एक सन्त घने जंगल से होकर अपने गन्तव्य के लिये निकले। यह देखकर उनका शिष्य भी उनके पीछे चल पड़ा। रास्ते में नदी पड़ी। नदी को पार करने के लिए कोई पुल न था। सन्त को नदी के पार पहुंचना जरूरी था। यह देख शिष्य दौड़कर गुरु जी से आगे आया और नदी के तेज जल में उतर गया। गुरु खड़े हुए यह दृश्य देखते रहे। शिष्य नदी को पार करने लगा। उसके गले तक जल आने लगा। अन्ततः उसने नदी को पार कर ही लिया। उसने गुरु जी से कहा- गुरुवर! अब आप भी धीरे-धीरे नदी पार कर लें। गुरु ने भी उसके आग्रह पर तेज जल प्रवाह में चलकर नदी को पार कर लिया।
सन्त ने शिष्य से कहा कि तू दौड़कर मुझसे आगे आया और नदी में उतर गया। अगर तू डूब जाता तो क्या होता? शिष्य ने गुरु के चरण पकड़कर कहा- “हे गुरुवर, अगर मैं डूब जाता तो कोई फर्क न पड़ता, किन्तु अगर आप डूब जाते तो देश की अत्यधिक हानि होती। आपको मेरे जैसे अनेक शिष्य मिल जायेंगे। किन्तु जन-मानस को आप जैसा गुरु कहाँ से मिलता?’’
कृतज्ञता
किसी के उपकार को मानना कृतज्ञता है। यह एक दिव्य गुण है। जबकि किसी के उपकार को न मानना कृतघ्नता है। यह पाप है। हमारे इतिहास में अनेक ऐसे प्रेरक उदाहरण हैं, जो हमें इस ओर सचेष्ट करते हैं कि हमें जीवन में कृतज्ञता जैसे पुण्य को अवश्य अर्जित करना चाहिए।
भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र उन उच्चकोटि के प्रसिद्ध साहित्यकारों में थे, जिनकी विशेषताओं के कारण उनके समय को भारतेन्दु युग की संज्ञा दी जाती है। वे असीम उदार थे। अपनी उदारता के कारण वे धनाभाव से ग्रस्त रहते थे। एक समय इनके पास ऐसा भी आया कि जब इनके पास इतने भी पैसे न थे कि बाहर से आए पत्रों का उत्तर भी भेज सकें। पत्रों के उत्तर तो लिखते थे, किन्तु डाक में तो तभी भेजे जाएं, जब उन पर यथोचित डाक टिकट लगेहुए हों। किन्तु इसके लिए पैसे कहाँ थे? परिणाम यह हुआ कि पत्र के उत्तरों का ढेर जमा हो गया। उनके एक मित्र ने जब यह देखा तो द्रवित हुआ और पांच रुपये के डाक टिकट लाकर दिए। तब वे पत्र डाक में डाले गए।
समय बदलता रहता है। भारतेन्दु जी का आर्थिक अभाव टल गया। उनकी आर्थिक स्थिति सुधरी। अब जब भी वह मित्र मिलते, तभी भारतेन्दु जी बलपूर्वक उनकी जेब में पाँच रुपये डाल देते और कहते “आपको याद नहीं, आपके पाँच रुपए मुझ पर ऋण हैं।’’ मित्र इनके इस व्यवहार से तंग आ गया और एक दिन उनसे कहा- ’‘मुझे अब आपसे मिलना बन्द करना पड़ेगा।’’
भारतेन्दु जी की आँखों में आँसू भर आए और वे रुन्धे कण्ठ से बोले- “भाई! तुमने ऐसे समय में मुझे पाँच रुपए दिए थे कि मैं जीवन भर नहीं भूल सकता। मैं तुम्हें यदि पाँच रुपये प्रतिदिन देता रहूँ, तो भी तुम्हारे ऋण से नहीं छूट सकता।’’
बात साधारण सी है। किन्तु कृतज्ञता के भाव को गम्भीरता से प्रकट करती है।
जिन्दगी के नियम
सुप्रसिद्ध क्रान्तिकारी रामप्रसाद बिस्मिल को जिस दिन फांसी दी जानी थी, उस दिन सुबह जल्दी उठकर वह रोज की तरह व्यायाम करने लगे। जेलर ने पूछा, “आज तो आपको कुछ समय बाद फांसी लगने वाली है, फिर व्यायाम से लाभ?’‘
रामप्रसाद बिस्मिल ने मुस्कुरा कर उत्तर दिया, “जीवन आदर्शों व नियमों से पूर्ण रूप से बन्धा हुआ है। जब तक शरीर में सांस चल रही है, तब तक नियमों में व्यवधान आने देना उचित नहीं है? मैं अपना धर्म निभाने में लगा हूँ। कुछ देर बाद आप अपना कर्त्तव्य पूरा करना।’’ जेलर बिस्मिल की बात सुन ठगा-सा खड़ा रह गया। - प्रस्तुतिः कु. भावना
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