ओ3म् पावका नः सरस्वती, वाजेभिर् वाजिनीवती।
यज्ञं वष्टु धियावसुः॥ ऋग्वेद 1.3.10॥
ऋषिः मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः। देवता सरस्वती। छन्दः गायत्री।
(पावका) पवित्रतादायिनी, (वाजिनीवती) क्रियामयी, (धिया-वसुः) बुद्धि और कर्म द्वारा निवास प्रदायिनी (सरस्वती) सरस्वती-जगन्माता और वेदवाणी (वाजेभिः) अन्नों, धनों, बलों, वेगों, विज्ञानों आदि के द्वारा (नः) हमारे (यज्ञं) (जीवन रूप) यज्ञ को (वष्टु) पूर्ण करने की कामना करें।
आओ, हम सरस्वती की वन्दना करें। सरस्वती जगन्माता जगदीश्वरी का नाम है, क्योंकि वह रसमयी है, सबको अपना मधुर रसमय स्तन्य पान कराने वाली है। उसका दुग्ध-रस ज्ञान, बल, पुष्टि, विवेक, चैतन्य, प्राण, स्फूर्ति आनन्द सब कुछ देने वाला है। उसका पयःपान कर निपट अज्ञानी जन ज्ञान-राशि के वारिधि बन जाते हैं। उसका पयःपान कर पतित जन महर्षि बन जाते हैं। उसका पयःपान कर निर्बल आत्मा वाले जन आत्मिक बल के भण्डार बन जाते हैं। उसका पयः पान कर सांसारिक दुःखों से उत्पीड़ित जन सुख-सागर की तरंगों में झूलने लगते हैं। उसका पयः पान कर आतुर जन तन-मन से स्वस्थ और सुखी बन जाते हैं। उसका पयःपान कर निष्क्रिय जन सक्रिय बन जाते हैं। उसका पयःपान कर असुर जन देव बन जाते हैं। वह ‘पाविका’ है, अपवित्रों को पवित्र करने वाली है, कालुष्य से मलिन अन्तःकरण वालों के मालिन्य का अपहरण करने वाली है। वह ‘वाजिनीवती’ है, क्रियामयी है। वह ‘धियावसु’ है, बुद्धि-प्रदान और कर्मोपदेश द्वारा निवास प्रदायिनी है, ऐसी वह जगदीश्वरी माँ हमारे जीवन में पदार्पण करे और अपने पास विद्यमान अन्न, धन, बल, वेग, विज्ञान आदि की निधि के द्वारा हमारे जीवन यज्ञ को पूर्णता प्रदान करे।
सरस्वती वेदवाणी को भी कहते हैं। क्योंकि वह जीवन को संतृप्त करने वाले ज्ञान के रस से भरपूर है। उसमें भौतिक विद्या, अध्यात्म-विद्या, शरीर-विद्या, आरोग्य-विद्या, मनोविज्ञान, दर्शन आदि सब विद्याओं का सरस स्रोत उमड़ रहा है। वह ‘पाविका’ है, श्रोता के मानस को पवित्र करने वाली है। वह ‘वाजिनीवती’ है, सशक्त क्रियावाली है। अर्थचिन्तनपूर्वक किया गया उसका मन्त्र पाठ वेदपाठी को उद्बोधन देकर उसके मन में एक तीव्र क्रिया उत्पन्न कर देता है। वह ‘धियावसु’ है, नवनवोन्मेषशालिनी प्रज्ञा के प्रदान और कर्त्तव्य प्रेरणा के द्वारा अपने अध्येता को निवास प्रदान करने वाली है।
हे वरदे सरस्वती! हमें वरदान दो। हे विद्या वीणा के तारों को झंकृत करने वाली माँ! हमें विद्या की झंकार सुनाओ। हे दिव्ये! हमें अपने दिव्य नाद से अनुप्राणित करो। हे मातः! हमारी वन्दना को स्वीकार करो। - आचार्य डॉ. रामनाथ वेदालंकार
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