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विचार शक्ति का महत्व

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Vicharo ki

विचार शक्ति का मनुष्य जीवन में एक विशिष्ट स्थान है। इसका प्रभाव जीवन में भिन्न-भिन्न प्रकार से असन्दिग्ध रूप में होता ही रहता है। यह एक महान् शक्ति है, जो प्रत्येक मानव के अन्तर में निहित है। बुद्धि अथवा परिस्थितियों द्वारा जब उसका विकास हो जाता है, तब उससे निसन्देह कभी-कभी आश्‍चर्यजनक कार्य भी होते देखे गये हैं। परमात्मा की दी हुई इस शक्ति का लाभ प्रत्येक नर-नारी को अवश्य उठाना चाहिये, अन्यथा वह परम उपादेय शक्ति प्रयोगविहीन रहकर कुण्ठित हो जाती है और हम उसके सभी सम्भव लाभों से वंचित रह जाते हैं।

यह सम्पूर्ण जगत ही विचार (संकल्प) शक्ति का परिणाम है। यह प्रकृति तो जड़ होने के कारण स्वयं गति शून्य है, परन्तु परमात्मा में जगदोत्पत्ति का विचार आते ही प्रकृति में गति उत्पन्न हो जाती है और प्राकृतिक नियम के अनुसार क्रमशः जगत् की उत्पत्ति हो जाती है। यह इतना अतुलित, महान् अपरिमित एक अद्वितीय कार्य केवल विचार (संकल्प) के बल पर ही हो जाता है। इसी कारण इस विचार शक्ति का इतना व्यापक महत्व है। मनुष्य जैसे विचार करता है वैसा ही बन जाया करता है। यदि किसी व्यक्ति के विचार अच्छे हैं, जो केवल सत्संग, उपासना और उत्तम साहित्य के अध्ययन से ही हो सकते हैं, तो वह अच्छा बन जाता है और यदि बुरे हैं जो कुसंगति और कुसंस्कारों का परिणाम होते हैं, तो वह बुरा बन जाता है। मनुष्य को सुख और दुःख का जो भान होता है, वह भी इन्हीं विचारों का परिणाम है।

इन विचारों का उद्गम स्थान हृदय है और मन के द्वारा उनका व्यापार होता है। जितनी कामनाएँ हैं सभी का कारण विचार ही हैं। मनुष्य पहले मन में विचार करता है, पुनः उसे वाणी अथवा लेख द्वारा प्रकाशित करता है, फिर फल विधि के विधानानुकूल उसे मिल जाता है। इससे स्पष्ट है कि सभी कर्मों का प्रथम अथवा मूल कारण विचार ही है। स्वामी विवेकानन्द ने अपनी पुस्तक ‘राजयोग’ में एक स्थान पर लिखा है, “मनुष्य के हृदय से निकला हुआ प्रत्येक घृणा अथवा प्रेम का विचार बलपूर्वक उसी उसी के पास लौट आया करता है, कोई शक्ति उसे रोक नहीं सकती। अर्थात् घृणा से घृणा और प्रेम से प्रेम की उत्पत्ति होती है।

मनुष्य बूढ़ा क्यों होता है? विशेषतः अपने विचारों के कारण। जैसे-जैसे वह बुढ़ापे की बातें सोचता जाता है, वैसा ही वह होता जाता है। अमेरिका का एक प्रसिद्ध लेखक बैनट इसका ज्वलन्त उदाहरण है। उसने अपनी 50 वर्ष तक की आयु का उसका एक फोटो उसकी प्रसिद्ध पुस्तक, "Old age, its cause and prevention'' में है। फोटो के देखने से यह प्रत्यक्ष हो जाता है कि वह लगभग 70 वर्ष के बुड्ढ़े का चित्र है। बाल सफेद, गले में झुर्रियाँ, माथे में सिकुड़न और सम्पूर्ण शरीर की त्वचा मांस रहित। 50 वर्ष की आयु के पश्‍चात् उसने अपना स्वास्थ्य सुधार प्रारम्भ किया। उसने केवल दो बातों को अपनाया (1) समस्त शरीर के हलके व्यायाम, (2) अपने विचारों को उपयोगी और शक्तिशाली बनाना। इन्हीं दोनों बातों का अभ्यास उसने निरन्तर 20 वर्ष तक किया। 70 वर्ष की आयु का एक दूसरा चित्र उसी पुस्तक में है, जिससे प्रकट होता है कि वह चित्र किसी पैतींस-छत्तीस वर्ष के युवक का है। इस आयु में उसके शरीर में बुढ़ापे के सभी चिन्ह अदृष्ट हो गए थे।

उसी पुस्तक में एक दूसरा उदाहरण उसने फ्रांस की एक लड़की का दिया है। उस लड़की ने 19 वर्ष की आयु में अपना विवाह वहीं के एक नवयुवक के साथ करने का निश्‍चय किया। नवयुवक ने अपनी निर्धनता के विचार से लड़की से कहा कि विवाह तो निश्‍चित है, परन्तु विवाह से पूर्व मैं कुछ धन संग्रह कर लूं। लड़की ने उसे स्वीकार कर लिया। वह धन उपार्जन करने के लिये अमेरिका चला गया। उस युवक ने तीन वर्ष में अपने अथक परिश्रम से पर्याप्त धन अर्जित कर लिया। परन्तु किसी झगड़े में उसे 15 वर्ष अमेरिका में और रुकना पड़ा। 18 वर्ष पश्‍चात् जब वह फ्रांस लौटा, तब उन दोनों का विवाह हुआ। परन्तु आश्‍चर्य की बात जो उसने देखी वह यह थी कि 37 वर्ष की आयु में भी उस लड़की के मुख की आकृति ठीक वैसी ही थी, जैसी वह 19 वर्ष की आयु में अमेरिका जाते हुए छोड़ गया था। उसका रहस्य पूछने पर युवती ने कहा, “मैंने निश्‍चय किया था कि 19 वर्ष की आयु में विवाह करूँगी। परन्तु जब वह न हो सका, तो उसने दूसरा निश्‍चय किया कि विवाह जब भी होगा मैं उस समय तक अपने मुख का आकार-प्रकार वैसा ही बनाये रखूंगी जैसा 19 वर्ष की आयु में था।’’ इस निश्‍चय की पूर्ति के लिए उसने अपने एक कमरे में मनुष्य की ऊँचाई का एक दर्पण बनवाया जिसमें देखकर उसने अपने मुख की आकृति मन में अंकित कर ली। अब वह जब भी दिन में इस कमरे से होकर जाती तो एक मिनट के लिये उस दर्पण के सम्मुख खड़ी होकर देख लिया करती कि उसके मुख की आकृति में कोई अन्तर तो नहीं आया है। निरन्तर 18 वर्ष तक यह क्रम चलता रहा और उसके सशक्त विचारों का यह प्रभाव हुआ कि उसके मुख की आकृति में कोई अन्तर नहीं आने पाया। यह है विचार का महत्व।

इस विचार शक्ति का उपयोग जीवन में मनुष्य अनेकों स्थान पर यदि चाहे तो सफलतापूर्वक कर सकता है। विचार प्रकृति के नियम के अनुसार अपने ही समान विचारों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। विचारों के द्वारा हम सदैव अपने विचारों के समान ही शक्ति और विचार दृश्य और अदृश्य जगत् में से अपनी ओर आकर्षित करते रहते हैं। हम उसे जानें अथवा न जानें, उसकी इच्छा करें अथवा न करें, परन्तु यह सिद्धान्त अपना कार्य करता ही रहता है। अंग्रेजी में भी इस सम्बन्ध में एक कहावत है, ''Like attracts live'' अर्थात् जैसे को तैसा सदैव आकर्षित करता ही रहता है। शराबी शराबी को, जुआरी जुआरी को, चोर चोर को, गायक गायक को, सत्संगी सत्संगी को इत्यादि। हम विचारों के सागर में तो निवास ही करते हैं, जहाँ से हमारे विचार बाहर जाते और बाहर से विचार हमारे पास आते रहते हैं। इस अदृश्य धारा का प्रवाह निरन्तर होता ही रहता है। जिस प्रकार हमारी श्‍वास और नाड़ी सदैव चलती रहती है, परन्तु हम उस ओर कभी ध्यान नहीं देते, ठीक उसी प्रकार विचारों का आदान-प्रदान भी सदैव अज्ञात रूप में होता ही रहता है, परन्तु हम उधर ध्यान बहुत ही कम देते हैं।

विचारों से ही कर्म की उत्पत्ति होती है। बिना विचारों के कोई कर्म नहीं बनता। विचार ही कर्मों की जननी है। यह निर्विवाद तथ्य है कि शुभ विचारों से शुभ कर्म ही बनेंगेऔर विचार जितने ही प्रबल होंगे, कर्म उतना ही अधिक साध्य और सफल होगा। मनुष्य जितने सूक्ष्म विचार तरंगों को ग्रहण करने योग्य होता है उतना ही प्रभाव विचारों का उस पर होता है। निर्बल मन वाले मनुष्य पर बाहर के विचारों का अधिक और शीघ्र प्रभाव होता है। वह विचारों के अधीन शीघ्र ही हो जाता है। सुदृढ़ मन वाले मनुष्य किस विचार को मन आने देना और किसको न आने देना, ऐसा ध्यान में रखकर ही उन्हें ग्रहण करते हैं। विचारों का प्रभाव मनुष्य पर होता ही है। मनुष्य जैसे विचारों की संगति में रहता है और जैसा साहित्य पढ़ता है, उसके विचारों की प्रबलता से दुसाध्य कार्य भी सुसाध्य देखे गये हैं।

दुष्ट प्रकृति के व्यक्ति का स्वभाव मीठे उपदेशों से तथा हितकारी परामर्श से नहीं बदला जा सकता। परामर्श देने वाला उनके उपहास का पात्र बनता है। कठोर प्रकृति के उन्मत्त और दुष्चरित्र व्यक्ति का सुधार कठोर दण्ड से ही हो सकता है। - आचार्य डॉ. संजयदेव


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