भी मुफ्तखोरी होगी यदि आप दान नहीं देते। इसीलिए छान्दोग्य उपनिषद् में धर्म के तीन स्कन्धों का निरूपण करते समय पहले स्कन्ध में दान को भी शामिल किया है।1 जो ‘मोघम् अन्न‘ के पाप से बचना चाहता है उसे दान देना चाहिए। क्योंकि आपके भोगों में दूसरों की देन है। इसका बदला दान से ही हो सकता है। आपका दान सृष्टि के सूक्ष्म नियमों द्वारा उन तक भी पहुँच जाता है जो आपसे अपने उपकारों का मूल्य नहीं माँगते। जो दान नहीं देता उसके लिए वेद कहता है कि वह ‘नो अर्यमणं पुष्यति नो सखायं पुष्यति‘ अर्थात वह अपने किसी हितैषी का पोषण नहीं करता। अर्यमा का अर्थ है परम स्नेही (देखो मोनियर विलियम्स की संस्कृत डिक्शनरी) ‘सखा‘ का अर्थ है ‘साथी‘ या ‘हम-पेशा‘- एक ही काम करनेवाले।
अन्त में वेदमन्त्र ने दान न देने वाले मनुष्य की घोर निन्दा की है। केवलाघो भवति केवलादी। जो अकेला खाता है उसके पास अन्त में ‘पाप‘ के सिवाय कुछ शेष नहीं रहता अर्थात् उसके समस्त पुण्य क्षीण हो जाते हैं। जब पुण्य क्षीण हो गये तो सुख किसका मिले? पुण्य के क्षीण होते ही सुखों का भी क्षय हो जाता है।
अंग्रेजी की एक कहावत है- दान धन का नमक है (Charity is the salt of riches)। अंग्रेजी शब्द साल्ट का अर्थ है नमक। नमक का अर्थ है फलों को सुरक्षित रखने का साधन। जैसे यदि आप नीम्बू या आम को कई महीनों तक सुरक्षित रखना चाहें तो उसमें नमक मिलाकर अचार बना लो, नीम्बू या आम बिगड़ेगा नहीं। इसी प्रकार यदि आप अपने धन की रक्षा करना चाहते हैं तो दान देते रहिए। दान से धन घटता नहीं, बढता है। दान उभयपक्षी हित है। दान पाने वाले का तो हित होता ही है, दान देने वाले का उससे कम हित नहीं होता। इसलिए यास्काचार्य ने दान देने वाले की ‘देव‘ संज्ञा की है- देवो दानाद् वा। दान-दाता देव है। जो दान नहीं देता वह अदेव या असुर है, केवलाघ: है। स्वामी दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश के तीसरे समुल्लास में दान की महिमा में तैत्तिरीय उपनिषद् का एक सुन्दर उद्धरण दिया है- श्रद्धया देयम्। अश्रद्धया देयम्2। श्रिया देयम्। ह्रिया देयम्। भिया देयम्। संविदा देयम्। - तैत्तिरीय उपनिषद शिक्षावल्ली 11.3
श्री स्वामी जी इसका अर्थ देते हैं, श्रद्धा से देना, अश्रद्धा से देना, शोभा से देना, लज्जा से देना, भय से देना और प्रतिज्ञा से भी देना चाहिए।
अश्रद्धा और लज्जा से भी देने पर क्यों बल दिया गया? इसका तात्पर्य यह है कि कभी-कभी सात्विक भावनाओं की कमी होने पर यदि मनुष्य किसी पाप की प्रवृत्ति में फँसने लगता है तो समाज का भय उसे दलदल में फिसलने से बचा लेता है और कालान्तर में उसकी सतोगुणी प्रवृत्ति लौट आती है। डूबते को तिनके का सहारा। अश्रद्धा से देते-देते भी श्रद्धा उत्पन्न हो जाती है। अश्रद्धा और लज्जा से दिया हुआ दान भी दूसरों के उपकार में लगता ही है।
अथर्ववेद में अतिथि-सत्कार के सम्बन्ध में बहुत अच्छा उपदेश है, जो ‘केवलादी‘ के दोष का निरूपण करता है-
इष्टं च वा एष पूर्तं च गृहाणामश्नाति य: पूर्वोऽतिथेरश्नाति॥ अथर्ववेद 9.6 (3).1
अर्थात् जो गृहस्थ अतिथि को बिना खिलाये स्वयं खा लेता है वह घरों की श्री को खा जाता है अर्थात् नष्ट कर देता है।
अर्थात् गृह की शोभा इसी में है कि हम अकेले न खाएँ।
सन्दर्भ-
1. त्रयो धर्मस्कन्धा: यज्ञोऽध्ययनं दानमिति प्रथम:। तप एव द्वितीय:। ब्रह्मचार्य्याचार्यकुलवासी तृतीय:। अत्यन्तमात्मानमाचार्यकुलेऽवसादयन्। सर्व एते पुण्यलोका भवन्ति ब्रह्मसंस्थोऽमृतत्त्वमेति।
(छान्दोग्य उपनिषद् प्रपाठक 2, खण्ड 23 प्रपा.1)
अर्थ- धर्म के मुख्य स्कन्ध या भाग तीन हैं- यज्ञ, अध्ययन और दान। ये तीनों मिलकर धर्म का एक स्कन्ध है। तपस्या ही धर्म का दूसरा स्कन्ध है। अपने शरीर को अतिशय सत्य, अध्ययन, मौन, ज्ञानादि विविध नियमों से क्लेशित करता हुआ आचार्य कुलवासी ब्रह्मचारी आचार्यकुल में जो निवास करता है वही धर्म का तीसरा स्कन्ध है। ये सब आश्रमी पुण्य-लोकवाले होते हैं । परन्तु इन आश्रमियों में जो ब्रह्मनिष्ठ होता है वह मुक्ति को पाता है।
2. कुछ आधुनिक भाष्यकारों ने ‘अश्रद्धया देयम्‘ को विकृत करके अश्रद्धयाऽदेयम् (अश्रधया अदेयम्) ऐसा कर दिया है। यह पाठ ‘अक:सवर्णे दीर्घ:‘ सूत्र के विरुद्ध नहीं जाता, परन्तु प्रकरण के सर्वथा विरुद्ध है। ह्रिया, लज्जया के साथ भी ऐसा ही करना पड़ेगा और दान की जो आवश्यकता वर्णन की गई है वह जाती रहेगी। ऋषि दयानन्द का किया अर्थ ही समुचित है। (दिव्ययुग- जून 2015) - पं. गंगाप्रसाद उपाध्याय
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