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अंग्रेजों द्वारा वेद एवं भारतीय संस्कृति के विरुद्ध षड्यन्त्र (3)

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Conspiracy against the Vedas and Indian culture by the British copyभाषा की उत्पत्ति- यूरोपीयन लोग भाषा की उत्पत्ति में दो प्रकार स्वीकार करते हैं। उनका मत है कि आदिम मनुष्यों ने सम्भवतः भाषा दो में से किसी एक प्रकार से प्राप्त की होगी। उन्होंने या तो पशुओं की चिल्लपों से या वायु से कम्पमान वृक्षों की साँय-साँय, धाँय-धाँय से धीरे-धीरे भाषा बना ली होगी। यह वाद इतना मूर्खतापूर्ण है कि इस पर विचार करना अपने समय को व्यर्थ नष्ट करना है और परीक्षणों से भी यह वाद निराधार सिद्ध होता है। पैलेस्टाइन, असीरिया तथा मिश्र का एक सम्राट् हुआ है जिसका नाम मिश्री इतिहास में बनीपाल अस्सुर लिखा है। संस्कृत साहित्य में उसका नाम वाणासुर लिखा है। उसकी कन्या उषा ने कृष्ण महाराज के पौत्र अनिरुद्ध का हरण किया था। उस सम्राट् के मन में मनुष्य की मूल भाषा जानने की इच्छा हुई। इसके लिए उसने वन में एक प्रासाद बनाया और उसमें सद्यः प्रसूत अनेक बालकों को रखवाया। उनके पालन-पोषण के लिए जो धाएँ रक्खी गईं, उनके मुखों पर पट्टियाँ बन्धवाई गईं और उन्हें मौन रहने का कठोर आदेश दिया गया। बड़ा होने पर वे बालक राजसभा में लाये गये। वे टिक्-टिक् सरीखा शब्द बोलते थे। खोज करने पर ज्ञात हुआ कि एक कुम्हार मिट्टी लेने के लिए गदहों को लेकर वन में जाया करता था। वह उस महल के पास से अपने गदहों को हाँकता हुआ ले जाया करता था। वह अपने गदहों को हाँकने के लिए जो शब्द करता था, बच्चों ने उसका अनुकरण कर लिया। इस घटना से सिद्ध होता है कि सिखाये बिना मनुष्य भाषा नहीं सीख सकता।

जैसा कि बताया जा चुका है कि वेद संसार के पुस्तकालय में सबसे पुराना ग्रन्थ है, अतः उसकी भाषा का सबसे पुराना होना स्वाभाविक है। यूरोपीयन लोग इसमें आनाकानी करते हैं। वे भाषाओं के चार प्रधान वर्ग बनाते हैं (1) इण्डो जर्मनिक या इण्डो यूरोपीयन (2) सेमिटिक (3) हैमिटिक तथा (4) मंगोलियन। वे प्रथम वर्ग में संस्कृत, प्राकृत, पाली, संहाली, ब्राह्मी, हिन्दी, बंगला, गुजराती आदि भारतीय भाषाएँ तथा पखतो, जन्द, पहलवी, फारसी, बैबिलेनिया की पुरानी भाषा, तुर्की, हँगरी, लिटेविया की भाषाएँ सम्मिलित करते हैं। हम इस वर्ग में इण्डोनेशिया की कवि भाषा तथा यूरोपीयनों के जाने से पूर्व अमेरिका के मूलवासी इंकाओं एवं मयों आदि की भाषाओं को भी सम्मिलित करते हैं। दूसरे वर्ग में सुरयानी, इब्रानी तथा अरबी का समावेश होता है। तीसरे में मिश्र की पुरातन भाषा को प्रधान स्थान मिलता है। चतुर्थ वर्ग में तातारी, चीनी, जापानी आदि भाषाओं को मानते हैं। संसार की शेष भाषाएँ इनमें से दो वा अधिक का मिश्रण मानी जाती है।

वैदिक भाषा सबसे पुरातन एवं मूल- इस प्रकार भाषाओं का वर्गीकरण करके वे इण्डोजर्मनिक वर्ग की भाषाओं में संस्कृत को मानते हैं। वैदिक भाषा को ज्येष्ठ भगिनी का स्थान देते हैं, माता का नहीं। कोई-कोई उसे मातृपद प्रदान करने का साहस भी करते हैं। गवेषक माता की खोज करते हैं, किन्तु कोई भाषा मिलती नहीं, जिसे यह पद दिया जा सके। अतः वे एक काल्पनिक भाषा की जिसका न कोई ग्रन्थ है, न कोई साहित्य है, न कोई लोकगीत है, सृष्टि करके उसका नाम सुमेरियन रखते हैं। जिस भाषा की सत्ता के प्रमाण साहित्य, ग्रन्थ लोकगीत आदि कोई भी न हों, उसकी सत्ता मानना प्रमाणकुशल यूरोपीय भाषाशास्त्रविशारदों तथा उनके अनुयायियों द्वारा ही हो सकता है। लक्षणप्रमाणाभ्यां वस्तुसिद्धिः। लक्षण तथा प्रमाण के द्वारा वस्तु की सिद्धि होती है। कोई भी बुद्धिमान इस काल्पनिक भाषा की सत्ता मानने को तैयार नहीं हो सकता।

बात सीधी है। जब तक तथाकथित माता का पता न लगे, तब तक बहिन को माता मानने में ही कल्याण है। प्रसंग से एक बात का कहना आवश्यक प्रतीत होता है। भाषाओं का यह वर्गीकरण हमें उचित प्रतीत नहीं होता। तथ्य यह है कि अन्य वर्गों में भी संस्कृत के शब्दों की प्रचुर मात्रा मिलती है। उदाहरण के लिए सेमिटिकवर्ग की अरबी भाषा को ही लें । इसमें ईश्‍वर के लिए ‘अल्ला’ शब्द आता है। यह शब्द विशुद्ध संस्कृतभाषा का है। पाणिनि ने अपने शब्दानुशासन में ‘अम्बार्थनद्योर्ह्रस्वः’ सूत्र लिखा है। सभी ने इसके उदाहरणों में अम्बा, अक्का, अल्ला आदि शब्द गिनाये हैं। कोशकारों ने ‘माता, पूज्य देवता तथा भूषण’ ये अर्थ इस शब्द के लिखे हैं। इसी प्रकार वेद का ‘रयिशिन्’ शब्द अरबी में ‘रईस’ जा बना है। वेद के ‘पृतना’ शब्द ने वहाँ फ़ितना का रूप जा धरा है। ऐसे अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं। संस्कृत भाषा में एकवचन तथा बहुवचन के साथ द्विवचन का प्रयोग भी होता है। अरबी में भी द्विवचन का प्रयोग होता है। संस्कृत में कृदन्त क्रियाओं के स्त्रीलिंग के रूप विभिन्न होते हैं। अरबी में भी स्त्रीलिंग की क्रियाओं के रूप भिन्न होते हैं। इसी प्रकार की अन्य अनेक समताएँ हैं, जो सैमिटिकवर्ग की भाषाओं को संस्कृत से सम्बद्ध बतलाती हैं। इससे समझा जा सकता है कि भाषाओं का उक्त वर्गीकरण वास्तविक नहीं है।

संस्कृत का प्रचार सर्वत्र था- ऐसा प्रतीत होता है कि संस्कृतभाषा किसी समय अवश्य ही विश्‍वव्यापिनी रही है। सुदूरपूर्व बालीद्वीप में आज भी संस्कृत बोली जाती है, चाहे वह विकृत रूप में ही है। मक्षोक (मैक्सिको) तथा पानामा देश के मध्यवर्ती वन का अनुसन्धान करने पर एक अज्ञातचर मानवसमुदाय के दर्शन हुए। जातितत्वविशारदों ने उसका नाम व्हाईट इण्डियन (White Indian) रखा। अमरीकी रेड इण्डियनों (Red Indian) से अलग दर्शाने के लिए उस समुदाय का यह नाम रखा गया। अद्भुत बात यह है कि उस समुदाय की भाषा की जाँच करने पर भाषातत्ववज्ञों ने उसका नाम टूटी-फूटी संस्कृत (Broken Sanskrit) रखा। यूरोपीयन ऐतिहासिकों का कथन है कि कोलम्बस से पूर्व इधर का कोई मनुष्य अमरीका नहीं गया था। अर्थात् भारत से उनका सम्पर्क था ही नहीं। प्रश्‍न होता है कि वहाँ संस्कृत कैसे पहुँची? दो प्रकार से इसका उत्तर दिया जा सकता है (1) या तो मानो कि अमरीका में भी संस्कृत बोली जाती थी अथवा (2) संस्कृतभाषीजन भारत से किसी पुरातन युग में वहाँ पहुँचे होंगे। हमें दोनों अभीष्ट हैं। वादी के लिए दोनों ही अनिष्टकारक हैं। - स्वामी वेदानन्द तीर्थ

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