प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में भय किसी न किसी कारण से होता है। हिंसक जन्तु, भीमकाय पुरुष, अस्त्र-शस्त्र, शासक तथा दण्डदाता, जिसका कुछ अपराध किया हो, योग और वियोग की आशंका, अनिष्ट और अप्रियता की आशंका आदि कारण भय को उत्पन्न करने वाले होते हैं। रात्रि, निर्जन वन, श्मशान, पर्वत आदि भय को और उत्तेजित करते तथा बढ़ाते हैं। कान्तिहीनता, प्रलाप, रोमांच, पसीना, कम्प, चिल्लाना और इधर-उधर ताकना इत्यादि भयभीत व्यक्ति के चित्त के भाव प्रकट करते हैं। निन्दा, आवेग, मोह, त्रास, ग्लानि, दीनता, शंका, मिर्गी, सम्भ्रम आदि मानसिक विकार उत्पन्न होकर भय की पुष्टि करते हैं और अन्त में विलीन हो जाते हैं।
जो वस्तु बचपन में भय का कारण होती है, वही यौवनावस्था में हमारे तिरस्कार वा उपहास का विषय बन जाती है। बच्चों को बहुरूपिया से भय लगता है, किन्तु वह हमारे विनोद का कारण होता है। वन, हिंसक पशु इत्यादि यद्यपि भयानक पदार्थ हैं परन्तु बहुत से लोग इनमें आनन्द पाते हैं। लोग विशेषकर ऐसे वनों व पार्कों में जाते हैं, जहाँ हिंसक पशु रहते हैं, उन्हें देखने का आनन्द उठाने के लिए । स्वयं सीता जी ने भी भयानक वनों को दुबारा देखने की इच्छा प्रकट की थी ।जिससे हानि की शंका होती है, उसी का भय होता है। अथवा जिससे प्रेम होता है उसका भी भय होता है । क्योंकि उसका रुष्ट होना अथवा उसका दूर हो जाना, उसको कष्ट पहुंचना एक प्रकार की हानि ही है। भय का ममत्व के साथ भी गहरा सम्बंध है।
आचार्य महाप्रज्ञ का कथन है- “प्रत्येक व्यक्ति में दुर्बलता होती है, कोई परिपूर्ण नहीं होता। भय अपनी दुर्बलता के कारण ही सताता है।“
भय का समाज में बहुत काम पड़ता है । दण्ड का भय समाज के लोगों को दुष्कर्म करने से बचाता है। लोकापवाद का भी भय दण्ड का सा भय होता है । किन्तु जहाँ लोग समाज की परवाह नहीं करते, वहाँ पर यह भय कुछ काम नहीं करता है। जब हम लीक से हटकर कुछ काम करते हैं तो भय लगता है कि लोग क्या कहेंगे। और कभी-कभी इसी भय से अगर कोई अच्छा कार्य भी कर रहे हैं, तो रुक जाते हैं। सामाजिक जीवन में भय अनावश्यक है, यह कहना कठिन है। सबका जीवन उन्नत नहीं होता, इसलिए यदि थोड़ा भी भय न हो तो व्यवस्था ठीक नहीं चलती। तो कभी-कभी भय भी दिखाना होता है।
बाबू गुलाबराय जी ने लिखा है- “हमें निर्बल को अपनी शक्ति का भय नहीं दिखाना चाहिए। क्योंकि भय की प्रीति स्थायी नहीं होती और दूसरों को कमजोर बना देती है।“
आजकल के मनोवैज्ञानिकों ने माना है कि भय के कारण मुँह में थूक प्रवाहिनी जो ग्रन्थि होती है, वह अपना कार्य करना बन्द कर देती है। उरपरप ने अपनी पुस्तक ’इेवळश्रू लहरपसशी ळप रिळप, र्हीपसशी, षशरी रपव ीरसश’ में इस बात की पुष्टि में कि भय से थूक सूख जाता है, हिन्दुओं की उस प्रथा का उल्लेख किया है जिसमें कि चावल चबवाकर चोरी पकड़ते हैं। चोर के मुख से सूखे चावल निकलते हैं, क्योंकि उसके मुख का थूक भय के कारण सूख जाता है।
भय बचपन से लेकर अन्त समय तक बना रहता है। बचपन में माँ-बाप का डर, स्कूल में शिक्षक का डर, ऑफिस में अपने अधिकारी का डर, खेलकूद में हारने का डर, व्यापार में घाटे का डर, बीमारी में मरने का डर बना रहता है। भय से मुक्ति पाने का उपाय श्रीमद्भगवद्गीता के दसवें अध्याय के चौथे श्लोक के अनुसार “भय तो भविष्य की चिन्ता से उद्भूत है। परमात्मा की व्यवस्था के अनुसार चलने वाला व्यक्ति कभी भयभीत नहीं होता, क्योंकि वह अपने कर्मों के द्वारा भगवद्धाम को वापस जाने के प्रति आश्वस्त रहता है।“
श्रीमद्भागवत (11, 2, 37) में कहा गया है कि भय तो हमारे मायापाश में फंस जाने से उत्पन्न होता है। किन्तु जो माया के जाल से मुक्त हैं, जो आश्वस्त हैं कि वे शरीर नहीं हैं, अपितु नित्य शुद्ध-बुद्ध आत्मा हैं और जो भगवद्भक्ति में लगे हुए हैं उन्हें कोई भय नहीं रहता।’’
आचार्य महाप्रज्ञ के अनुसार अभय के सूत्र हैं- निर्भयत्व की साधना, निर्विकल्पता की साधना और मैत्री। निर्भयत्व और निर्विकल्पता का विकास होगा, तो भय की साधन सामग्री अपने आप क्षीण हो जाएगी। जैसे-जैसे चित्त के केन्द्रीकरण का अभ्यास बढ़ता जाएगा, वैसे-वैसे भय की मात्रा कम होती जाएगी। मन पर विजय पाने का अभ्यास करने से वह त्यक्त हो जाता है। भय, घृणा, ईर्ष्या, लोभ आदि स्वयं मिट जाते हैं।
प्राणी डरता है दुःख से। एक बार भगवान महावीर से पूछा गया- भंते ! किं भया पाणा ? भगवन् प्राणी किससे डरते हैं ? दुख भया पाणा। दुःख से। दुक्खे केसा कड़े? दुख का कर्ता कौन हैं? ‘पमाएणम्’- अपना ही प्रमाद । उसका नाश कैसे होता है? अप्रमाद से। हमारे मन में प्रमाद नहीं होगा, तो दुःख का कारण नहीं होगा। दुःख का कारण नहीं होगा तो भय भी नहीं होगा। - विनोदशंकर गुप्त
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